Geeta Gyan in Haryanvi
Geeta Gyan in Haryanvi

गीता ज्ञान (सौ का जोड़)

श्रीमद्भागवत गीता का 100 पदों में हरियाणवी भाषा में भावानुवाद – ( गीता सौ का जोड )

 

महाभारत का अमृतपान, मुरलीधर का गाण ।
अदभुत् अनुपम नजर सौ पार, श्रीमद्भागवत गीता ग्यान ।

जै जगवंदित श्रीमद्भागवत गीता ,
तू हरणी माँ काली तीता ।

बुद्धि गंगा गीता मैया ,
कन्हैया योगेश्वर गीता रचइया ।

श्रीमुख उपजत कन्हैया लाल,
श्रीमद्भागवत गीता भवभयहारी ।

कुरुक्षेत्र में झंडा लहरावै ,
सबते पहलां आपणे शंख बजाये ।

धरम का रण जब होण आया ,
अर्जुन के मन म्ह मोह समाया ।

भाईचारा देख सामणे ,
गांडीवधारी लगा कांपणे ।

कृष्ण मुरारी बोल्या कुंतीनंदन तै,
नहीं करूँगा महाभारत रण ।

पिरिथा पुत्र ने धनुष तै त्याग्या ,
न इन्तै मारकै ना बणूगा अभागा ।

मधुसूदन मन मेरा मोहित ,
कहो कृष्ण मुरारी हो जिसमें हित ।

अर्जुन के मण को मिटाणे आया क्लेश ,
कृष्ण मुरारी ने दिया दिव्य संदेश।

तू फालतू की करें काहे की करें चिंता ,
परम पिता परमेश्वर जग का नियंता ।

काहे ना धररै अरजन धीरा ,
है मृत्यु तो धरम शरीरा ।

पांच तत् का तन है तेरा ,
काहे फिरै क तू करता मेरा – मेरा ।

नाच नचाए सब मम यह माया ,
कोई मर्ज़ यू जाण ना पाया।

जो जग में आया वो जावैगा ,
बदलकर रूप फिर तू आवैगा।

अनंतकाल जो ध्यान धूनी रमाता,
वै सभ अगले जन्म मिल जाता।

आत्म सत्ता है अविनाशी ,
सत्य सनातन सिद्धांत सुन्नी और सुखराशी।

अग्नी आग इसतै जळा सके ना,
पाणी जल इसतै गळा सके ना।

इसतै शस्त्र काट सके ना ,
इसतै वायु सुखा सके ना ।

रय् पारथ सुण छोड़ सारी नपुंसकता ,
छोड़ दिल की तू दुर्बलता।

छोड़ मण का मोहिपन ,
अब अरजन तू योगी बन ।

चढ़ा डोरी महासमर में ,
लटक ना अरजन तू बीच अधर में।

काम करना तेरा काम ,
फल का दाता है घनश्याम।

निरगुण मैं, मैं ही निराकार ,
सगुण हूँ मैं, मैं ही साकार ।

कोई पत्र पुष्प जल फल लाता,
प्रेम सहित मैं उनको खाता।

विजय पराजय न ना तू देख लाभ हानि,
जो सम जाने वो है ग्यानी।

दुःख की चिंता ना करै सुख अभिलाषी,
वै सै सव्यसाची सन्यासी।

अरजन वै तै सच्चा त्यागी,
फल इच्छा से तै जो वीतरागी ।

करम वस्तु का नाम भोग ,
अरजन यही सै सांख्य योग ।

ग्यान जगत में सबतै पावन ,
सदा ज्ञान का तू कर आराधन ।

अति मन चंचल मेरा भरमावै ,
वश में योग ध्यान जमाणे तै आवै।

है योग श्रेष्ठ तप ग्यान तै ,
परमपिता परमात्मा मिलते धैरय ध्यान तै ।

करम कर तू श्रीमद्भागवत तै कर अरपण ,
कर भक्ति का पुण्य अरजन ।

तै करम कर सद्ध बुद्धि तै ,
तन्नै मिले सिद्धी या असिद्धि।

तै हर रोज़ भज मेरे तै ,
भक्ति योग देवूं मैं तैर तै।

सत रज तम यू संसार ,
नाम जपत ले उतर पार।

तू अरजन आसक्ति छोड़ ,
खुद के काम तै नाता जोड़ ।

सौ तै ज्यादा योग कर तू धारण ,
करम बन्धन तै करो निवारण।

जिसतै मोह ना सतावै ,
वै नर परमानंद पावै।

वेग सहे जो काम क्रोध का ,
साधक वै सै सांख्य योग का।

आत्म सुखी जो मोक्ष परायण ,
उसतै मिलै परब्रह्म नारायण ।

मोह माया ना कोई अनुरक्ति ,
जन्म – मरण तै पावै मुक्ति।

जो मन्नै सबमें सदा निहारे ,
मैं उसके कर वै मेरे द्वारे ।

समदर्शी जो सच्चा ग्यानी ,
सबतै प्यारे सारे प्राणी।

ना मैं करता ना मैं कारण ,
ग्यान योग कर तू धारण ।

जोगी बणज्या कुन्ती नंदन ,
मिटेगा तेरे मन का करन्दन।

जब – जब होवै धरम की हाणी,
तब – तब लैऊं मैं अवतार।

जब जब करूं मैं धरम बदलाव ,
तब तब हरूं मैं पाप ताप।

शांत सौम्य अर सत् चित आनंद ,
परम पिता मैं हूं परम आनंद ।

परम सत्य यूं गूढ मर्म है ,
निष्काम कर्म ही परम धर्म है ।

