आज का काव्यानंद | डॉ० रामप्रकाश ‘पथिक’
चुभे शब्द लक्ष्मण के मन में
चुभे शब्द लक्ष्मण के मन में
उत्प्रेरित हो उठे अतीव
निज कर्तव्य विचारा मन में
उठे, हुआ संकल्प सजीव
बोले गुरु गम्भीर-गिरा में
“प्रण वह पूर्ण करूँगा आज
रावण या फिर राम रहेगा
सुनें धरा-नभ, सकल समाज”
सिद्ध कवच सुरपति का भेजा
धारण कर देवास्त्र निकाल
संकल्पित हो उतरे रण में
काल-रूप बन राम कराल
छिड़ा राम-रावण का रण में
भीषण युद्ध भयंकर घोर
बिँध-बिँध वाणों से गिरते थे
रक्ष और कपि दोनों ओर
छोड़े फिर देवास्त्र राम ने
किए विफल सब उसके वाण
काट धनुष तन जर्जर करके
डाल दिए संकट में प्राण
भीषण वाणों से आहत हो
रावण रथ में गिरा अचेत
रथ को मोड़ सारथी भागा
युद्ध-भूमि से दूर सचेत
देख राम दौड़े लक्ष्मण को
देख राम दौड़े लक्ष्मण को
दे निज बाहों का आधार
खींच निकाला वाण वक्ष से
बहने लगी रुधिर की धार
उधर वाण पर वाण छोड़ता
रावण करने लगा प्रहार
घायल हुआ राम का तन भी
तब सुग्रीव बढ़े ललकार
ले निज दल पाषाण-शिलाएँ
बरसायीं चहुँ दिशि घनघोर
भीत रक्ष आहत हो भागे
“बचो-बचो” का करते शोर
लगा हथेली रोका व्रण को
मस्तक जो सहलाया राम
उठे लखन आँखों को मलते
बोले, “कैसा युद्ध-विराम ?”
कहा राम ने, “मूर्च्छित तुमको
देख विधाता लगा विरुद्ध
सोचा, ‘खोकर तुम्हें बचा क्या’
व्यर्थ बंधु ! फिर कैसा युद्ध ?”
बोले लक्ष्मण, “नहीं आपका
था यह वीरोचित व्यवहार
युद्ध विरत कैसे हो सकते
आप भला यह करें विचार
बंधु नाम यह ‘राम’ आपका
सत्य वचन-पालन-आदर्श
कठिन परीक्षा की घड़ियों में
धीरोदात्त सदैव सुदर्श
अरे ! आपको पूरा करना
प्रण अपना वह अभी अशेष
रावण का वध करें बनाएँ
आज विभीषण को लंकेश”
हुई घोर टंकार धनुष की
हुई घोर टंकार धनुष की
भरा दिशाओं में रव घोर
भीरु हुए भयभीत सुना जो
वीरों के मन उठी हिलोर
थर्रा उठी देख कपि सेना
रावण को सन्नद्ध समक्ष
वीर वेश विकराल गरजता
मानो काल खड़ा प्रत्यक्ष
छोड़े वाण भयंकर भारी
भर कर एक विकट हुंकार
तहस-नहस कर दी कपि-सेना
देख बढ़े लक्ष्मण ललकार
छोड़ा एक वाण दुर्लक्ष्यी
काट धनुष कर दिया निरस्त्र
कर डाली वर्षा वाणों की
आहत रक्ष हुए संत्रस्त
धँसे नुकीले वाण लखन के
तन में रावण हुआ अधीर
हुआ क्रुद्ध ले धनुष दूसरा
कपि दल पर बरसाए तीर
निज लाघव से काट लखन के
वाणों का वह तना वितान
भीषण अट्टहास कर गरजा
रावण कर मन में अभिमान
छोड़ी शक्ति अमोघ मिली थी
जो मयदानव से विकराल
धँसी वक्ष में जा लक्ष्मण के
गिरे मूर्च्छित हो तत्काल
हम सहनशीलता साधे थे : सजल
समांत- अहा
पदांत– नहीं
मात्राभार- १६
कह दिया वही जो कहा नहीं ।
अब कहने को कुछ रहा नहीं।।
हम सहनशीलता साधे थे ।
मत पूछो क्या-क्या सहा नहीं।।
हमने बल बहुत प्रयोग किया।
कष्टों का चट्टा ढहा नहीं।।
