निबंध : असहमति या मतभेद लोकतंत्र की नींव
निबंध : असहमति या मतभेद लोकतंत्र की नींव

निबंध : असहमति या मतभेद लोकतंत्र की नींव

( Disagreements or differences Foundations of democracy : Essay in Hindi )

 

प्रस्तवना :

अभिव्यक्ति की लोकतंत्र स्वतंत्रता एक मानवाधिकार है। यह वह आधार है जिस पर लोकतंत्र का निर्माण होता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई भी प्रतिबंध लोकतंत्र पर प्रतिबंध लगाता है।

लोकतंत्र दुनिया भर में सरकार का सबसे व्यापक रूप है जो स्वीकृत है। यही कारण है कि इस तथ्य में यह निहित है कि यह नागरिकों को सरकार की कार्यवाही और निर्णयों पर सवाल उठाने और नीतियों और परिवर्तनों के खिलाफ विरोध करने करने की अनुमति देता है।

लोकतंत्र

मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। लेकिन हमारे देश में स्थिति काफी चिंताजनक और खतरनाक है। आज मीडिया सरकार और नीति निर्माताओं की, उनके वर्तमान और भविष्य के फैसलों के बारे में जांच और पूछताछ करने लगता है और समीक्षा करता है

तो दर्शक को अच्छी तरह से अवगत करवाया जाता है। जब कुछ पत्रकार या रिपोर्टर सरकार की कठपुतली बनाने से असहमत होते हैं और जनता को वास्तविकता दिखाते हैं जो वास्तव में देश के परिदृश्य को निरपेक्ष तरीके से समझने में उन्हें लाभान्वित करते हैं।

पर कई बार उन पत्रकारों को धमकी मिलती रहती है। अब अगर भारतीय लोकतंत्र में इसी तरह की स्थिति आ रही तो वह वक्त जल्दी आएगा जब हर नागरिक सरकार के इस रूप से नफरत करने लगेगी।

लोकतंत्र किसी भी तरीके से तानाशाही न बने इसके लिए असहमति यह संतोष होना बेहद महत्वपूर्ण है और यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारे नेता यह बात महसूस करें कि असहमति किसी भी तरह से उनके खिलाफ नहीं है।

कुछ मुद्दों पर असहमति केवल बेहतर नीतियां और निर्णय लेने के लिए होते हैं जिससे पूरे देश को लाभ होता है। यही वास्तव में सरकार में या सत्ता में रहने वालों का उद्देश्य ही होना चाहिए।

असहमत होने के अधिकार को कभी भी नकारा नहीं जा सकता क्योंकि फिर यह बदलाव की संभावना को खत्म कर देता है और समाज बर्बर होता जाता है।

बड़ी संख्या में असहमति जताने से अपने अधिकारों की रक्षा होती है। साथ ही बदलाव भी सुनिश्चित होता है। लोकतंत्र में स्वतंत्रताओं का लुफ्त उठाते हैं।

नाराज होने या गहरी असहमति जताने का भी अधिकार उसमें शामिल होता है। बिना किसी रूकावट या भय के सोच विचार करने और बिना लाग लपेट लिखने बोलने और कहने की आजादी में यही लोकतंत्र की नींव है।

हमारे देश भारत जैसे सुंदर विविधता वाले देश में कभी छीना न जा सकने वाला असहमति का अधिकार हमें एक राष्ट्र के रूप में बनाता है। निसंदेह अधिकार के साथ कई सारे जोखिम जुड़े होते हैं। इसमें निशाना बनाए जाने का जोखिम भी जुड़ा है।

लेकिन जब अधिकार सुपरिभाषित तार्किक सीमा के भीतर रहता है तो इससे लोगों को दिक्कत नहीं होगी। जब भीड़ आपको काट डालने के लिए, घर में तोड़फोड़ करने के लिए, किताबें जलाने के लिए, या फिल्म प्रदर्शन न करने दी जाए जैसे कि आज कल हो रहा है, यह स्थिति खतरनाक है।

लेखक, पत्रकार, चित्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, तार्किक सोच को बढ़ाने वाले भी लोगों पर भी आज खुलेआम हमले हो रहे हैं और उनकी हत्याएं की जा रही है।

किसी भी लेखक के लिए लिखते समय, चित्रकार के चित्रकारी करते समय या किसी व्यक्ति की बोलते समय यह ठीक-ठीक रेखा खींचना एक रस्सी पर चलने जैसी चुनौती की तरह है। मजे की बात यह है कि सत्य की कोई सीमा नहीं होती है।

जब आप किसी विषय पर बोलना चाहते हैं जिसमें आप बहुत भरोसा करते हैं तो उसमें कोई भी रेखा नहीं खींची जा सकती, जहां पर आप ठहरे सत्य हमेशा संपूर्ण होता है।

जब आप अपने विवेक पर भरोसा करके कोई रेखा खींचते हैं तब वह अर्थ सत्य को दूसरे को मूर्ख बनाने की प्रवृति को बढ़ावा देता है और सबसे बढ़कर खुद की अंतरात्मा को धोखा देता है।

निष्कर्ष

आज जब हम किसी भी बात से असहमत होते हैं तो हम अपने असहमत होने की अधिकार को नकार देते हैं तो बदलाव की संभावना भी खत्म हो जाती है और समाज बर्बर निर्जीव और सिर पैदा करने की हद तक उबाऊ बनने लगता है।

आप देश के स्वतंत्र नागरिक बने रहना चाहते हैं तो आक्रामक असहमति जताने के अपने अधिकार की रक्षा कीजिए। बड़ी संख्या में लोग ऐसा कर रहे हैं और बदलाव को कभी भी टाला नहीं जा सकता बल्कि यह बदलाव ही सुनिश्चित करता है कि वह किसी जीवित संस्कृत की पहचान है।

लेखिका : अर्चना  यादव

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