यह स्वतंत्र भारत का अमृत-काल है। भारत को 1947 में मिली आजादी का द्विवर्षीय (2022-2023 ) अमृत महोत्सव काल, हम सभी भारत वासियों के लिए बहुत हर्ष और गर्व का विषय है।

हिमालयं समारभ्य यावत् इंदु सरेावरम् ।
तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते ॥
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥

” भा + रत ” दो शब्दों से मिलकर बना है-
‘भा’ यानी प्रकाश और ‘रत’ यानी निरंतर लगा हुआ,
निरंतर प्रकाश की खोज में लगा हुआ देश है हमारा भारत। यह नाम ही ज्ञान की प्रखर ज्योति से आप्लावित करता है।
“गायन्ति देवाः किल गीतकानि धान्यास्तु ते भारतभूमिभागे ।
स्वर्गापवर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥”

इस महान देश भारत को न तो एक संपादकीय में और न ही रचनाकारों की रचनाओं में समेटा जा सकता है किन्तु समग्र मन पर अंकित कुछ भावों में अवश्य प्रकट किया जा सकता है, अस्तु …
आजादी के 75 वर्ष यानी विकसित होते भारत की अमृत यात्रा- राजनीतिक/ आर्थिक/ सामाजिक/ आध्यात्मिक परिदृश्य में।

असंख्य जाने -अनजाने वीर, क्रांतिकारी, देशभक्तों ने अपने लहू से भारत- माता के मस्तक पर तिलक सजाया। प्रत्यक्ष -परोक्ष, नेपथ्य से नारी शक्ति भी बहादुरी से निरंतर साथ देती रही। क्रांतिकारी वीरांगनाओं ने इतिहास रचा। आजादी का सूर्य चमका ।

कठोर पुरुषार्थ, तप, त्याग संघर्ष, अटूट देश प्रेम ,बलिदान, आत्मोत्सर्ग का महायज्ञ है आजादी। क्रूरता, अन्याय, अत्याचार, अनाचार, शोषण अंधकार रूपी भारत माता की बेड़ियांँ कटी और स्वाधीनता का प्रकाश फैला। स्वतंत्रता की साँस सबसे बड़ी नेमत है।

हम सब अपने अमर शहीदों, देश प्रेमियों, क्रांतिकारियों, बलिदानियों के कर्जदार हैं जो खुली हवा में सांँस ले पा रहे हैं। आजादी का अमृत उत्सव मना रहे हैं। विगत दशकों में भारत भूमि में जन्मे तमाम महान विभूतियों ने समय-समय पर धर्म ,भाषा , कला, साहित्य,संस्कृति का उन्नायक बन भारत का भाल विश्व पटल पर उज्जवल और उन्नत किया है।

आजादी के ये 75 वर्ष, जिस भूमि /बुनियाद पर खड़े हैं! जिस तरह खड़े हुए हैं! जिस तरह की कथाएंँ कह रहे हैं! जितने सोपान आगे बढ़े हैं और भविष्य की ओर जो लक्षित कर रहे हैं- इस पर सभी मनीषियों/ बुद्धिजीवियों की प्रखर दृष्टि और चिंतन की छाप है, क्योंकि यह संचेतन भारतवर्ष है । इसका सिर्फ नाम लेने से ही मानव मस्तिष्क में प्रखर आभा, ज्ञान का उज्जवल प्रकाश झिलमिलाने लगता है।
यह सनातन ज्ञान दिग्- दिगंत को रोशन कर रहा है। भौतिकवाद नहीं, आत्म जागरण, आत्म-संचेतना से अनुप्राणित और स्पंदित है मानचित्र ! यह मात्र भूखंड नहीं, ज्ञान, अध्यात्म,प्रेम से विश्व को ज्योतिर्मय करता, नख- शिख सौभाग्यसे अलंकृत अखंड सितारा है एक अनंत आकाश का!