भीतर दुख-सिंधु बहुत गहरा।
बाहर नयनों से बहा नहीं।।
रावण के पुतले जलते हैं।
लेकिन रावणपन दहा नहीं।।
उत्कोच-प्रलोभन हमें दिए।
पर हमने कुछ भी गहा नहीं ।।
काल निशा-सी बीती रजनी
काल निशा-सी बीती रजनी
रजनीचर सब विकल अधीर
हुआ प्रात ले भय की लाली
बरस उठे किरणों के तीर
उठा विकल युद्धोन्माद में
आतुर हो बोला लंकेश
वीरो ! सुनो आज होना है
निर्णयकारी युद्ध विशेष
कल का सूर्य नहीं देखेगा
अविजित अब तक है जो राम
प्रण मेरा यह सुनो करूँगा
उन दोनों का काम तमाम
देखें रावण का भुजबल वे
जिससे अब तक हैं अनजान
साथ विभीषण के वे दोनों
करें यमपुरी को प्रस्थान
बजा तूर्य फिर रण-भेरी का
नभ-मंडल में उठा निनाद
हुआ तरंगित मन वीरों का
जाग उठा रण का उन्माद
चले बाँध सिर कफन साथ जो
बचे-खुचे थे योद्धा वीर
‘करो-मरो’ का दृढ़ निश्चय ले
जीवन का तज मोह सुधीर
रथारूढ़ संकल्पबद्ध हो
कालरूप बनकर लंकेश
पहुँचा स्वयं युद्ध को मानो
विकट वीर रस खड़ा अशेष
बसंत- गीत
तन में मन में वन-उपवन में,
सम्मोहन लाने वाला है ।
सखि! बसन्त आने वाला है ।।
भौंरे गुन-गुन कर गायेंगे।
सुमन स्वयं ही खिल जायेंगे।।
सजन लौटकर घर आयेंगे ।।
अधर हमारे मुस्कायेंगे ।।
पिया मिलन का मृदु -आकर्षण,
यौवन पर छाने वाला है ।
सखि! बसन्त आने वाला है ।।
कुहू-कुहू कोयल गायेगी ।
फूलों पर मस्ती छायेगी ।।
मनहर गंध बिखर जायेगी ।
उर में मादकता आयेगी ।।
हृदय हमारा मधुर रागिनी,
हँस-हँस कर गाने वाला है ।
सखि!बसन्त आने वाला है ।।
अपने को तैयार करूँगी ।
उनसे नैना चार करूँगी ।।
पिय-मन के अनुसार करूँगी।
मैं सोलह शृंगार करूँगी ।।
तन-मन स्वयं समर्पित होंगे,
रूप गजब ढाने वाला है ।
सखि!बसन्त आने वाला है ।।
तन में मन में वन-उपवन में,
सम्मोहन लाने वाला है ।।
सखि!बसन्त आने वाला है ।।
सुग्रीव के मुक्के
भीषण मुक्के से फटा भाल
बह चली रक्त की धार लाल
गिर पड़ा निशाचर भीमकाय
भू-शायी हो ज्यों तरु विशाल
बालीसुत का दूसरी ओर
था महापार्श्व से युद्ध घोर
वाणों की खाकर विकट मार
आहत थी तन की पोर-पोर
अत्यधिक क्रोध में भर उछाल
द्रुत परिघि हाथ में ले विशाल
चढ़ रथ पर भीषण किया वार
कट गिरा शीश रुक गई चाल
वानर-सेना की देख जीत
उखड़ी सेना थे रक्ष भीत
सम्मुख निश्चित निज मृत्यु जान
सब चाव युद्ध का गया रीत
रक्षों का साहस हुआ ध्वस्त
भागे रख सिर पर पैर पस्त
पहुँचे, सुन रावण हुआ स्तब्ध
मन ही मन में हो उठा त्रस्त
बुढ़ापे में ( मुक्तक )
मन रखना अपने आपे में।
पग-पग ईश्वर के जापे में।।
अनियंत्रित अनगिन इच्छाएँ,
मत रखना कभी बुढ़ापे में।।
डॉ० रामप्रकाश ‘पथिक’
आदेश मिला
आदेश मिला सिर छत्र धार
चल पड़ा क्रोध में भर अपार
अति उत्तेजित हो विरूपाक्ष
करता पुकार कर मार ! मार !!”
भीषण प्रचंड छिड़ गया युद्ध
टूटा वानर-दल विकट क्रुद्ध
कट-कट वीरों से पटी भूमि
पग रखना तक हो रहा रुद्ध
गर्जता महोदर बार-बार
कर वाणों की वर्षा अपार
विचलित कपि-दल को देख क्रुद्ध
सुग्रीव भिड़े बढ़ दुर्निवार
भरपूर गदा का दिया घाव
सिर फटा युद्ध का मिटा चाव
बढ़ती लौ-सा बुझ गया दीप
हो गया अंत खोया प्रभाव
वध देख महोदर का अधीर
बन विरूपाक्ष ने युद्धवीर
हो उत्तेजित धर काल रूप
छोड़े क्रोधित हो विषम तीर
विंध-निंध कर वानर गिरे ध्वस्त
हो गए बिद्ध नल-नील पस्त
सुग्रीव बढ़े ले शिला-खंड
निज कपि-सेना जो दिखी त्रस्त
हो गया वार निष्फल अपूर्ण
वह बचा कूद, रथ हुआ चूर्ण
मुष्टिका क्रोध में भर अतीव
मारी बढ़ आशय हुआ पूर्ण
आँग्ल नव वर्ष 2025 की हार्दिक शुभकामनाएँ
भोर-सा मुस्कराता नया वर्ष हो।
प्रीति पग-पग पगाता नया वर्ष हो।।
चैन से सो सकें नैन हारे-थके,
साँध्य-लोरी सुनाता नया वर्ष हो।।
प्रेम से पुकारता नवीन वर्ष हो।
नेह से दुलारता नवीन वर्ष हो ।।
पंथ को बुहारता नवीन वर्ष हो ।
आरती उतारता नवीन वर्ष हो ।।
कुछ महारथी जो बचे शेष
कुछ महारथी जो बचे शेष
थे रक्ष-सैऩ्य संबल विशेष
लंका की रक्षा का अतीव
उत्साह लिए उर में अशेष
था विरूपाक्ष दुर्दान्त रक्ष
जो था मायावी युद्ध-दक्ष
ले साथ महोदर, महापार्श्व
बोला रावण के आ समक्ष
किसलिए व्यर्थ चिंतित सभीत
राक्षस-समाज होता प्रतीत
उस तपसी ने होकर हताश
छल से मारा है इंद्रजीत
यज्ञ-स्थल पर उसको निरस्त्र
घेरा छल से ले अस्त्र-शस्त्र
वह सदा-सर्वदा था अजेय
युद्ध-स्थल में सम्मुख सशस्त्र
दें हमको अवसर महाराज !
दें अनुमति रण की हमें आज
ला करें उपस्थित उन्हें बाँध
देखे बल-विक्रम यह समाज “
बोला रावण, “जाओ तुरंत !
तुम तीनों सक्षम हो बलंत
ओ, वत्स महोदर ! महापार्श्व !!
मिलकर दोनों का करो अंत”
बोले राम
बोले राम, “धन्य सुरपति को
हूँ अतिशय आभारी
धन्य उन्होने संकट में जो
स्नेह-शक्ति संचारी
मंगलमय सहयोग आज जो
उनका मुझे मिला है
पा उनका अनुदेश हृदय में
नव ऋतुराज खिला है
शिरोधार्य, स्वीकार्य आपके
ये देवास्त्र सभी हैं
किंतु नीति-सम्मत मत मेरा
श्रीमन ! सुनें, सुधी हैं
माना सत का पंथ कठिन है
किंतु वरेण्य वही है
वनवासी हूँ मैं, पदाति ही
लड़ूँ अभीष्ट यही है
हो न पिता का वचन अन्यथा
सुदृढ़ सत्य सम्भाषी
सत्य वचन-पालन-मर्यादा
रहे, रहूँ वनवासी
हारेगा निश्चित, हारा है
सदा अधर्म विकारी
सत्य-धर्म की विजय अंतत:
होगी मंगलकारी
धर्म-धुरी चढ़ रथ पर सत के
सक्षम युद्ध करूँगा
देव रहें आश्वस्त धरा का
निश्चित भार हरूँगा”
‘विजयी भव !’ कह शस्त्र उन्हें दे
गया, राम मुस्काए
