16-2-2024 को कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के भाषा एवं कला संकाय विभाग के अन्तर्गत चल रहे उर्दू भाषा विभाग ने आज राष्ट्रीय उर्दू दिवस का आयोजन किया। यह दिवस मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि पर मनाया जाता है।

अधिष्ठाता भाषा एवं कला संकाय प्रो पुष्पा रानी ने कहा कि गालिब मशहूर शायरों में एक हैं जिसने दुनिया को सिखाई इश्क की तहजीब ,मिर्जा गालिब उर्दू फारसी भाषा के ऐसे फनकार थे, जिनके शेर को आप किसी भी मौके पर इस्तेमाल कर सकते हैं।

प्रियतम से मिलने की खुशी हो या बिछड़ने का गम, आलिंगन की मादकता हो या कल्पना की उड़ान, आज भी युवा पीढ़ी के बीच गालिब की शायरी को व्यापक रूप से सराहा जाता है. गालिब को प्रेम की कितनी गहरी समझ थी यह उनकी शायरी से ही पता चलता है।

आज भी गालिब के शेर के साथ इश्क का इजहार होता है और जब दिल टूटता है तो गालिब के शेर ही मरहम का काम करते हैं. कहा जाता है कि, गालिब शायरी नहीं बल्कि शब्दों की जादूगरी किया करते थे. इसलिए तो जब भी शेर-शायरी का जिक्र होता है गालिब का नाम जरूर लिया जाता है।

पंजाबी विभाग से प्रो कुलदीप सिंह, डा देवेन्द्र बीबीपुरिया,डा गुरप्रीत सिंह ने संयुक्त रूप से कहा कि गालिब की गजल और शायरी में हमेशा जिंदा रहेंगे क्योंकि गालिब ऐसे अजीज शख्सियत हैं जो वक्त की धूल में कभी खो नहीं सकते ।

मिर्जा गालिब का असली नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान था. बाद में इन्होंने अपना नाम मिर्जा गालिब कर लिया. गालिब का नाम अर्थ ‘विजेता’ होता है. इनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को हुआ था।

इनके पूर्वज तुर्की से भारत आए थे गालिब मुगल काल के दौरान प्रसिद्ध शायर थे. आज भी मिर्जा गालिब का नाम बड़े अदब के साथ लिया जाता है. गालिब ऐसे शब्ख थे जिन्होंने खुद अपनी बदनामी का भी लुत्फ भी उठाते हुए लिखा- ‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है।

आइये जानते हैं गालिब के कुछ चुनिंदा शेर, हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ग़ालिब की शायरी में हक़ीक़त है लेकिन दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता ।

उर्दू भाषा विभाग के सहायक प्राध्यापक मनजीत सिंह ने कहा 27 दिसंबर 1797 को आगरा में जन्में मिर्ज़ा असदउल्लाह बेग ख़ान को समझना किसी आम शख्स के लिए इतना आसाना नहीं है, लेकिन दिल्ली के बल्लीमारान के ‘चाचा ग़ालिब’ के शेर का मज़ा उठाने के लिए किसी ऊर्दू या फारसी विश्वविद्यालय में जाने की जरूरत नहीं है।

हालांकि, कभी-कभी उनके शेर की गहराई तक उतरना बड़े-बड़े ऊर्दू के जानकारों के लिए भी टेढ़ी खीर साबित हो जाती है।उनका हर शेर किसी सोने की असर्फी की कीमत और चमक से कम नहीं है।

आइए आज ग़ालिब के कुछ ऐसे शेरों को याद करें, जिसमें मोहब्बत की खुशबू है, सोच का समंदर है, बिछड़ने का ग़म है, साक़ी से कुछ इल्तिज़ा है और ऊपर वाले से कुछ सवालात भी हैं।

इस मौके पर अली खान, सुमित कुमार, रामलाल,नेहा, दीक्षा,मुनेश कुमारी, हंसराज व हिन्दी विभाग, पंजाबी विभाग, राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी, शोधार्थी मौजूद रहे।

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