Kahani Kaise Kaise Yogi
Kahani Kaise Kaise Yogi

चारों तरफ भीड़ ही भीड़ थी। सबके मुंह से एक ही बात निकल रही थी कि चमत्कार हो गया ।ऐसा चमत्कार तो मैंने देखा ही नहीं था। अरे देखो! बाबा ने कैसे पेशाब से दिए जला दिए। बहुत बड़ा पहुंचा हुआ संत है। इतना बड़ा संत तो हमने कभी नहीं देखा ही नहीं है। कितना त्याग तपस्या किया होगा।

जनता एक दूसरे से खाना फूसी कर रही थीं। भारत चमत्कारों का देश है । यहां चमत्कार को नमस्कार किया जाता है। यहां थोड़ा कोई चमत्कार दिखाया नहीं कि जनता भेड़ियों की तरह टूट पड़ती है ।क्या सत्य है ? क्या असत्य है? इससे जनता को कोई मतलब नहीं होता।

कहते हैं मथुरा क्षेत्र में एक ऐसा ही योगी था जो पेशाब से दिए जलाता था। उनके शिष्यों का कहना था कि योगी जी दिन भर में केवल एक बार पेशाब करते हैं। और जब करते हैं तब वह घी निकलता है । उनके पेशाब करने का समय को 5:00 बजे था ।उसे समय सैकड़ो दर्शक इस आश्चर्य को अपनी आंखों से देखने के लिए एकत्रित होते थे।

सुभाष एक खोजी युवक है। वह समाज से इस प्रकार के पाखंड एवं अंधविश्वासों से पर्दा उठाना चाहता है। इसलिए जब उसने सुना कि कोई पेशाब से दिया जलाने वाला बाबा पैदा हो गया है तो वह उन्हें खोजते खोजते देखने पहुंच गया।
जब वहां पहुंचा तो योगीराज जी के पेशाब करने की बेला आ चुकी थी।

जब वे अपने कमरे से निकले तो कीर्तन भजन शुरू हो गया। पेशाब करने की तैयारी होने लगी । जनता जिस तरफ मुंह करके बैठी हुई थी ।उधर को योगी जी ने पीठ कर लिया । दशकों में से जिसे आज्ञा प्राप्त हो चुकी थी ।

वह एक चांदी का कटोरा हाथ में लेकर महात्मा जी के सामने पहुंचा और कटोरे को आगे कर दिया । योगी जी उस कटोरे में पेशाब करने लगे। जब कर चुके तो वह कटोरा दर्शकों के सामने लाया गया। देखने में वह पिघले हुए शुद्ध घी की तरह था। उस समय जाड़े का समय था। थोड़ी देर में ठंडी हवा लगते ही घी जमने लगा।

सुभाष को भी यह समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर यह चमत्कार कैसे हो गया? वह उसकी तह तक जाना चाहता था? इसलिए वह चुप रहा और आगे देखना चाह रहा था कि क्या होता है?

अब उसने देखा कि योगीराज के सिंहासन के पास जो 10 बड़े-बड़े पीतल के दीपक सजाएं हुए रखे थे। उनमें वह घी डाला गया और बत्तियां डालकर दीपक को जला दिए गए। यह सब देखकर लोग जय जयकार कर उठे।

जनता को ऐसा लगा जैसे भगवान धरती पर उतर आया हो।इतना बड़ा सिद्ध महात्मा बाप रे बाप पेशाब से दिया जला दिया। धन्य धन्य बाबा जी हमारे तो भाग्य खुल गए। आपके जो दर्शन मिले ।हमारा जीवन धन्य हो गया जनता के बीच से जय कारें होने लगे।

बाबा जी की जय, बाबा जी की जय की हुंकार ध्वनि के साथ पूरा पंडाल तालिया से गूंज उठा।
वहां पर उपस्थित दर्शकों को पूर्ण रूप से विश्वास हो गया कि योगीराज पहुंचे हुए संत हैं ।उनकी आत्मा दिव्य है। शरीर दिव्य है।मल मूत्र तक दिव्य है । ऐसे संतो के दर्शन पाकर मेरे जन्मों जन्मों के पाप धुल जाएंगे।

सुभाष के मन में एक कुतूहल बना हुआ था कि ऐसा कैसे संभव है। हमें इसकी सत्यता की जांच करनी ही होगी।
उसका मन संशय ग्रस्त था कि कटोरा में या तो कोई पर्दा होगा या पेशाब को किसी प्रकार उलट कर घी डाल दिया जाता होगा । परंतु जब आंखों से देखा तो जाना कि यहां कोई ऐसी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि योगीराज जी नंगे बदन रहते थे ।