भारत ब्रह्मांड के आभाकाश में बहुगुणित सौंदर्य वृद्धि करते हुए सदा से उपस्थित है। अनेक प्रखर, दिव्य, मर्मज्ञ मनीषियों, के अनुपम ज्ञान से दिग -दिगंत तक इस पुण्य धरा का मान, अभिमान, स्वाभिमान देदीप्त व जीवंत हैं।

भारत ने बहुआयामी ललित कला रूप साहित्य, अध्यात्म, प्रेम, संगीत, भाषा, धर्म को जितना समझा- जाना , आगम- निगम ,शास्त्रों में आबद्ध किया वह एक “लाइट हाउस”, की तरह सदियों से सदियों तक अनवरत प्रकाशमान रहा है, भारतीय जीवन और विश्व विराट में भी। भारत आत्म जागरण, आत्मज्ञान, आत्म दर्शन का ऐसा उदाहरण है जिसके आगे विज्ञान नत, शब्द विरमित और आगम- निगम नेति- नेति कह शब्दातीत हो जाते हैं।

विज्ञान अणु तक है और भारतीय दर्शन अणु सर्जक “विभु ” तक। इस परम तत्व का सही निरूपण इन शब्दों में, इन पंक्तियों में जरूर होता है-
“हर देश में तू, हर वेश में तू। तेरे नाम अनेक, तू एक ही है।।”

इस अद्भुत, अथाह, वृहद, समृद्ध, विराट, प्राचीनतम संस्कृति, सभ्यता और ऋषियों-मुनियों की
ज्ञान परंपरा के हम सहज, स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं। हमारे आचार- विचार, हमारे कार्य, हमारे रीति- रिवाज, परंपराएं, कला, साहित्य, जीवन मूल्य, दर्शन और नीतिगत व्यवहार के संस्कार हमारी सनातन संस्कृति है।

सं+ कृति = संस्कृति यानी अच्छी तरह सोच समझ कर किए जाने वाले हमारे कार्य । ये तभी संपन्न होंगे जब होंगे उत्कृष्ट विचार ।

इस तेजोमय ज्ञान की धरोहर हम वर्तमान में कितनी और किस तरह से संभाल रहे हैं! समझ रहे हैं! आगे बढ़ा रहे हैं! संरक्षित कर रहे हैं! इस महान थाती का, स्वर्णिम धरोहर, अमूल्य विरासत का संवाहक, संरक्षक और गुणात्मक वृद्धि करने वाला, ज्ञानश्री से संपन्न करने वाला मनुज अभी उपलब्ध है भारत भूमि पर या नहीं !

यह आत्म विश्लेषण, मंथन, चिंतन, और ज्ञान पिपासा जन-जन में है या नहीं! ऐसे सुंदर विचार, सुंदर कर्म जीवन में है या नहीं! ज्ञान का अमृत जीवन में आत्मसात हुआ या नहीं ! प्रेम ,स्नेह ,अपनेपन की बारिशें अभी भी निश्चल भाव से हृदय पर गिर रही हैं या नहीं ! मृदुल- मर्यादित आचरण,मधुर व्यवहार जीवन में कहीं है या विलुप्त हो गया!

सर्वजन हिताय सर्वजन,सर्वजन सुखाय , निस्वार्थ सेवा, परोपकार, त्याग जैसे उच्च मानवीय गुण हैं या इनकी जगह नई अमान्य ,अनैतिक, अमानवीय शब्दावली ने ले ली है!! क्या अभी भी नारी को वस्तु समझ कर दहेज की बलि चढ़ाया जाता है! कन्या भ्रूण हत्या की जाती है, उसके जीने का, शिक्षा का अधिकार छीना जाता है! बुद्धिमती, प्रखर, चैतन्य महिला को अत्याचार , अपराध, शोषण, दुष्कर्म द्वारा पीड़ित /प्रताड़ित किया जाता है! ये कुछ यक्ष प्रश्न हो सकते हैं ।

कुछ बिंदुओं को यहांँ इसीलिए रखा जाना बेहतर है कि आत्ममुग्धता और भौतिकवाद के मकड़जाल और आधुनिक परिदृश्य में, मानवता का जो हश्र दिखाई पड़ता है ,वहांँ भूभाग की आजादी से अधिक, अपने दुर्व्यसनों की आजादी जरूरी लगती है। यहांँ आजादी किसी पराए देश से, किसी आततायी से, साम्राज्यवादी से नहीं, बल्कि स्वयं की पैदा की हुई बुराइयों की खरपतवार से है।

इन 75 वर्षों में विकास के परिप्रेक्ष्य में कंक्रीट और तकनीक के महल खड़े हुए हैं, लेकिन मानवीयता की बुनियाद कहीं धंस तो नहीं गई है ! कहीं हम अपने ही लोगों के दुर्व्यवहार से, आपराधिक प्रवृत्तियों से, दुर्गुणों से बेइंतहा व्यथित और आहत तो नहीं हो चुके है !

