Lokgeet | चैती
चैती
( Chaiti Lokgeet )
काहे गए परदेश सजनवा, काहे गए परदेश।
प्रीत मोरी बिसरा के सजनवा,छोड़ गए निज देश।
फागुन बीता तुम बिन सजनवा,चैत चढा झकझोर।
भरी दोहपरी अल्लड उडे है, गेहूंआ काटे मलहोर।
पुरवा पछुआ कभी उडे तो, कभी उडे चकचोर।
सांझ ढलत ही चैती गाए तब, नैन बरसाए नीर।
कौन सौतीया ने बांधा, सुन ननदी के वीर।
लौट के आजा शेर सजनवा,अबकि नदियां तीर।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )