जम्हूरा मन
जम्हूरा मन
वर्षों का विश्वास तोड़कर,
चलता बना जम्हूरा मन।
अब तक मुझे कचोट रहा है,
मेरा यही अधूरापन।
धड़कन तार-तार हो जाती,
सपना दिन में तारे सा,
साँस गटरगूँ करता रहता,
अपना बिना सहारे सा।
बनी ज़िन्दगी ढोल-नगाड़ा,
बाजे ख़ूब तम्बूरा मन।
आओ और उड़ाओ खिल्ली,
मेरे एकाकीपन की।
चिन्दी-चिन्दी छीन-झपट लो,
बेढ़ंगे जर्जर तन की।
ओखलिया में कूट-कूट कर,
बना लिया है चूरा मन।
जाने कैसी उलझन में है,
क्यों बेचैन सदा रहता।
शंका आशंका में डूबा,
चुप रहता फ़िर कुछ कहता।
ऊपर-ऊपर से रसगुल्ला,
भीतर बड़ा धतूरा मन।
देशपाल सिंह राघव ‘वाचाल’
गुरुग्राम महानगर
हरियाणा
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