आधुनिक युग के क्रांतिकारी खोज है इंटरनेट । ग्लोबली हम कनेक्ट हो गए हैं एक दूसरे से, प्रिंट/ इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया, वीडियो और ऑडियो के माध्यम से। इन सोशल मीडिया मंचों का क्या हम तर्क सम्मत और सार्थक उपयोग करते हैं ताकि देखने -सुनने वालों को सही जीवन जीने की प्रेरणा दिशा मिल सके! क्या हम लाइक और कमेंट के दिखावटी चक्रव्यूह में इतने उलझे हुए हैं कि हमें इंटरनेट और गैजेट्स अपने लगते हैं और अपने सपने लगते हैं!

उनसे बात करना , दो आत्मीयता भरे बोल बोलना मुश्किल है! मानवीयता की परिभाषा तो नहीं बदल गई है! ऊंचाइयांँ तो इतनी ,कि इंसान के कदम चांँद और मंगल पर लेकिन आत्मिक उन्नति का क्या! संवेदनहीनता की नई मिसालें तो नहीं खड़ी हो गई हैं!

तकनीक और गैजेट्स में भटके हुए हम मशीनीकृत तो नहीं हुए जा रहे! हकीकत की खूबसूरती को भूलकर फतांसी में तो नहीं उलझे जा रहे! बनावट, दिखावट,आत्ममुग्धता, आत्म प्रचार और के दौर में कहीं लालच और भोग की प्रवृत्ति ने ऑनलाइन/ ऑफलाइन फ्रॉड और छल- कपट, छीना- झपटी, नयए- नये अपराधों को बढ़ावा तो नहीं दिया है! प्रिंट इलेक्ट्रॉनिक /मीडिया के साथ-साथ मोबाइल ने पूरे विश्व को हमारी जेब में रख दिया । हम कैसी भाषा का उपयोग कर रहे हैं! क्या इन गैजेट्स में देख रहे हैं! क्या आत्मसात कर रहे हैं!

“यत्र पूज्यंते नार्यस्तु रमंते तत्र देवता “संस्कृति का ये आदर्श वाक्य था। नारी देह की मर्यादा, अस्मिता, सौंदर्य बाजारवाद और उपभोक्तावाद की भेंट तो नहीं चढ़ गया है! अधुनातन बनने के चक्कर में फेक, बनावट- दिखावट में तो नहीं उलझ गए अपना वास्तविक स्वरूप भूल कर! भोग और सुविधाओं में डूब कर ,अपनी प्राचीन स्वास्थ्यवर्धक पद्धति ,दिनचर्या भूलकर कहीं लाइफ़स्टाइल डिसीसेज के भरपूर शिकार तो नहीं हो गए!

ऐसा तो नहीं कि आधुनिक मनुष्य चांँद में भी खोट ढूंढते हुए अविश्वास की ऐसी नाव पर सवार हो गया है कि परिवार, रिश्तों- नातों, आपसी संबंधों, सभी जगह खाई खोदने में लग गया है और खुद डूब रहा है साथ ही अपनों को डुबो रहा है।

आत्म- चेतना और सकारात्मक ऊर्जा की इस पशमीना चादर में नकारात्मकता के ऐसे तार न लगें कि वह दुर्गुणों, दुर्व्यसनों, अपराधों से, अज्ञानता, नादानी से तार- तार हो जाए !

हम सबके, हमारे नौनिहालों के कंधे इतने सशक्त हों कि इस सुदीर्घ चैतन्य परंपरा, संस्कृति, सभ्यता का तेजोमय स्वरूप लुप्त – विद्रूप, विलग न हो। इससे जुड़ना, इसे संभालना और खुद संभलना होगा।
उत्कृष्टता की सीढ़ियांँ चढ़ना बेहतरीन पुरुषार्थ है ।

कुछ इस तरह जैसे आग में तप के सोना कुंदन बन जाता है। योग: कर्मसु कौशलम् – श्रम साध्य है, लेकिन सर्वोत्कृष्ट है । अपनी कमजोरियों, वासनाओं और लालसाओं, छद्म पाश्चात्य का अनुकरण कर पराभूत हो अपने स्तर से गिर जाना, पतित हो जाना तो बहुत आसान ही है !

