बरगद | Bargad laghu katha
बरगद
( Bargad )
डॉ अलका अरोडा जी की मानवीय मूल्यों को जीवन्त करती लघुकथा
सुबह सुबह प्रेम की एसी झडी
मैं पतिदेव से पूछ ही बैठी –
प्रेम की यह छुअन स्वाभाविक नहीं जी !!
स्त्री का मन प्रेम के बनावटीपन को पहचानने की शक्ति रखता है ।
बताओ क्या बात है क्यूं सुबह सुबह रोमान्टिक हो रहे हो
वो बोले आज माँ आ रही हैं सोचा तुम्हारा मूड ठीक रखूं
ये तो गलत बात हुई ना
माँ तो घर की मुखिया हैं उनके स्नेहासिक्त आशीष में मेरे दोनो बच्चे खुश है । आप प्रसन्न हैं । पास पडोस खिल उठता है । रिश्तेदारों का तांता लगता है । घर का कौना कौना महकने लगता है । यहां तक की हमारा प्यारा कुत्ता भी माँ का सानिध्य पा कर भावविभोर हुआ रहता है
बड़ो का सम्मान ही हमारे संस्कार है ।फिर हमें अपनी बेटी को भी तो बडो के प्रति कर्त्तव्यों की शिक्षा देना आवश्यक है । ये भी ससुराल में वही करेगी जो मायके में देखेगी ।मेरी माँ अक्सर कहा करती थी कि घर के बडो का दिल दुखाना जधन्य पाप है । मुझे आज तक समझ नहीं आया कि वृद्धाश्रम में रहने वाले वृद्धजनों के परिवार में रहने वाले सदस्य मानवता को कैसे भूल जाते हैं ।
वो मेरी भी माँ है –
उन्हीं का घर है यह ,वो बरगद का वृक्ष हैं और हम सब उस वृक्ष की टहनियाँ
इतना कहकर मेरे दिमाग में माँ की पसंद की मेथी आलू की सब्जी नें अपना स्वाद समेटना प्रारम्भ किया भी ना था कि – पतिदेव ने पुनः मेरा हाथ जोर से पकड़ा और अपनी बाँहो के घेरे में मुझे जकड़ लिया –
तुम सच में मेरे जीवन की अमर बेल हो अनु
अब मैं उस प्रेमासिक्त आलिंगन के घेरे से बाहर नहीं आना चाहती थी क्यूंकि प्रेम का अहसास स्वाभाविक होकर मेरे मन को छू रहा था और शायद उनके ह्दय को भी स्पर्श कर चुका था
डॉ. अलका अरोड़ा
“लेखिका एवं थिएटर आर्टिस्ट”
प्रोफेसर – बी एफ आई टी देहरादून