संकल्पित संवेदन मन के
प्राणों में सरसाए
राम साधना-पथ के पंथी
यथालाभ-संतोषी
बने सिद्धि-पथ के अनुगामी
मर्यादा-परिपोषी
राम घिरे स्वजनों से
संध्या के झुटपुट में बैठे
राम घिरे स्वजनों से
भावी की रणनीति कर रहे
निश्चित सुधी जनों से
श्वेत अश्ववाही रथ आता
सहसा पड़ा दिखाई
सज्जित अनुपम देवास्त्रों से
चहुँ दिशि आभा छाई
इंद्र-सारथी मातलि ही था
रथ को लेकर आया
करने को सहयोग राम का
था जो गया पठाया
बोला, “राम आपकी जय हो
भू का भार मिटाओ
रथारुढ़ हो युद्ध करो लो
ये देवास्त्र उठाओ
योगदान इस धर्मयुद्ध में
सुरपति का स्वीकारो
शक्तिमान को पूर्ण शक्ति से
सज्जित हो ललकारो
पौरुष निस्संदेह आपका
है अजेय अविकारी
किंतु दशानन भी दुर्जय है
मायावी अपकारी
शिव का भक्त अनन्य तपस्वी
कृपा-पात्र वरदानी
अनुगत है विजय-श्री जिसकी
अपराजित अभिमानी”
इंद्रजीत-वध
इंद्रजीत-वध देख राम की
क्षमता को पहचाना
तब होकर आश्वस्त इंद्र ने
मन में यह अनुमाना
”व्यर्थ हुआ ब्रह्मास्त्र आज जो
जग को थर्राता था
मेघनाद को ही बस उसका
परिचालन आता था
रावण भी ब्रह्मा से, शिव से
दिव्य अस्त्र था लाया
किंतु नहीं देवास्त्र एक भी
उसको है मिल पाया
दूँ देवास्त्र राम को यदि मैं
रावण मर सकता है
यह सुकृत्य ही अंत अनृत का
संभव कर सकता है
किंतु उचित है शस्त्र उन्हें ये
हम गुपचुप पहुँचाएँ।
डर है ब्रह्मा-शंकर दोनों
सुनकर भड़क न जाएँ”
प्रतिरावण मन में
कर उठा अचानक अट्टहास
‘प्रतिरावण’ मन में अनायास
“बारी तेरी आ गई. बंधु”
बोला, “ऐसा हो रहा भास
क्या अजय नहीं था इंद्रजीत
थे धरा और सुर-पुर सभीत
उस जैसे का हो गया अंत
किसलिए, विचारा कभी मीत !
खा गया बुद्धि-बल अहंकार
मनमानी का बढ़ता प्रसार
स्वजनों की सम्मति लगी शूल
लो, मृत्यु खड़ी आ हुई द्वार”
सुनकर मन की प्रतिकूल बात
हुंकृति भर कर बोला हठात्
“निज बल-पौरुष-वश किया काल
रे शठ ! क्या तुझको नहीं ज्ञात
क्या भूला वह गर्वित अतीत
बन गया दास सुरपति सभीत
मैं ब्रह्मा-शिव का कृपा-पात्र
है मेरी अनुगामिनी जीत
सुर-असुर मनुज गंधर्व गेय
जय-गाथा जग में अप्रमेय
वह रावण मैं हूँ अभी शेष
है शेष खड्ग अविजित अजेय”
निश्चय-पथ पर संकल्पशील
दृढ़ता शंकाएँ रहीं कील
ऊर्जस्वित उर था भरे रोष
हो उठा लाल आकाश नील
कट रहा रक्ष-बल दुर्निवार
कट रहा रक्ष-बल दुर्निवार
होती अनहोनी साधिकार
निर्द्वंन्द्व चढ़ी दोपहर बीच
ग्रस रहा सूर्य को अंधकार
सब हुए काल-घन में विलीन
बन तेजहीन नक्षत्र दीन
हो उठा निराशा में हताश
रावण का मुख पल को मलीन
वे महारथी जिनकी न टेक
पा गए वीरगति एक-एक
वे सब थे वे, पर तू अजेय
‘रावण’ है क्यों चिंतातिरेक?
ओ, मेरे चिर-विक्रम अराल
फैला फन बन जा व्याल काल
ओ मेरे बल-पौरुष अखंड
बुन बड़वानल का विकट जाल
उत्थापित हों लहरें प्रचंड
हों भस्म भीम जल-जीव चंड
हो उथल-पुथल अरि सैन्य-सिंधु
रिपु-गर्व चूर्ण हो खंड-खंड
है अब तो पल-पल असहनीय
प्रतिशोध-कामना ध्वंसकीय
वध करूँ धृष्ट का स्वयं शीघ्र
जो रहा अभी तक अदमनीय’
मिली सूचना, रावण दुख के
मिली सूचना, रावण दुख के
सागर में डूबा-सा
बाँधे था टकटकी शून्य में
चुप, विक्षिप्त हुआ-सा
रोती मंदोदरी, रुदन था
रावण को दहलाता
आर्तनाद गूँजता, कलेजा
उसका मुँह को आता
मेघनाद-पत्नी सुलोचना
हो अधीर बिलखायी
सुनकर छाती फटी गगन की
धरणी भी बिचलायी
रह-रह रावण चिंतित सहेतु
मन में संशय के धूमकेतु
आहत हो वन में विकल सिंह
ज्यों क्रोधातुर प्रतिशोध हेतु
आशंकायुत नैराश्य-रोष
उत्तेजित लंकापति सरोष
अपनी हठधर्मी में विशुद्ध
खोता पल-पल विश्रांति-तोष
‘सुख-दुख के कोमल कटु प्रवाल
चुग! चुग!! रे चल जीवन-मराल
उन्मत्त अहंता में प्रमत्त
कुसुमित-सुफलित वैभव विशाल
सोचा न कभी जो हुआ अंत
क्या से क्या यह हो गया हंत!
अनुमन्य सभी हो रहा व्यर्थ
भावी अविज्ञ ही नित बलंत
पल में
मारामार मच गई पल में
युद्ध छिड़ गया भारी
मेघनाद-लक्ष्मण दोनों ही
भिड़े विकट धनुधारी
मेघनाद दिव्यास्त्र न कोई
भी लेकर आया था
शिरस्त्राण या दिव्य कवच भी
नहीं साथ लाया था
मेघनाद का युद्ध चल रहा
साधारण वाणों का
मंत्रपूत शर थे लक्ष्मण के
संकट था प्राणों का
सराबोर हो गया रक्त में
अवश न कुछ कर पाया
संधाना यम-वाण लखन ने
धड़ से शीश उड़ाया
उड़ा ले गया वाण शीश को
गिरा बीच लंका में
‘सच है या यह कोई माया’
पड़े सभी शंका में
यज्ञागार छोड़कर भागे
सैनिक जान बचाते
जा पहुँचे लंकेश-दुहाई
देते रुदन मचाते
मेघनाद-वध समाचार ने
लंका को दहलाया
गली-गली कुहराम मच गया
प्राणों का भय छाया
चले विभीषण बने अग्रणी
चले विभीषण बने अग्रणी
जाते मार्ग बताते
जा पहुँचे ले कपि-दल-बल को
लक्ष्मण उर उमगाते
मंदिर से थोड़ा पहले ही
रुक रण-नीति विचारी
घेर सैनिकों को बंधन में
लेने की तैयारी
जा समीप फिर मेघनाद का
ध्यान भंग करने की
करके फिर विध्वंस यज्ञ का
क्रोध हृदय भरने की
रक्ष-सैनिकों पर जा टूटे
भल्लु-कीश धर धाए
परिसर के बाहर थे जो भी
बंधक सभी बनाए
लाँघ परिधि अंगद निज दल ले
अंदर पहुँच दहाड़े
तहस-नहस कर यज्ञ-वेदिका
दीप बुझा ध्वज फाड़े
बढ़े यज्ञ-रक्षा में जो भी
उनका वध कर डाला
उसका ध्यान भंग करने को
छीनी कर से माला
उत्तेजित हो उठा क्रोध में
पागल होकर धाया
छीन परिघ रक्षक से झपटा
वानर-दल थर्राया
उसको देख अंगरक्षक भी
उत्साहित हो धाए
द्वार तोड़ तब तक परिसर का
लक्ष्मण भी घुस आए
मंदिर निकुम्भला देवी का
ढला सूर्य लालिमा गगन की
श्यामल हो मुरझायी
तरु-शिखरों पर धीरे-धीरे
विरल कालिमा छायी
मंदिर निकुम्भला देवी का
नभ-चुम्भी-ध्वज वाला
स्वर्ण-कलश चोटी अवधारे
गुम्बद उच्च निराला
आज उसी मंदिर-परिसर में
चहल-पहल-सी छायी
दीवारों पर दीपमालिका
सुंदर गई सजायी
था विशाल रथ मेघनाद का
झाँक रहा कोने से
जगर-मगर था झिलमिल होता
मढ़ा हुआ सोने से
दीर्घकाय वट-वृक्ष बीच में
झूम रहा था भारी
जिसके नीचे यज्ञ कर रहा
मेघनाद अपकारी
चंदन और अबीर-अल्पिता
सजी यज्ञ-वेदी थी
बँधा यूप से बलि-पशु जिसकी
सुंदर सज्जा की थी
सस्वर मंत्रोच्चारण करके
बैठा आहुति देता
पुनः लीन हो जाता जप में
नेत्र बंद कर लेता
बोले राम
बोले राम “भला क्या ऐसा
करना उचित रहेगा
‘मारा घेर निहत्थे को’ क्या
जग ऐसा न कहेगा ?”
