आबिद रिज़वी जीवनी
आबिद रिज़वी जीवनी

आबिद रिज़वी जीवनी

 

सच्चा और अच्छा लेखन वही होता है जो आजीवन शिष्य की भांति जिज्ञासु बना रहता है जहां व्यक्ति के लगने लगे कि वह सब कुछ जानता है उसकी उन्नति वहीं से खत्म हो जाती है।

कहते हैं साहित्यकार संत होता है जो कि अपनी लेखनी के माध्यम से समाज को रोशनी प्रदान करता है । साहित्यकार साधक होता है जो कि अपनी सतत साहित्यिक साधन के माध्यम से परमात्मा के सौंदर्य का गुणगान किया करता है।

साहित्यकार दार्शनिक होता है जो समाज को दृष्टि प्रदान करता है। साहित्यकार समाज सुधारक होता है जिसकी लेखनी समाज में नई क्रांति की सृष्टि प्रदान करती है। साहित्यकार योगी तपस्वी ध्यानी होता है जो कि अपनी साहित्यिक योग साधना की तपस्या के माध्यम से उसे परमात्मा का साक्षात्कार करता है जो की एक योगी तपस्वी करने के प्रयास में लगा रहता है।

ऐसे ही महान लेखक, योगी, तपस्वी, समाज सुधारक है आबिद रिजवी। देखा जाए तो आबिद रिजवी सभी अर्थों में खरे उतरते हैं क्योंकि लगातार पिछले 40 वर्षों की गहन साधना से उन्होंने वह सभी कुछ पा लिया है जो की एक योगी तपस्वी समाज सुधारक दार्शनिक पाना चाहते हैं।

इसके साथ ही वह एक श्रेष्ठ गृहस्थी योगी भी हैं उनका परिवार के प्रति समर्पण समाज के लिए दिशा प्रदान करता है। उनका जन्म 6 फरवरी 1942 को प्रयागराज के कर्नलगंज कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम जब्बार हुसैन एवं मां का नाम एजाज बानो था। उनके माता-पिता बहुत नेक दिल इंसान थे।

जन्म के समय बालक की आंखें इतनी नशीली थी कि एक बार नजर पड़ जाए तो हटने का नाम नहीं ले। बालक ऐसे एक टक देखता रहता था जैसे दिल में समाना चाहता हो , ईद के चांद की तरह बालक बढ़ने लगा।

अपने बचपन को याद करते हुए आबिद रिजवी कहते हैं मेरे लिए मेरी पहली शिक्षिका मां थी। मां के संस्कार बच्चों को आजीवन प्रभावित करता है। एक आदर्श मां सौ टन धर्म गुरुओं से भी महान होती है। बच्चा वही बनता है जो मां उसे बनाती है। इसीलिए नेपोलियन बोनापार्ट कहता है कि तुम मुझे एक आदर्श मां दो मैं तुम्हें नए राष्ट्र दूंगा।

बचपन में मां को कभी किसी के साथ लड़ते झगड़ते नहीं देखा। खुदा की इबादत पांचो वक्त नमाज अता करती । वह मुझ पर कभी दबाव नहीं डालते थी कि मैं भी नमाज पढ़ूं। मेरे अब्बा जान भी बहुत जिंदादिल इंसान थे।

गरीबों असहायों की सहायता करना उनके स्वभाव का हिस्सा था । वह मस्त मौला फकीर की तरह थे । कभी-कभी वह अपने तन के वस्त्र भी दे देते थे। अम्मी को जब मालूम होता तो समझाती परंतु अगले दिन फिर वही फकीरी धारण कर लेते थे।

