आज का काव्यानंद | डॉ० रामप्रकाश ‘पथिक’

भेद हृदय के खोले

उधर सूचना गुप्तचरों से
मिली विभीषण बोले
आतुर विकल राम के आगे
भेद हृदय के खोले

“मेघनाद दिव्यास्त्र न कोई
साथ ‌वहाँ लाया है
केवल अंग-रक्षकों को ले
यज्ञ हेतु आया है

पहले दिन ब्रह्मास्त्र बिना ही
जब लड़ने आया था
लक्ष्मण के असह्य वाणों ने
उसको विचलाया था

पराभूत जब उसने अपना
मरण सुनिश्चित माना
‘शक्तिवाण’ दिव्यास्त्र बाध्य हो
उन पर था संधाना

उस दिन उस पर शक्ति न होती
क्या वह फिर कर पाता?
लक्ष्मण के हाथों तब उसका
अंत वहीं हो जाता

शस्त्ररहित वह निकुम्भला के
मंदिर में आया है
उचित यही अवसर है उसका
काल वहाँ लाया है

चलकर लाभ उठाएँ उसकी
इस असावधानी का
करें आक्रमण शीघ्र अंत हो
त्रासद अभिमानी का”

मेघनाद हरषाया

मूर्च्छित देख राम-लक्ष्मण को
मेघनाद हरषाया
निकल यंत्र से, भर उमंग में
वध करने को धाया

निकला बाहर, बढ़ा खड्ग ले
शीश काटने ज्यों ही
उछल दबोचा जामवंत ने
बढ़ पीछे से त्यों ही

छीन खड्ग मारा छाती में
कसकर लात जमायी
असहनीय खा चोट गिरा जो
भू पर मूर्च्छा आयी

उसके प्राण देख संकट में
भीत रक्ष धर धाए
टूटे जामवंत पर उनको
खींच दूर ले आए

डाल सारथी रथ में उसको
ले पहुँचा लंका में
डरा-डरा रावण के भय से
डूबा आशंका में

देख दुर्दशा मेघनाद की
उखड़ी सेना भागी
लज्जित हुआ पिता के आगे
ज्यों ही मूर्च्छा जागी

सोचा उसने निकुम्भला के
मंदिर में बलि दूँगा
मारण-सिद्धि-मंत्र-जप करके
विधिवत् यज्ञ करूँगा

चला, साथ चल पड़े वीर जो
रहे अंग-रक्षा में
मंदिर में कर विधिवत् पूजा
बैठ गया शाला में

मेघनाद के सेनापतित्व में

हुआ प्रात छा गई लालिमा
उगा सूर्य जलता-सा
धधक रहा प्रतिशोध-अग्नि का
या भीषण गोला-सा

बजी दुंदुभी रण-भेरी का
शब्द गगन पर छाया
किया रक्ष-बल ने जयकारा
सुन कपि-दल थर्राया

चली रक्ष-सेना उमगाती
रण-मद में इतराती
इंद्रजीत की छत्र-छाँह में
निर्भय पाँव बढ़ाती

संचालित ब्रह्मास्त्र, छूटते
जिससे शस्त्र घनेरे
दुसह, अमोघ, अकाट्य रहे जो
इंद्रजीत के प्रेरे

मेघनाद उस गूढ़ यंत्र में
बैठा प्रलय मचाता
था अदृश्य बस अट्टहास था
उसका गगन गुँजाता

परिघ, शूल, असि, वाण युद्ध में
क्रुद्ध रक्ष ‌ बरसाते
भल्लु-कीश भट आहत हो-हो
रण में ‌बिछते जाते

था ब्रह्मास्त्र अभेद्य, न उसका
कोई कुछ कर पाता
खंडित होता स्वयं शस्त्र जो
था उससे टकराता

भारी शिला-खंड, तरु, शाखें
कपि-दल जो बरसाता
खंड-खंड होते प्रहार सब
कुछ भी काम न आता

व्यर्थ हुए सब वाण, विवश हो
स्तम्भित दोनों भाई
गिरे बद्ध हो नागपाश में
तत्क्षण मूर्च्छा आई