बोले, “ध्वंस यज्ञ कर पहले
उसको क्रोध दिलाएँ
युद्ध हेतु उत्तेजित करके
बढ़ ललकार लगाएँ
सुन कपियों के दुर्वचनों को
उन पर टूट पड़ेगा
छोड़ अधूरा यज्ञ बीच में
उनसे स्वयं भिड़ेगा
बढ़कर उसका मार्ग बीच में
डट कर रोका जाए
यों उससे प्रत्यक्ष रूप से
युद्ध वहाँ छिड़ जाए
अंगरक्षकों के शस्त्रों को
ले तब युद्ध करेगा
लड़कर साधारण शस्त्रों से
निश्चित सहज मरेगा”
युक्ति विभीषण की सुन सहसा
लक्ष्मण आगे आए
बोले, “भइया ! मैं जाऊँगा”
सुना, राम हरषाए
स्वयं विभीषण चले साथ में
बजरंगी बलधारी
अंगद-जामवंत धर धाए
ले कपि-दल-बल भारी
भेद हृदय के खोले
उधर सूचना गुप्तचरों से
मिली विभीषण बोले
आतुर विकल राम के आगे
भेद हृदय के खोले
“मेघनाद दिव्यास्त्र न कोई
साथ वहाँ लाया है
केवल अंग-रक्षकों को ले
यज्ञ हेतु आया है
पहले दिन ब्रह्मास्त्र बिना ही
जब लड़ने आया था
लक्ष्मण के असह्य वाणों ने
उसको विचलाया था
पराभूत जब उसने अपना
मरण सुनिश्चित माना
‘शक्तिवाण’ दिव्यास्त्र बाध्य हो
उन पर था संधाना
उस दिन उस पर शक्ति न होती
क्या वह फिर कर पाता?
लक्ष्मण के हाथों तब उसका
अंत वहीं हो जाता
शस्त्ररहित वह निकुम्भला के
मंदिर में आया है
उचित यही अवसर है उसका
काल वहाँ लाया है
चलकर लाभ उठाएँ उसकी
इस असावधानी का
करें आक्रमण शीघ्र अंत हो
त्रासद अभिमानी का”
मेघनाद हरषाया
मूर्च्छित देख राम-लक्ष्मण को
मेघनाद हरषाया
निकल यंत्र से, भर उमंग में
वध करने को धाया
निकला बाहर, बढ़ा खड्ग ले
शीश काटने ज्यों ही
उछल दबोचा जामवंत ने
बढ़ पीछे से त्यों ही
छीन खड्ग मारा छाती में
कसकर लात जमायी
असहनीय खा चोट गिरा जो
भू पर मूर्च्छा आयी
उसके प्राण देख संकट में
भीत रक्ष धर धाए
टूटे जामवंत पर उनको
खींच दूर ले आए
डाल सारथी रथ में उसको
ले पहुँचा लंका में
डरा-डरा रावण के भय से
डूबा आशंका में
देख दुर्दशा मेघनाद की
उखड़ी सेना भागी
लज्जित हुआ पिता के आगे
ज्यों ही मूर्च्छा जागी
सोचा उसने निकुम्भला के
मंदिर में बलि दूँगा
मारण-सिद्धि-मंत्र-जप करके
विधिवत् यज्ञ करूँगा
चला, साथ चल पड़े वीर जो
रहे अंग-रक्षा में
मंदिर में कर विधिवत् पूजा
बैठ गया शाला में
मेघनाद के सेनापतित्व में
हुआ प्रात छा गई लालिमा
उगा सूर्य जलता-सा
धधक रहा प्रतिशोध-अग्नि का
या भीषण गोला-सा
बजी दुंदुभी रण-भेरी का
शब्द गगन पर छाया
किया रक्ष-बल ने जयकारा
सुन कपि-दल थर्राया
चली रक्ष-सेना उमगाती
रण-मद में इतराती
इंद्रजीत की छत्र-छाँह में
निर्भय पाँव बढ़ाती
संचालित ब्रह्मास्त्र, छूटते
