Aaj ki Geeta
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भाग- १

नोट –आधुनिक समस्याओं को लेकर लिखी गई पुस्तक जिसमें लेखक ने कल्पना की है कि यदि आज कृष्ण भगवान होते तो वह उनके समाधान देने का क्या प्रयास करते ? इसका मूल गीता से कोई संबंध नहीं है।

इस लेख में कुछ पुरातन सोच रखने वालों लोगों को आपत्ति हो सकती है कि ऐसा कैसे लिखा जा सकता है? लेकिन मेरी उनसे प्रार्थना है कि मेरा यह उद्देश्य नहीं है कि गीता के ज्ञान की शब्दसह व्याख्या करूं । वह तो संत जन कर ही रहे हैं।मैं भी उन्हीं के चरणों में बैठकर थोड़ा बहुत कृपा प्रसाद पाया है । मैं तो उनके सामने कुछ भी नहीं हूं । मेरी तो मात्र इतनी सी ही कल्पना है कि योगेश्वर कृष्ण आज होते तो क्या समाधान देते । इन प्रश्नों की भूमिका भी कृष्ण जन्माष्टमी की रात्रि में ही बनाई गई थी।
जिन परम प्रभु योगेश्वर कृष्ण की वाणी को शब्दों में ढालने का तुच्छ प्रयास किया है यह सब उन्हीं की कृपा का प्रसाद है। मैं आखिर कर ही क्या सकता हूं? कर्ताधर्ता तो वही है ।जैसी उनकी प्रेरणा हुई मुझे अपने हाथों का मोहरा बनाकर करा लिया।

अध्याय- १ आसक्ति योग

वर्तमान समय में देखा जाए तो अर्जुन की भांति प्रत्येक मनुष्य मोह माया में पड़कर अपने कर्तव्य पथ से अच्युत हो गया है । सच्चे अर्थों में वह समझते ही नहीं कि आखिर धर्म क्या है ?मात्र माला घूमाना ,मंदिरों में घंटियां बजाना, आरती उतारना है धर्म समझ लेने के कारण भारत हजारों वर्षों तक गुलाम बना रहा। आज आवश्यकता है ऐसे ही परम गुरु कृष्ण कि जो भटकी मानवता को मार्ग दिखा सके। शरीर के प्रति मोह माया के ही कारण मनुष्य इस नश्वर काया को सजाने संवारने में सारी उम्र खत्म कर देता है । कृष्णा ऐसे ही नश्वर काया के मोह को छोड़ आत्मा को समझने का उपदेश देते हुए कहते हैं —

भगवान श्री कृष्ण – हे पार्थ! आत्मा नित्य है ,उसे ना कोई मार सकता है ,ना जला सकता है ,वह अजर अमर है, मरता केवल शरीर है । इस शरीर से इतना मोह क्यों? इसे समझने का प्रयास करो !पार्थ!
अर्जुन —फिर मनुष्य अपने बंधु बांधवों के प्रति इतना मोह क्यों रखता है ? सारी जिंदगी उसी में बर्बाद करने के पश्चात आखिर में उसे किस सुख की प्राप्ति होती है।

भगवान श्री कृष्ण — हे पार्थ ! इस संसार में कोई अपना नहीं है। भाई बंधु माता-पिता सभी मोह एवं आसक्ति रूपी जाल में फंसे हुए हैं । इसलिए धर्म यही कहता है तुम मोह त्याग कर अपने कर्तव्य का पालन करो।

अर्जुन –हे वासुदेव मैं कुछ समझ नहीं। क्या मां को अपने पुत्र से प्रेम नहीं होता? क्या बच्चे अपने माता-पिता से प्रेम नहीं करते ?क्या यह सब छलावा है ?
भगवान श्री कृष्ण — तुम्हारा कहना भी ठीक है । क्योंकि संसार में हमें यही दिखाई पड़ता है कि लोग एक दूसरे को कितना प्रेम करते हैं । यह मोह है, आसक्ति है प्रेम के नाम पर दुनिया का छलावा है।

अर्जुन –तो आखिर प्रेम क्या है वासुदेव?
भगवान श्री कृष्ण — प्रेम मोह नहीं है पार्थ! प्रेम तो मुक्ति का द्वार है !प्रेम बांधता नहीं बल्कि मुक्ति करता है। जिस प्रेम में बंधन हो ,आसक्ति हो , वह प्रेम नहीं हो सकता। मां भी मोह बस बच्चे को गले लगाए रखती है । वह भी महान आसक्ति में डूबी हुई है सच्चा प्रेम तो कोई कोई ही माता कर पाती है पार्थ!