काफी कुछ स्पष्ट बयानी इस संकलन की रचनाओं में दिखाई पड़ेगी क्योंकि वर्तमान परिदृश्य की विकृतियां/विसंगतियां कभी-कभी सुनहरे आंँचल में काले दाग की तरह उभर आती है।
श्रेष्ठ मनीषियों, ज्ञान साधकों, सिद्ध- बुद्ध समाज द्वारा सृजित ,पोषित, पल्लवित, अकंटकीय, सुवासित, सुभाषित ,जीवन का धर्म और मर्म समझाने वाली अतुलनीय, अनिर्वचनीय सौंदर्य से परिपूर्ण भारतीय पुष्प वाटिका में ये अवगुण और अज्ञानता के कंटकों का उद्भव कहां से! कलयुग को” एज ऑफ इल्यूजन “कहा गया यानी भ्रम का महा माया जाल !

खुद पर अविश्वास, दूसरे पर अविश्वास, छल- कपट, अवसाद, निराशा, असंतोष, अहंकार, भटकाव है तो हमारे विचार और कर्मों का स्रोत क्या है ! क्या शास्त्रोक्त है ये जीवनशैली यह आचार-विचार!

हमारा योग, अध्यात्म, दर्शन जो हमारी आत्मा को सफल जागृत कर चैतन्यता को संपुष्ट कर दे, अहंकार को तिरोहित कर दे और ब्रह्मानंद का आविर्भाव करे, क्यों नहीं ? संस्कारित /उपचारित भारतीय संस्कृति जो जड़ -चेतन को समरूप से, उच्च भाव से, परमात्मा में निहित -आविष्ट देखे व उसे सम्मान दे, कहाँ है ?

हमारा वांग्मय, उसका पठन-पाठन और जीवन में आत्मसात करने का गुण ? सत्य की खोज के पथिक, ब्रह्म के अंश और सत चित परमानंद के उपासक हम, हमारा उद्घोष “सत्यमेव जयते” और देश ,धर्म ,जाति, लिग से परे हमारा समावेशी स्वभाव, विश्वबंधुत्व भाव, हमारे कार्य विश्वजन हितार्थ समष्टि लाभार्थ कितने दूर ?

वस्तुतः ये संस्कार बीज रूप में, विज्ञान की भाषा में कहें तो हमारे डीएनए में सुरक्षित और संरक्षित हैं जिन्हें सही आबोहवा, देखभाल, शुद्ध परिवेश और उत्कृष्ट अध्ययन मनन -चिंतन, अभ्यास द्वारा विकसित- जागृत किया जा सकता है । यदि सोना तिजोरी में रहे तो उसकी चमक किसी को दिखाई नहीं पड़ेगी और अगर परहितार्थ काम आ सके तो उसकी चमक सौ गुनी बढ़ेगी।

साहित्य समाज का दर्पण है। समाज की दिशा और दशा का सुधारक और उसे सही मार्गदर्शन देने वाला एक अन्वेषक- साधक। कलम तो वही धन्य है,जिसमें कल्पना की उड़ान हो,लेकिन वास्तविकता का भान हो। इन दोनों का अनूठा संगम ही, रचना की सार्थकता और उसके पाठक से सार्थक संवाद और सामीप्य को चरितार्थ करेगा।

आरंभ चैरिटेबल फाउंडेशन के तत्वावधान में पूर्व में चर्चित अंतरराष्ट्रीय साझा संकलन “आरंभ उद्घोष 21वीं सदी का” और मुक्त छंद बाल काव्य संकलन “बाल विश्व” प्रकाशित हुआ। सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में इनकी समीक्षाएंँ प्रमुखता से प्रकाशित हुईं।

इसी क्रम में आजादी की अमृतोत्सव बेला में यह महती अंतर्राष्ट्रीय साझा संकलन पुस्तकाकार रूप ले रहा है । इसमें देश-विदेश के 61 समसामयिक रचनाकार हैं। सभी वर्ग/वय के रचनाकारों ने अपनी कलम को धार दी है। वर्तमान भारत, प्राचीन भारत , भविष्य के भारत पर अपनी जागरूक दृष्टि रखते हुए रचनाओं की सृष्टि की है। जहाँ अनुभव से मंजी, प्रेरक, ‘परिपक्व कलम’ है, वहीं नैसर्गिकता, स्पष्टता और मौलिकता को धारण किए हुए ‘नवोदित कलम’ ।