कमर में एक छोटा सा कपड़े का टुकड़ा था। भरी सभा में पीछे मुड़कर उन्होंने पेशाब किया था । चांदी का कटोरा सैकड़ो हाथों में होकर गुजरा था ।कहीं किसी प्रकार से कोई रहस्य मालूम ना उसे पड़ रहा था ।

यह सचमुच में आश्चर्यजनक बात थी कि मनुष्य का मूत्र विशुद्ध घृत जैसा हो। यह वास्तव में बड़े अचंभे की चीज थी। उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि आखिर यह कैसे संभव हो गया? कोई व्यक्ति का मूत्र घी कैसे हो सकता है?

उसका मन उधेड़ बुन में फंसा हुआ था। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि किस प्रकार से इस रहस्य से पर्दा उठाया जाएं।
सुभाष इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था इसलिए वहां वह रुकने का प्लान बनाया। वह महात्मा जी से आत्मीयता जोड़ने लगा। उसने महात्मा जी से यह सिद्ध कर दिया कि उसकी रुचि भी योग मार्ग में बहुत ज्यादा है। वह भी योगाभ्यास करना चाहता है। महात्मा जी ने उसकी रुचियां को देखते हुए उसे रहने की इजाजत दे दी।

उसको कमरा महात्मा जी के ही बगल मिल गया। जिससे वह अपने उद्देश्य में सफल होता दिखा। वह उसमें आराम से रहने लगा।

उसका मुख्य उद्देश्य तो इस रहस्य से पर्दा उठाना था। लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि किस प्रकार से इस रहस्य से पर्दा उठाया जाए। क्योंकि मूतेंद्रिय से घी निकलते हुए उसने स्वयं अपनी आंखों से देखा था। फिर किस प्रकार से अविश्वास किया जा सकता है। एक बार तो उसने स्वयं कटोरी महात्मा जी को दिया था तो घी निकलते हुए स्वयं देखा। इसलिए शक की कोई गुंजाइश नहीं बच रही थी।

फिर भी उसके मन में आशंका बनी हुई थी कि जरूर महात्मा जी के कमरे में ही कोई खेल खेला जाता होगा । इसलिए उसने महात्मा जी के कमरे की निगरानी करने का मन बनाया । लेकिन कोई कोई ऐसा छिद्र नहीं था जहां से महात्मा जी के कमरे को देखा जा सके।

महात्मा जी के कमरे के बाहर हर समय द्वारपाल रहता था। जिससे कोई भी व्यक्ति अंदर नहीं जा सकता था । जब तक महात्मा जी की न आज्ञा हो।

आखिर में उसने कमरे के अंदर का एक छिद्र खोज लिया जहां से कमरे का अधिकार हिस्सा दिखाई दे रहा था। फिर क्या था? महात्मा जी के पेशाब करने के 1 घंटा पूर्व ही वह छिद्र से अंदर की क्रिया को देखने लगा।

उसने देखा कि जब 5:00 बजने में 15 मिनट बाकी रहा तो उन्होंने बोतल में रखी हुई एक पतली चीज निकाली । उसे कटोरी में उड़ेला और मुतेंद्री को उसमें डुबो दिया। उन्होंने चार-पांच लंबे-लंबे श्वास खींचा और कटोरी खाली हो गई ।

कटोरी को एक ओर रखकर उन्होंने मुतेन्द्रीय को कुछ ऐठ कर गांठ सी बनाई और ऊपर से लंगोट कसकर बांध लिया । इस क्रिया को करने के बाद वे दर्शकों के समक्ष चले गए । वह भी चुपचाप छत पर से उतरकर इस भक्त मंडली में एक ओर जा बैठा। उसे घृत से दिया जलाने की दिव्य शक्ति का सारा रहस्य समझ में आ गया था।

जिन्हें योग मार्ग का थोड़ा भी ज्ञान है उन्हें जानना चाहिए कि यह एक प्रकार की वज्रोली क्रिया कहलाती है। जिसमें मूत्र मार्ग से जल ऊपर खींचना और फिर उसे बाहर निकाल देना होता है। यह कुछ भी कठिन नहीं है। हठयोग के अनेकों साधक इस प्रकार की साधना किया करते हैं ।

थोड़े ही दिनों के प्रयास के अभ्यास से इस क्रिया में महारत हासिल किया जा सकता है। इसी क्रिया का अभ्यास इन योगी जी ने कर रखा था । उनमें बस अंतर इतना था कि वह पानी की जगह घृत को मौतेंद्री से खींचते थे।