लगता है वही फकीरी आबिद रिजवी के जीवन में भी आ गई थी । बाल्यावस्था से ही वे मस्त मौला थें ।जो भी मिला खा लिया जहां जगह मिली सो गए कभी ज्यादा सोच विचार नहीं किया।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा मोहल्ले के मदरसे से शुरू हुई। एक हाफिज जी पढ़ाने आते थे ।बच्चों की संख्या 30- 40 थी। इस प्रकार की रटन्तु विद्या उन्हें रास नहीं आ रहे थे। उन्हें लगता था कि इस प्रकार से पढ़ लिखकर क्या होगा ? वह जिंदगी की किताब पढ़ना चाहते थे।

जिंदगी का एक-एक क्षण क्या हमें कुछ नहीं सिखा सकता? प्रकृति सबसे बड़ी पुस्तक है । जो व्यक्ति यदि सीखना चाहे तो प्रकृति की पाठशाला में इतना कुछ सीख सकता है जितना वह स्कूलों में भी नहीं सीख सकता।

आबिद रिजवी मानते हैं कि जो मौज मस्ती मैंने मदरसे की पढ़ाई के समय किया वह आनंद कभी नहीं आया । कुरान पाक का ज्ञान हमारे जीवन को पवित्र बनाता है । हालांकि मैंने वेद , उपनिषद , बाईबल, गुरु ग्रंथ साहिब आदि को भी पढ़ने समझने का मौका मिला।

क्योंकि मुझे लिखना पड़ता था । मैंने सभी धर्म के पवित्र ग्रंथों के अध्ययन के पश्चात देखा कि सभी सत्य मार्ग पर चलने, गरीब असहायों के प्रति दयालु बनने, जीवन को पवित्र पाक साफ रखने ,जिस खुदा ने जीवन दिए हैं उसे कुछ छड़ो तक याद करने की सलाह देते हैं । कोई यह नहीं सिखाता की झूठ बोलों , चोरी करो , दूसरों को सताकर उसका छीन ले।

अब तो मजहब भी कोई ऐसा चलाया जाए,
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए।

उनकी उच्च शिक्षा कर्नलगंज इंटर कॉलेज प्रयागराज से हुई। यहीं से उन्होंने इंटरमीडिएट किया।
इसी बीच वह कुछ-कुछ लिखने लगे थे। प्रयागराज के दारागंज मुहल्ले में ही छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी भी रहते थे।

निराला का फक्कड़पन युवा आबिद के दिल को मोह लिया था। आबिद जी ने कुछ कविताएं लघु कथाएं आदि लिखी थी । उनकी इच्छा थी कि निराला जी को इन रचनाओं को सुनाएं। परंतु इसका मौका उन्हें नहीं मिल पाया।

आबिद जी कहते हैं कि मैं संकोच बस भी उन्हें नहीं सुनाना चाहा । निराला जी का शरीर इतना आकर्षण था के देखने वाला देखते ही रह जाता, बड़ी-बड़ी दाढ़ी मूछ घुंघराले लंबे बाल, कुर्ते पजामे के ऊपर दूसाला ओढ़े ऐसे लगते थे जैसे कोई देव दूत।

आबिद रिजवी जी ने अपने जीवन में बहुत खूब लिखा । इतना लिखा कि उन्हें खुद भी पता नहीं है कितना लिखा। साहित्य की कोई ऐसी विधा नहीं है जिस पर उन्होंने कलम न चलाई हो। उत्तर प्रदेश का कोई भी बस अड्डा रेलवे स्टेशन ऐसा नहीं मिलेगा जहां पर उनके द्वारा लिखित साहित्य ना उपलब्ध हो।

उनके द्वारा लिखा गया विशाल लुगदी साहित्य आम जनमानस के पहुंच के अंदर था। यह इतना सस्ता है कि एक गरीब से गरीब व्यक्ति भी सहज में खरीद सकता है। उनके द्वारा लिखे साहित्य को मैंने दिल्ली के बाजारों में तौल के भाव बिकते देखा है।

एक प्रकार से वे जमीन से जुड़े हुए साहित्यकार हैं। उनके व्यक्तित्व को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि कोई एक अकेला व्यक्ति इतना महान साहित्य लिख सकता है।

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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