प्रवासी मन को किस तरह स्वदेश प्रेम के तागों ने संभाला है, ‘प्रवासी कलम’ टटोल रही है । भारतीयों की निष्पक्ष, निर्बाध, प्रखर अभिव्यक्ति व अपने देश की सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है यह साझा संकलन।

इस संकलन में कुछ कालजयी, रचनाकारों को भी शामिल करने का सुंदर उपक्रम और सौभाग्य प्राप्त हुआ है ।उनकी कलम साधना, देशप्रेम से पगे हुए श्रेष्ठ रचनाधर्म के मणि- माणिक्य, हमारी कलम को ऊर्जस्वित करने और ज्ञान का प्रकाश देने हेतु प्रेरक और प्रतिबद्ध हैं ।

इसी क्रम में अग्रज वरेण्य कविवर “श्रीकृष्ण सरल जी” की रचना उनके सुपुत्र श्री धर्मेंद्र कृष्ण सरल जी द्वारा संकलन हेतु स्वयं प्रदत्त करना, प्रेरक और उत्साहवर्धक रहा।

आजाद भारत में आधी आबादी यानी नारी शक्ति ने भी नई -नई मंजिलें तय की हैं। जमीन से लेकर आसमान तक सफलता का इतिहास रचा है। अवसर ,शिक्षा ,सफलता, रोजगार, स्वास्थ्य आदि में प्रगति दिखाई पड़ती है। आर्थिक स्तर भी बढ़ा है ।

जीवन स्तर कहीं न कहीं सुधरा है । अपवाद सब जगह अभी भी हैं। गाँव में ही नहीं,शहरों में भी। जहां महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अत्याचार, अपराध और शोषण की खबरें सुर्खियों बन जाती हैं और यह किसी राष्ट्र, स्वस्थ समाज के लिए के लिए सुखद या आत्मसम्मान वाली बात नहीं हो सकती!

अपने परिवार, समाज, परिवेश, पर्यावरण, प्रकृति, जड़ -चेतन के प्रति हम जागरूक नहीं है, उसका संरक्षण- संवर्धन मानव हित में नहीं कर पा रहे हैं, स्वार्थ में रत हैं तो यह भी मानवता के लिए खतरे की घंटी है और देश के लिए भी। अगर अपना विकास और देश का विकास सही अर्थों में हमें देखना है तो हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान, लगनशील, प्रामाणिक और ईमानदार होना आवश्यक है।

बात वही है कि सिर्फ कहने से नहीं, करने से ही होगा और करना सभी को पड़ेगा मिलकर, एकजुट होकर। भारतीयों को “आत्मज्ञान का- आजादी का अमृत कलश ” मिला है उसे सही, शुद्ध रूप में संरक्षित करके, ग्रहण- आत्मसात करके, मान -सम्मान देकर ही अपना मान- सम्मान बढ़ाया जा सकता है।

जब – जब भारत ने अपने आत्मज्ञान के प्रकाश में ,अपने नैतिक सिद्धांतों पर अटल रहकर , आत्मबल और स्वाभिमान को आवाज दी है , संकटों में सटीक समाधान का परचम लहराया है और विश्व ने जय गान किया है। सदी का भयंकर कोरोना महामारी संकट विश्व के समक्ष था। जिस तरह चुनौतीपूर्ण सामना भारत ने किया व अन्य देशों को मार्ग दर्शन और सहयोग दिया, वह वैश्विक पटल पर भारत के विश्व गुरु होने की एक मिसाल है।

भारत के कोने- कोने से बच्चा – बच्चा यही कहें।
हमें अपने देश, भाषा, संस्कृति पर सदा गर्व रहे।

संकलन में शामिल सभी कलमकारों , रचनाधर्मियों को हार्दिक-हार्दिक बधाई!
जय भारत! जय मातृभूमि! जय हिंद

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥

नमस्कार!
आपकी अपनी
अनुपमा अनुश्री, भोपाल
भारत

 

@अनुपमा अनुश्री

( साहित्यकार, कवयित्री, रेडियो-टीवी एंकर, समाजसेवी )

भोपाल, मध्य प्रदेश

 [email protected]

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