बोलना बेमानी हो जाए
बोलना बेमानी हो जाए
बोलो!
कुछ तो बोलो
बोलना बेमानी हो जाए
इससे पहले लब खोलो
पूछो
अरे भई पूछो
पूछने मे जाता ही क्या है
पूछना जवाब हो जाए
इससे पहले पूछ लो
चलो
चाहे कितनी पीड़ा हो
चलना बस कदमताल न हो जाए
वैसे भी
चलना जीवन की निशानी है
रुकना मौत की
लिखो
चाहे कुछ भी
किसी के वास्ते
चाहे कितना खराब हो मौसम
लिखना बस नारा न हो जाए
देखो
चाहे कोई हसीन नजारा न हो
आँख नहीं, न सही
देख लो कोई ख्वाब ही
बस मरीज-सा
दम न तोड़ दे कहीं
सोचो
जहाँ हो, जैसे हो क्योंकि सोचना
जिंदा रहने की पहचान है
सुनो
दिल की आवाज़
या किसी के आने की आहट
या चिडियों की चहचहाहट
खोजो
चाहे कुछ भी
कैसी भी, कहीं भी
जैसे गौतम ने खोजा सच
और हो गया बुद्ध
या आर्किमिडीज नहाते-नहाते
पा गया सच
और रोम की गलियों में
पागलो-सा चिल्लाया:
‘यूरेका! यूरेका!’
दीपक वोहरा
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