Baba Gadge Maharaj
Baba Gadge Maharaj

वे तब तक प्रगति नहीं कर सकते जब तक वह उचित शिक्षा, आत्मनिर्भरता और उचित स्वच्छता को नहीं अपनाते । ऐसा कहने वाले बाबा गाडगे का जन्म में 23 फरवरी 1876 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के रोज गांव में हुआ था। उनके बचपन का नाम देबू जी ढींगरा जी जानोरकर था।

उन्होंने स्कूली शिक्षा नहीं पाई थी । परंतु व्यावहारिक समझ उनमें भरपूर थी । उन्होंने समाज में देखा कि अंधविश्वासों , वाह्य आडंबरों , रूढ़ियों तथा सामाजिक कुरीतियों एवं दुर्व्यसनो से समाज को कितनी हानि हो सकती है। इसका उन्हें भली भाती अनुभव हुआ। यही कारण है कि इसका उन्होंने घोर विरोध किया।

उनका विश्वास था कि ईश्वर ना तो तीर्थ स्थान में है और ना मंदिरों में और ना मूर्तियों में दरिद्र नारायण के रूप में ईश्वर मानव समाज में विद्यमान है । मनुष्य को चाहिए कि वह ऐसे जीवंत भगवान को पहचान कर उनकी तन मन धन से सेवा करें। भूखों को भोजन , प्यासे को पानी, नंगे को वस्त्र , अनपढ़ को शिक्षा, बेकार को काम ,निरास को ढांढस और मूक जीवो को अभय प्रदान करना ही भगवान की सच्ची सेवा है।

संत गाडगे महाराज भगवान बुद्ध की भांति करुणा शील व्यक्ति थे। बचपन में जब वे गांव में निरीह पशुओं की बलि करते देखा तो उनका खुलकर विरोध किया।

कहां जाता है कि एक बार 14 जुलाई 1951 को बाबा की तबीयत खराब हो गई। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को जब पता चला तो उनसे मिलने चले । उस समय 1951 में अंबेडकर कानून मंत्री थे । वह शाम को ट्रेन से दिल्ली निकलना चाहते थे ।उन्होंने टिकट को रद्द कर सीधे दो कंबल खरीद कर अस्पताल पहुंच गए। संत गाडगे जी किसी से कुछ नहीं लेते थे परंतु उन्होंने अंबेडकर के कंबल ले लिए।

बाबा गाडगे ने कहा – “डॉक्टर साहब ! आप क्यों आए मैं तो एक फकीर हूं । आपका प्रत्येक मिनट महत्वपूर्ण है । आपके पास कितना बड़ा अधिकार है।

तब डॉक्टर अंबेडकर ने कहा-” बाबा मेरा अधिकार दो दिनों के लिए है कल कुर्सी कब चली जाएगी मुझे कोई नहीं पूछेगा। आपका अधिकार महान है।”

डॉ आंबेडकर के जीवन के मुख्य प्रेरणा स्रोतों में बाबा का नाम सर्वोपरि था । उनका वे सदैव सम्मान करते थे।

बाबा संत तुकाराम जी को अपना गुरु मानते थे । वह हमेशा कहते थे- ” मैं किसी का गुरु नहीं! मेरा कोई शिष्य नहीं! बाबा ने अपना संपूर्ण जीवन समाज में व्याप्त अज्ञानता , अंधविश्वास, अवांछित रीति-रिवाज और परंपराओं को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। वे अपने प्रवचनों में कहते थे – ” चोरी मत करो, साहूकारों से कर्ज मत लो, व्यसनों में लिप्त मत हो, भगवान और धर्म के नाम पर जानवरों को मत मारो ,जातिगत भेदभाव और छुआछूत का भेदभाव मत करो।

ऐसे दिव्या संत का देहावसान 20 दिसंबर 1956 को हो गया। उसे समय के प्रसिद्ध संत तुकडोजी महाराज ने श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अपनी पुस्तक में उन्हें मानवता के मूर्तिमान आदर्श के रूप में व्यक्त कर उनकी वंदना की है।

कहां जाता है कि विदेशियों ने कपड़े धोने की मशीन बनाएं और भारत में धोबी जाति । बाबा का जन्म इस धोबी जाति में हुआ था जिन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वास आदि को जीवन भर धोया।

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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