आविष्कृत ब्रह्मास्त्र अनोखा

आविष्कृत ब्रह्मास्त्र अनोखा
जो ब्रह्मा से पाया
जिसके बल पर बाँध इंद्र को
इंद्रजीत कहलाया

पुन: उसी को लेकर रण में
कल मैं युद्ध करूँगा
रह अदृश्य मारूँगा सबको
निश्चित विजय करूँगा

जो भी हैं दिव्यास्त्र, दिए जो
शंकर ने, ब्रह्मा ने
चाहे कल वे सारे मुझको
रण में पड़ें चलाने

दोनों का वध कर संकट का
सूर्य अस्त कर दूँगा
त्यागें शोक, मुझे अनुमति दें
कल मैं बदला लूँगा

सुन रावण ने अति सुख माना
बढ़कर कंठ लगाया
हो आश्वस्त कहा, ‘विजयी हो !’
मन में अति हरषाया

बोला, “पुत्र ! भूल मत करना
जीवित छोड़ न देना
मृत्यु सुनिश्चित दोनों की ही
शीश काट कर देना”

धन्यमालिनी माता

मरा पुत्र अतिकाय सुना तो
“क्या यह हुआ विधाता !”
छाती पीट-पीट कर रोई
धन्यमालिनी माता

लगी कोसने पति रावण को–
“मन में खुशी मना ले
सारे पुत्रों को मरवा दे
तू सीता को पा ले”

विचलित रावण नतसिर बैठा
भरे अश्रु नयनों में
देख रहा प्रत्यक्ष सत्य जो
था उसके वचनों में

मौन शोक-सागर में डूबा
देखा दग्ध पिता को
मेघनाद ने, लौटा था जो
देकर अग्नि चिता को

होकर दुखी पिता के दुख से
भरा क्रोध में बोला–
“प्रलय मचा दूँगा कल रण में”
सुन नभ-जल-थल डोला

“हों निश्चिंत पिताश्री ! मैं हूँ
कल देखें बल मेरा
करूँ अंत लंका से उखड़े
शंका-भय का डेरा

खीझ उठा अतिकाय

खीझ उठा अतिकाय विफल हो
दिव्य वाण संधाना
धँसा वक्ष में जा लक्ष्मण के
कठिन हुआ सह पाना

बाएँ कर से खींच निकाला
पल को मूर्च्छा आई
रक्त बह चला जिसने उनकी
क्रोध-अग्नि भड़काई

छोड़ा महाकाल शर, धड़ से
उसका शीश उड़ाया
दो वाणों से चल-कबंध भी
खंडित किया गिराया

मरा देख अतिकाय भीत हो
उखड़ी सेना सारी
रहा सफल संघर्ष लखन थे
मन में हर्षित भारी

देख अंत आसुरी शक्तियाँ
थमीं सफल सम्भावी
सम्मुख कठिन साधना का था
पंथ अवश्यम्भावी

रथ उसका बिचलाया

विचलित हुई रक्ष-सेना जो
बढ़ अतिकाय गुमानी
ले अपना रथ आगे आया
गरज उठा अभिमानी

स्वर्ण रत्न-मणि-मंडित भारी
दिव्य कवच अवधारे
काल-रूप साक्षात् लग रहा
निज भीषण धनु धारे

धनु-टंकार किया वाणों की
वर्षा-सी कर डाली
दल के दल कपि गिरे, रक्त की
छायी भीषण लाली

देख भयातुर वानर-दल को
लक्षमण बढ़कर आए
किया घोर टंकार कुपित हो
सघन वाण बरसाए

काट वाण उसके, लाघव से
निज कौशल दिखलाया
घायल किए सारथी-घोड़े
रथ उसका बिचलाया

‌नारी का शासन

नारी का शासन हुआ, नारी को अभिशाप।
नर-पिशाच करते फिरें, निर्भय होकर पाप।।

लाज नारियों की लुटे, और हरण हों प्राण।
सुप्त-व्यवस्था से वहाँ, मिले न तिल भर त्राण।।

रक्षा वाली ढाल ही, करती जहाँ निढाल।
दुराचार का गढ़ हुआ, अब पश्चिम बंगाल ।।

तमस बना संदीप ही, चुप्पी साधे घोष।
सीमाएँ सब तोड़ दीं, कैसे हो संतोष।।

लुटती-मरती ही गई, असफल निजी उपाय।
लाज-प्राण हरता रहा, दानव संजय राय।।

कृष्ण हमें सिखला गए

‌कृष्ण हमें सिखला गए, निश्छल-निर्मल प्रेम।
अपनों को अर्पण समय, मन में उनकी क्षेम।।

नंगे पैरों दौड़िए, यदि आ जाएँ मित्र।
उनको हृदय लगाइए, रखकर भाव पवित्र।।

‌फिर से कृष्ण

‌फिर से कृष्ण प्रकट हो जाओ।
मुरली की मृदु तान सुनाओ।।

चक्र सुदर्शन फिर से धारो।
दुष्टों को गिन-गिन कर मारो।।

दौड़ द्वारिका से आ जाओ।
द्रौपदियों की लाज बचाओ।।

शुभ प्रस्ताव शांति का लाकर।
युद्धों को रोको अब आकर।।

सज्जन-जन हैं बहुत दुखारी।
हर लो उनकी पीड़ा सारी।।

इतनी मानो विनय हमारी।
भू पर आओ कृष्ण मुरारी।।

सजल

( समांत- अन
पदांत– में
मात्राभार–१४ )

दिवस बीतते उलझन में।
रातें कटतीं अनबन में।।

पग-पग पर कठिनाई है।
कुछ भी सरल न जीवन में।।

नमक मिठाई घी वर्जित।
स्वाद कहाँ है भोजन में।।

मोबाइल में व्यस्त सभी।
चुप्पी है घर-आँगन में।।

शासक भी नतमस्तक हैं।
घर के कड़े प्रशासन में।।

महारथी सब असफल थे।
राम सफल धनुभंजन में।।

कान्हा ने लीलाएँ कीं।
अद्भुत अपने बचपन में।।

लिप्त निरंतर लोभी हैं।
बस धन के आराधन में।।

सोच पश्चिमी सहयोगी।
दुराचार उत्पीड़न में।।

पटी भूमि वीरों से

विचलित हुई उधर कपि-सेना
त्रिशरा के तीरों से
परिघ नाचता देवांतक का
पटी भूमि वीरों से

त्रिशरा पर झपटे बजरंगी
क्रोधित हो किलकाते
गदा सामने कर वाणों की
भीषण मार बचाते

मारी लात वक्ष में उसके
धनुष छीन कर तोड़ा
पटक भूमि पर, गदा घाव से
शीश अचानक फोड़ा

देख अंत उसका क्रोधित हो
देवांतक धर धाया
लिए भयंकर परिघ सामने
जा पहुँचा गुर्राया

खाकर वज्राघात परिघ का
गदा हाथ से छूटी
लाघव से कपि ने बढ़ मारा
मुक्का, नक्की फूटी

गिरा छूट कर परिघ हाथ से
आँखों में तम छाया
टाँग पकड़कर कपि ने उसको
नीचे खींच गिराया

चढ़े वक्ष पर निज घुटने से
कुचला शीश, दहाड़ा
प्राण पखेरू उड़े नखों से
वज्र वक्ष जो फाड़ा

हुआ ध्वंस रक्षों का जूझे
योद्धा कैसे-कैसे
महापार्श्व, देवांतक, त्रिशरा
वीर महोदर-जैसे

वीर नरांतक

विचलित हुए रक्ष जब देखा
वीर नरांतक दौड़ा
उसके भाले से कपि-दल में
मार्ग बन गया चौड़ा

त्राहि-त्राहि मच गई, बिछ गए
वानर अंगद धाए
मारा मुक्का सिर में, दिन में
तारे उसे दिखाए

गिरा चढ़े छाती पर, छीना
कर से उसका भाला
किया प्रहार एक ही पल में
उर विदीर्ण कर डाला

महापार्श्व से उधर भिड़े थे
ऋषभ वीर बलधारी
घुटने के बल टिके, पड़ी जो
चोट गदा की भारी

सँभल, उठ खड़े हुए क्रोध में
शिला-खंड ले धाए
किया प्रहार शीश पर उसके
मरा शीघ्र, हरषाए