कर्तव्य रूप तै कर तू प्रभु पूजा ,
श्रेष्ठ धर्म सै ना कोई दूजा।

त्रिगुण माया कबहुँ ना व्यापे ,
नर जो निरंतर मेरे तै जापे।

पारथ बोला मेरे तै होई ना तरपती ,
बोलो प्रभु बताओ मेरे तै योग विभूती ।

रुद्रों में तम्म शंकर यक्ष कुबेर ,
वसुओं में तम्म अग्नि गिरी सुमेर ।

वृक्षों में तम्म पीपल अर नदी में गंगा ,
सर्प में वासुकी अर पितर में अरमया ।

तम्म आदि अनादि मध्य अंत हो ,
अर तम्म कवि शुक्र गायत्री छंद हो

तम ही विष्णु तम्म ही राम ,
तम्म ही सूर्य शशी और तम्म घनश्याम ।

तम्म ही विश्वमुख तम्म ही अक्षयकाल ,
तम्म ही सबके प्रतिपाल ।

जो सै सुंदर अर मन भावन ,
उसमें मेरा अंश सै पावन ।

दिव्य नेत्र मैं देऊं तन्नै ,
दिव्य रूप तै देख तू मन्नै ।

अलौकिक अदभुत और अनूप ,
देख तू मेरा विराट स्वरूप ।

दिव्य रूप तै कै कर कै दर्शन ,
रोमांचित हो गया कुंतीनंदन।

विकराल रूप अर विस्मयकारी ,
देख सका ना गांडीवधारी।

हुआ प्रभु मैं व्याकुल भारी ,
कृपा करो हे चक्रधारी ।

हरि ओम तत् सत् कृष्ण मुरारी ,
राधा वल्लभ हे गिरधारी।

अन्तर यामी रूप अनन्ता ,
दिखाओ विष्णु रूप भगवनता ।

सौम्य रूप जद प्रभु ने बताया,
तद अरजन नै धीरज आया।

अरजन तै ना बण करतव्य विमूढ़ ,
यू सै तत्व धरम का गूढ ।

यू सै मरै होये जीवित मातर ,
मार इन्हा नै तू निमित्त मातर ।

छोड आसक्ति मोह और माया ,
धरम युद्ध तू करण नै आया ।

भक्त वत्सल मैं कहलाऊं ,
जबहिं पुकारे दौड़ा आऊं ।

प्रेम सहित जो मन्नै ध्यावै ,
भक्त वो मेरा सब कुछ पावै।

जो जिस भाव तै मन्नै ध्यावै ,
उसी भाव तै फल वै पावै।

जिस भाव तै मन्नै ध्यावै ,
उसी भाव तै फल वै पावै।

करम कर भगवद् अरपण ,
तू सै नर उत्तम अर मैं नारायण ।

मन्नै भजे जो मेरा होई ,
चांडाल पंडित या भजे ओर कोई ।

आखर में जो मन्नै पुकारे ,
भक्त वो आए मेरे द्वारे ।

ना शुद्ध बुद्धि अर ना निश्छल मन ,
ना मिले प्रभु कर लो लाख जतन।

ना गर्मी सर्दी ना सुख दुःख चिंता ,
मिले उसतै मिलै परमानंद अनन्ता।

होवै जिसनै आत्मानुभूति ,
उसनै मिलै जग तै मुक्ति।

जो सै परहितकारी मन का स्वामी ,
उसे मिले प्रभु अंतर्यामी ।

जो सै मेरी शरण में आता ,
योगक्षेम का वहन वह पाता ‌

कुंतीनंदन करम कियै जा ,
ग्यान का अमरत सदा पियै जा ।

मैं हूं रूप अनंत अविनाशी ,
अरजन मैं हूँ घट-घटवासी ।

खुद का सतरू खुद का मित्र ,
गति सै मन की बडी विचित्र।

चंचल मन की छोड आसक्ति ,
कर्म योग तै कर ले भक्ति ।

जिसमै करतापन का भाव ना होई ,
पाप उसतै ना लागे कोई ।

भजे सदा वो मन्नै ध्यावै ,
भगत वो मेरा सब कुछ पावै ।

मैं भगतों की पीड़ा हर्त्ता ,
चक्र सुदर्शन हाथ मैं धरता ।

शरणागत की रक्षा करता ,
संकट सारे पल म हरता ।

बात अरजन यू सै साच्ची ,
अपयश से तै मृत्यु आच्छी ।।

अरजन मेरी शरण में आजा ,
पाप ताप तै मुक्ति पा जा।

मेरा बण मुझमें लगा मन,
सब कुछ मन्नै कर अरपण ।

कृष्ण तै सुणकै गीता ग्यान ,
अर्जुन का मिट ग्या मोह अग्यान।

मोह मेरा इब नष्ट हो ग्या ,
सब संशय मिट संतुष्ट हो ग्या ।

आज्ञा पालन इब मैं करूंगा ,
महाभारत का युद्ध लडूंगा ।

जहां सै पारथ धनुरधन करषण ,
वहीं सै समृद्धि विजय कल्याण,

गीता प्रबंधन पाठ पढाती ,
महामोक्ष की राह बताती ।

गीता शतक नै जो रोज़ पढै ,
गोविंद उसके साथ खडै ।

किरषण किरपा तै सभ कुझ पावै ,
खान मनजीत नाम हरि का लेकै हरि लोक में जावै।

 

Manjit Singh

मनजीत सिंह
सहायक प्राध्यापक उर्दू
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ( कुरुक्षेत्र )

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