ख़ल्वत-ओ-जल्वत | Khalvat-o-jalvat
ख़ल्वत-ओ-जल्वत
( Khalvat-o-jalvat )
ख़ल्वत-ओ-जल्वत में यारों फ़र्क ही कितना रहा
उसकी यादों का सदा दिल पर लगा पहरा रहा।
मुझमें ही था वो मगर किस्मत का लिक्खा देखिए
अंजुमन में गैऱ के पहलू में वो बैठा रहा।
कुछ कमी अर्ज़ -ए – हुनर में भी हमारी रह गई
वो नहीं समझा था दिल की बात बस सुनता रहा।
यूॅं तो ज़ाहिर कर रहा था मुत्मइन खुद को बहुत
चाॅंद सा वो रुख़ मगर हर वक्त ही उतरा रहा।
की ज़माने ने गिराने की बहुत साजिश मगर
हौसलों की भर के मैं परवाज़ बस उड़ता रहा ।
बज़्म में उसके हवाले से पढ़े क्या शेर दो
आज बस इस वाकये का शहर में चर्चा रहा।
इम्तिहां में नाम लिखने थे फरिश्तों के नयन
मैं मुसलसल नाम उस इक शख़्स का लिखता रहा।
सीमा पाण्डेय ‘नयन’
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )
ख़ल्वत-ओ-जल्वत – भीड़ और तन्हाई
अंजुमन – सभा
अर्ज-ए -हुनर – कहने का तरीका
मुत्मइन – निश्चिंत
परवाज़ – उड़ान
मुसलसल – लगातार
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