उधर महोदर गज पर बैठा
तीक्ष्ण वाण बरसाता
चला आ रहा था कपि-दल को
थर्राता, विचलाता

बढ़कर मारी गदा नील ने
गज उसका चकराया
उछल छीन कर धनुष हाथ से
नीचे उसे गिराया

गुँथे परस्पर भिड़कर दोनों
करते मारामारी
एक-दूसरे पर थे लगते
दोनों पड़ते भारी

तभी अचानक उठा नील ने
सिर के बल दे मारा
हुआ शीश फटकर दो टुकड़े
किया राम-जयकारा

प्रखर ज्ञान

प्रखर ज्ञान-विज्ञान विमर्शी
विकट युद्ध-सेनानी
कुशल धनुर्विद्या-अधिकारी
विगत विजय-अभिमानी

चढ़ विशाल हाथी पर कर में
दुर्ध्दर धनु अवधारे
चला महोदर बना अग्रणी
विपुल सैन्य विस्तारे

त्रिशरा निज रथ पर सवार हो
दौड़ा, जग थर्राया
युद्धोन्मत्त नरांतक गरजा
श्वेत अश्व चढ़ धाया

स्वर्ण-विभूषित परिघ उठाए
देवांतक अतिचारी
भीषण गदा उठाए धाया
महापार्श्व बलधारी

मारामार मच गई रण में
एक-एक से जूझे
भिड़े परस्पर होकर अंधे
कृत्य-अकृत्य न सूझे

वृक्ष, शिला, पर्वत-खंडों को
ले वानर-दल धाया
बड़े-बड़े राक्षस-वीरों को
रण में मार गिराया

रावण के मन में

सुन अधीर रावण के मन में
जगे भाव दृढ़ता के
उठे नरांतक-देवांतक भी
रण-संकल्पित बाँके

रावण-पुत्र अप्रतिम योद्धा
त्रिशिरा भी हुंकारा
चारों भाई गरजे, गूँजा
रक्षों का जयकारा

उठे महोदर-महापार्श्व भी
रावण के दो भाई
रावण-पुत्रों की रक्षा की
दृढ़ सौगंध उठाई

प्रात:काल नवोदित रवि की
रक्तिम लाली छायी
भीषण रक्तपात का जिसमें
पड़ता बिम्ब दिखायी

चले युद्ध-मद-चूर बाँकुरे
वीर रक्ष-सेनानी
विविध शस्त्र-सज्जित रथ आगे
था विशाल गतिमानी

जिसमें था अतिकाय गरजता
बैठा निज धनु धारे
कुम्भकर्ण की प्रतिकृति जैसा
निज काया विस्तारे

 सजल

समांत– अंग
पदांत– हो जाएँ
मात्रा भार– १६

तुम-हम रति-अनंग हो जाएँ।
जीवन संग-संग हो जाएँ।।

सूर्योदय की धूप ओढ़ लें।
अपने सात रंग हो जाएँ।।

पढ़ें मनुजता की परिभाषा।
जग-अनुकूल ढंग हो जाएँ।।

स्वामी होकर भी सेवक हों।
गतिमय अंग-अंग हो जाएँ।।

मन से भागे आपाधापी।
सारे पाप भंग हो जाएँ।।

जनमत जनहित को अपना ले।
नेता स्वयं नंग हो जाएँ।।

कुम्भकर्ण-वध

वाण-बिद्ध सिर कुम्भकर्ण का
पहुँचा राजसभा में
भय,विस्मय, अवसाद छा गया
देख जिसे लंका में

कुम्भकर्ण-वध से अधीर हो
रावण का मन डोला
‘अघटित घटित हुआ यह कैसे’
कातर हो वह बोला–

“कुम्भकर्ण तू नहीं रहा तो
क्या अब युद्ध लड़ूँगा
खोकर तुझ- जैसे भाई को
क्या सुख-भोग करूँगा

नहीं-नहीं ! अब बहुत हो चुका
किसके हित लड़ना है ?”
बोला तब अतिकाय, “पिताश्री !
व्यर्थ शोक करना है