अर्जुन –क्या प्रेम भी सच्चा और झूठा होता है वासुदेव?
भगवान श्री कृष्ण — हां पार्थ! प्रेम प्रेम होता है , यह हृदय की वीणा से निकला ऐसी मधुर तान होते हैं जो जीवन को सुगंध से भर देता है । इसीलिए प्रेम को परमात्मा का शुद्ध शाश्वत रूप माना गया है । संसार में बस प्रेम का बाजार लगा हुआ है । परंतु वास्तविक प्रेम कहीं नहीं दिखाई पड़ता।

अर्जुन- हे वासुदेव !आप तो हमें उलझा दे रहे हैं । क्या सच में संसार में प्रेम कहीं नहीं है?
भगवान श्री कृष्ण — पार्थ मैं तुम्हें उलझा नहीं रहा हूं बल्कि यह समझाने का प्रयास कर रहा हूं की जिससे तुम्हारी संसार से आसक्ति टूटे और अपने कर्तव्य पथ पर अग्रसर हो सको। मोह त्यागो पार्थ !कर्तव्य की डगर तुम्हारा मार्ग देख रही है । मां बच्चे का प्रेम अटूट होता है । वह परमात्मा प्राप्ति का मार्ग बन सकता है यदि आसक्त रहित हो! आसक्त ही सांसारिक दुखों की जड़ है पार्थ!

अर्जुन – हे केशव! गोपियों के प्रेम को क्या कहेंगे? मोह या–
भगवान श्री कृष्ण ने कहा – तुम बहुत चतुर हो पार्थ ! गोपियां तो प्रेम स्वरूप है । जिन्हें संसार की एक धूल भी नहीं छू सकी है। जैसे नाव जल में रहते हुए भी उससे अलग रहती है वैसे गोपिया भी संसार से विरक्त विरहिणी हैं। जिन्होंने केवल दिन रात मुझ तक पहुंचाने की चिंता में अपने कंचन सी सुकोमल काया को जला डाला।

अर्जुन – हे केशव!आजकल प्रेम के नाम पर आत्महत्या बढ़ती जा रही है । प्रेम में ठोकर खाने पर प्रेमी को मात्र अपने जीवन समाप्त करना ही एकमात्र मार्ग दिखता है क्या यह सच्चे प्रेमी नहीं है?

भगवान श्री कृष्ण ने कहा — यह प्रेम नहीं है पार्थ! प्रेम कभी बांधता नहीं बल्कि मुक्त करता है। पेड़ में लगा पुष्प कितना सुंदर दिखता है । यदि उसे तोड़ लिया जाए तो मुरझा जाता है । प्रेम को पुष्प की तरह खिलना है ना कि तोड़ना है । आत्महत्या करना अपराध है । सच्चा प्रेमी कभी आत्महत्या नहीं करेगा बल्कि अपने प्रेमी को सुखी बनाने के लिए जीवन उत्सर्ग कर देगा । प्रेमी के सुख में अपना सुख समझेगा । आत्महत्या करने वाला घोर नरकगामी होता है । उसकी आत्मा कभी मुक्त नहीं हो सकती ।

हे पार्थ! क्या तुम्हें यह नहीं मालूम कि संसार में जितने भी महान साहित्य, संगीत, कला आदि रचे गए सभी असफल प्रेमियों द्वारा ही उनमें सौंदर्य भरा गया है। प्रेम में असफलता को उन्होंने सकारात्मक लिया । अपने दुखों को तूलिका के माध्यम से नया आयाम दिया । इसलिए असफल प्रेमियों को मैं पैगाम देता हूं कि वह आत्महत्या का विचार त्याग दे। और अपने प्रेमी की याद में कुछ ऐसा कर गुजरे जो युगों युगों तक यादगार बनी रहे ।
यह तो घर है प्रेम का ,
खाला का घर नाही ।
शीश उतारे भू धरे ,
तब प्रविस घर माहि।

शेष अगले अंक में

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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