मन बसी झुंझलाहट
मन बसी झुंझलाहट
मेरे दुःख दर्द का तुज पर हो ऐसा असर ,
कि आईना तुम देखो और चहरा मेरा दिखे l
सबसे ज्यादा दर्द तो तब हुवा ,
जब तुम्हे देखे बिना लौट आया l
इतना दर्द देकर भी मन को भाती हो ,
अगर हमदर्द होती तो क्या आलम हो l
क्या कहूँ ,
एक ही हमदर्द था ज़माने में l कई वर्ष बीत गए मनाने में l
ओ रूखी थी मुकद्दर पर l और मैं रुखा था इकरार पर ,
अब पताचला वर्ष सारे कहाँ बीत गए l
दुवा करना ऐ दोस्त , दम भी तभी निकले ,
जिस दिन उसके दिल से , हम निकले l
आलम ए हुवा ,
कि खुद ही रोए , खुद ही चुप हो गए l
ये सोचकर कि कोई अपना होता तो रोने न देता ll
अभ पताचला ,
कितना अकेला हो जाता है , ओ शख्स l
जिसे चाहते तो बहुत लोग है , फिरभी ओ तन्हा उसके बिन l
मैं जो हूँ मुझें रहने दो , हवा के जैसे बहने दो ,
अभ मुसाफ़िर हो गया हूँ l तुम बिन मुझें ऐसे ही रहने दो l
ये जो हालात है , यक़ीनन एक दिन सुधर जाएँगे ,
लेकिन तेरे बिन , हम भरी मैफिल में तन्हा रह जाएँगे l
वाहिद खान पेंडारी
( हिंदी : प्राध्यापक ) उपनाम : जय हिंद
Tungal School of Basic & Applied Sciences , Jamkhandi
Karnataka
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