युद्धभूमि में चाचाश्री ने
निज कर्तव्य निभाया
मातृभूमि की रक्षा में जो
अपना प्राण गँवाया

ऐसे वीर सपूतों पर तो
लंका गर्व करेगी
मिली वीरगति धन्य हुए वे
कीर्ति-कांति बिखरेगी

तजें शोक, अनुमति दें मुझको
मैं कल युद्ध करूँगा
रिपु को मार आपके उर का
संशय सकल हरूँगा”

‌राजनीति में

राजनीति में दोहरे, मानदंड हैं व्याप्त।
जनता के दुख इसलिए, होते नहीं समाप्त।।

मुखियाओं से जानकर, कुछ की कुछ बस बात।
दब जाते हैं इस तरह, दुष्टों के उत्पात।।

जनता से कब पूछते, क्या हैं उसके कष्ट।
‘समाधान क्या है कहो’, कैसे हों दुख नष्ट।।

रामांजलि

कृष्णाजी की मधुरिम वाणी,
गाती रामांजलि कल्याणी।
रामचरित अपना ले तो फिर,
धन्य हो उठे मानव प्राणी।।

आषाढ़

कभी तेज रिमझिम कभी, लगातार बरसात।
लगते ही आषाढ़ के, बरस रहा दिन-रात।।

तृप्त हुए हमको लगे, नदिया पोखर झील।
श्याम घने बादल घिरे, गए धूप को लील।।

दुखद सत्संग

जिला हाथरस में हुआ, बहुत दुखद सत्संग।
भीड़ असीमित थी वहाँ, किंतु व्यवस्था भंग।।

तुच्छ व्यक्ति ईश्वर बना, कहता ‘लो पग-धूल’।
इसीलिए भगदड़ मची, यह घटना का मूल।।

गिरकर दबकर मर गए, वहाँ बहुत से लोग।
गाँव फुलरई में हुआ, बड़ा दुखद दुर्योग।।

‘भोले बाबा’ था बना, अति साधारण व्यक्ति।
जानें क्यों कुछ मानते, उसे ईश की शक्ति।।

उसे किसी से था नहीं, रत्ती भर अनुराग।
दुर्घटना के बाद वह, गया वहाँ से भाग।।

सरल ( गीत )

सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
पग-पग पर बाधक होता है,
मानव-मन चंचल होना

कह कर लोग पलट जाते हैं
अनुबंधों से हट जाते हैं
दिए वचन पालन होते हों,
उस धारा से कट जाते हैं
लोग बदलते रहते चोले,
और भरोसे भी तोड़ें
अपनी ही बातों पर सबको,
दुष्कर बहुत अटल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना

सुनें न ‘पर’ की करुण-कहानी
‘निज’ के नहीं नयन में पानी
निजी लाभ के लिए सदा ही,
करते रहते हैं मनमानी
लेना-देना नहीं किसी से,
जिनके मन में स्वार्थ भरा
पर पीड़ा में उनकी आँखें,
संभव नहीं सजल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना

जैसे भीतर वैसे बाहर
दिखते नहीं वही नारी-नर
कृत्य और कुछ होता उनका,
किंतु और कुछ होता मुख पर
अपने-अपने सोच सभी के,
अपने-अपने लोभ बड़े,
सदा असंभव है स्वाभाविक,
सबका मन निर्मल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना

पग-पग पर बाधक होता है,
मानव-मन चंचल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना

माँ ( सजल )

समांत- आरी
पदांत– माँ
मात्रा भार– 14

है साधारण नारी माँ।
सब नातों पर भारी माँ।।

हमें धरा पर ले आई।
देकर जन्म हमारी माँ।।

‘राम-श्याम’ ने सिखा दिया।
होती देव-दुलारी माँ।।

डर ने पथ घेरा अपना।
हमने तभी पुकारी माँ।।

दुग्ध-पान कर शिशु पलते।
सबकी पालनहारी माँ।।

बना दिया घर को मंदिर।
सबसे बड़ी पुजारी माँ।।

मैं अनाथ हो बैठा हूँ।
जबसे स्वर्ग सिधारी माँ।।

डॉ० रामप्रकाश ‘पथिक’
कासगंज( उ.प्र.)

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