फिर इंद्रियों को ऐठ कर गांठ सी बना लेते थे। और ऊपर से लंगोट कसने का प्रयोजन इसलिए किया था कि चढ़ाया हुआ घी फैलने ना पाए। पेशाब से निवृत होकर घी चढ़ाया जाता है। जिससे कहीं घी और पेशाब मिल ना जाए।

सुभाष को इस बाबा की नौटंकी का सारा रहस्य पता हो चुका था। वह समझ चुका था कि बाबा किस प्रकार से एक हठयोगी की क्रिया को सिद्ध करके जनता को मूर्ख बना रहा है।

वह बाबा की इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहता था। इसलिए एक दिन चुपके से उनके कमरे में जाकर घी भरी बोतल को अलमारी से उठा लाया और आलमारी को उसी तरह बंद कर दिया ।

दूसरे दिन नियत समय पर जब बाबा के आने की तैयारी हो रही थी तो अचानक संदेश आया कि योगी जी समाधि मग्न हो गए हैं वह आज दर्शन देने नहीं आएंगे। सुभाष सब समझ गया कि यह समाधि और कुछ नहीं घी की बोतल ठीक समय पर न मिलने और उसकी दूसरी व्यवस्था तुरंत ना हो सकने की समाधि है।

तो साथियों हमने देखा कि समाज में धर्म के नाम पर किस प्रकार के पाखंड फैले हुए हैं। हमें इस प्रकार के अंधविश्वास एवं पाखंडों से स्वयं को दूर रहते हुए समाज में जन जागृति लाने का प्रयास करना चाहिए।

आचार्य श्रीराम शर्मा कहते हैं कि मायावी लोगों ने किसी भी क्षेत्र को अछूता नहीं छोड़ा है ।उन्हें जहां कहीं भी थोड़ी सी आड़ मिल जाती है छिप कर जा बैठते हैं । अनेकों ठग, उठाईगीर ,डाकू, चोर ,दुराचारी, व्यासनी , नशेबाज एवं हरामखोर मनुष्य कानूनी पकड़ तथा जनता की आंखों से बचने के लिए पवित्र साधु वेश में जा सकते हैं और इस आड़ में बैठे-बैठे मौज करते रहते हैं ।

खुराफाती दिमाग में विशेषता होती है कि वह चुप नहीं बैठ सकते। गुलछर्रे उड़ाने के लिए उनका दिमाग कोई ना कोई तरकीब खोज निकालता है। संत वेष की आड़ में छिप बैठने से ही उन्हें संतोष नहीं होता । वह आगे धावा बोलते हैं और जनता के भंडार से यश तथा धन की लूट मचा देते हैं।”

आगे भी कहते हैं-” ऐसे लोग अपना प्रधान हथियार चमत्कारों को बनाते हैं। योग शास्त्रों में ऐसे वर्णन आते हैं कि योगियो को रिद्धि सिद्धि प्राप्त होती है और अलौकिक चमत्कारी कर्तब दिखा सकते हैं । यह युक्ति न केवल पुस्तकों में वर्णित है। अपितु जनसाधारण में इसका विश्वास भी बहुत गहरा जमा हुआ है ।

इस स्थिति से लाभ उठाकर धन और यश लूटने के लिए धूर्त लोग अपने आप को पहुंचा हुआ सिद्ध साबित करने का प्रयत्न करते हैं। क्योंकि उनमें तप तो होता नहीं। त्याग, वैराग्य, साधना और तपश्चार्य के बिना सच्ची सिद्धी प्राप्त नहीं हो सकतीं हैं।”

इस प्रकार के बहुत से चमत्कारों का वर्णन उन्होंने अपनी ‘योग के नाम पर मायाचार’ नामक पुस्तक में किया है।
जनता को चाहिए कि इस प्रकार के पाखंड एवं अंधविश्वासों से बचे। दुनिया में चमत्कार नाम की कोई चीज नहीं होती है । यह संसार कार्य एवं कारण के सिद्धांत पर टिका हुआ है। हर कार्य के पीछे कोई ना कोई कारण छिपा होता है ।

जब हम उस कारण को नहीं समझ पाते हैं तो वह चमत्कार कहलाता है । जिसका लाभ समाज के धूर्त मक्कार लोग जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए करते हैं। हमें स्वयं ऐसे धूर्तता से बचते हुए समाज को बचाने का प्रयास करना चाहिए।

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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