सांस्कृतिक चेतना के उद्घारक : आचार्य रामचंद्र शुक्ल

एक ऐसा अजेय लेखक जिसके नाम से एक युग की शुरुआत होती है वे थे आचार्य रामचंद्र शुक्ल । वे हिंदी साहित्य के ऐसे स्तंभ पुरुष थे कि जिसको लांघकर निकल जाना किसी के बस की बात नहीं थी। उनके द्वारा लिखित हिंदी साहित्य का इतिहास आज तक भी कोई दूसरा नहीं लिख सका है । वह एक साथ हिंदी आलोचक , कहानीकार ,निबंधकार, साहित्यकार , कोशकार ,अनुवादक, कथाकार और कवि थे।

उनका जन्म 4 अक्टूबर, 1884 ई को बस्ती जिले के अगोना गांव में हुआ था । 1898 में आपने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की व 1901 में मिर्जापुर से एंट्रेंस की ।आपकी एम ए व मुख्तारी की पढ़ाई पूरी ना हो सकी।

शुक्ल जी ने अपनी पहली नौकरी 1904 में मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर के रूप में प्रारंभ किया । उन्होंने आनंद बनी नामक पत्रिका का संपादन भी किया। 1908 में नागरी प्रचारिणी सभा के हिंदी कोर्स के निर्माण के लिए सहायक संपादक के रूप में काशी चले गए।

इसके पश्चात 1919 में आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे । वह 1937 में हिंदी विभाग के विभाग अध्यक्ष भी बन गए।

शुक्ल जी ने लेखन की शुरुआत कविता से की थी। नाटक लेखन की ओर भी उनकी रुचि रही ।परंतु उनकी प्रखर बुद्धि ने इन्हें निबंध लेखन एवं आलोचक बना दिया । यही कारण है कि आज भी वह निबंध लेखन और आलोचना के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान पर विराजमान है।

प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ रामविलास शर्मा कहते हैं कि-” आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी प्रदेश की पद दलित और अपमानित जनता के सम्मान रक्षक थे । उन्होंने हिंदी के अलावा संस्कृत, अंग्रेजी , बंगला आदि साहित्य का गंभीर अध्ययन किया और अपने मौलिक चिंतन से हिंदी आलोचना में युगांतर पैदा कर दिया । इस काल में उनके मनोबल को दृढ़ करने वाली प्रेरणा उनकी जातीय सम्मान की भावना थी । इसमें संदेह नहीं।”

उस समय तंत्र मंत्र एवं अलौकिक शक्तियों के जाल में उलझा कर लोग जनता को मूर्ख बना रहे थे । उनका मानना था कि ऐसे तंत्र मंत्र करने वाले शुभ कर्मों के मार्ग से तथा भगवत भक्ति की स्वाभाविक हृदय पद्धति से हटाकर अनेक प्रकार तंत्र मंत्र तथा उपचारों में जा उलझे।

शुक्ल जी को बांग्ला भाषा का अच्छी प्रकार से ज्ञान था । इसका प्रमाण उनके द्वारा अनूदित राखाल दास बंदोपाध्याय का उपन्यास ‘शशांक’ है । जिसमें अपने ऐतिहासिक ज्ञान के आधार पर अंतिम अध्याय में कुछ परिवर्तन भी किया था।

शुक्ल जी की पत्नी सावित्री देवी भी अच्छी बांग्ला जानती थी ।उनके नाम से ‘शैल बाला’ और कलंक दो उपन्यास प्राप्त होते हैं। शुक्ल जी ने शैलबाला की भूमिका भी लिखी थी।
उनकी प्रमुख रचनाएं रसमीमांसा, चिंतामणि , विचार वीथी, मित्रता थे ।

निबंध संग्रह है -पंचपात्र, पद भवन ,तीर्थ रेणु ,प्रबंध पारिजात, कुछ बिखरें पन्ने, मकरंद बिंदु, पात्री ,तुम्हारे लिए, तीर्थ सलिल आदि हैं।
मुख्य काव्य संग्रह -शत दल अश्रु दल है ।
कहानी संग्रह– झलमला और अंजलि है।
आलोचना– हिंदी साहित्य विमर्श , विश्व साहित्य, हिंदी उपन्यास साहित्य, हिंदी कहानी, साहित्य शिक्षा आदि है।

उन्होंने सरस्वती तथा छाया पत्रिका का संपादन भी किया था ‌। शुक्ल जी हृदय से कवि मस्तिष्क से आलोचक और जीवन से अध्यापक थे । कहा जाता है कि लेखक भी योगी होता है। अधिकांश श्रेष्ठ साहित्यकार भले प्रत्यक्ष योग साधना ना करते रहे हैं परंतु वे उच्च कोटि के योग साधक अवश्यक रहे हैं। बिना हृदय की गहराई में उतरे श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो ही नहीं सकती है।

उनकी मृत्यु 2 फरवरी, 1914 ई को हो गए थी । उन्होंने अपना जीवन साहित्य की साधना में लगा दिया था। वे साहित्य लेखन को उपासना मानते थे । ऐसे कालजयी साहित्यकार की मृत्यु से जो खालीपन आया है उसको भर पाना बहुत मुश्किल है।

साभार – ‘देश के कर्णधार ‘ भाग २ पृष्ठ ८२-८३

 

लेखक : योगगुरु धर्मचंद्र

प्रज्ञा योग साधना शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान
सहसो बाई पास ( डाक घर के सामने) प्रयागराज

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