जिससे शस्त्र घनेरे
दुसह, अमोघ, अकाट्य रहे जो
इंद्रजीत के प्रेरे
मेघनाद उस गूढ़ यंत्र में
बैठा प्रलय मचाता
था अदृश्य बस अट्टहास था
उसका गगन गुँजाता
परिघ, शूल, असि, वाण युद्ध में
क्रुद्ध रक्ष बरसाते
भल्लु-कीश भट आहत हो-हो
रण में बिछते जाते
था ब्रह्मास्त्र अभेद्य, न उसका
कोई कुछ कर पाता
खंडित होता स्वयं शस्त्र जो
था उससे टकराता
भारी शिला-खंड, तरु, शाखें
कपि-दल जो बरसाता
खंड-खंड होते प्रहार सब
कुछ भी काम न आता
व्यर्थ हुए सब वाण, विवश हो
स्तम्भित दोनों भाई
गिरे बद्ध हो नागपाश में
तत्क्षण मूर्च्छा आई
आविष्कृत ब्रह्मास्त्र अनोखा
आविष्कृत ब्रह्मास्त्र अनोखा
जो ब्रह्मा से पाया
जिसके बल पर बाँध इंद्र को
इंद्रजीत कहलाया
पुन: उसी को लेकर रण में
कल मैं युद्ध करूँगा
रह अदृश्य मारूँगा सबको
निश्चित विजय करूँगा
जो भी हैं दिव्यास्त्र, दिए जो
शंकर ने, ब्रह्मा ने
चाहे कल वे सारे मुझको
रण में पड़ें चलाने
दोनों का वध कर संकट का
सूर्य अस्त कर दूँगा
त्यागें शोक, मुझे अनुमति दें
कल मैं बदला लूँगा
सुन रावण ने अति सुख माना
बढ़कर कंठ लगाया
हो आश्वस्त कहा, ‘विजयी हो !’
मन में अति हरषाया
बोला, “पुत्र ! भूल मत करना
जीवित छोड़ न देना
मृत्यु सुनिश्चित दोनों की ही
शीश काट कर देना”
धन्यमालिनी माता
मरा पुत्र अतिकाय सुना तो
“क्या यह हुआ विधाता !”
छाती पीट-पीट कर रोई
धन्यमालिनी माता
लगी कोसने पति रावण को–
“मन में खुशी मना ले
सारे पुत्रों को मरवा दे
तू सीता को पा ले”
विचलित रावण नतसिर बैठा
भरे अश्रु नयनों में
देख रहा प्रत्यक्ष सत्य जो
था उसके वचनों में
मौन शोक-सागर में डूबा
देखा दग्ध पिता को
मेघनाद ने, लौटा था जो
देकर अग्नि चिता को
होकर दुखी पिता के दुख से
भरा क्रोध में बोला–
“प्रलय मचा दूँगा कल रण में”
सुन नभ-जल-थल डोला
“हों निश्चिंत पिताश्री ! मैं हूँ
कल देखें बल मेरा
करूँ अंत लंका से उखड़े
शंका-भय का डेरा
खीझ उठा अतिकाय
खीझ उठा अतिकाय विफल हो
दिव्य वाण संधाना
धँसा वक्ष में जा लक्ष्मण के
कठिन हुआ सह पाना
बाएँ कर से खींच निकाला
पल को मूर्च्छा आई
रक्त बह चला जिसने उनकी
क्रोध-अग्नि भड़काई
छोड़ा महाकाल शर, धड़ से
उसका शीश उड़ाया
दो वाणों से चल-कबंध भी
खंडित किया गिराया
मरा देख अतिकाय भीत हो
उखड़ी सेना सारी
रहा सफल संघर्ष लखन थे
मन में हर्षित भारी
देख अंत आसुरी शक्तियाँ
थमीं सफल सम्भावी
सम्मुख कठिन साधना का था
पंथ अवश्यम्भावी
रथ उसका बिचलाया
विचलित हुई रक्ष-सेना जो
बढ़ अतिकाय गुमानी
ले अपना रथ आगे आया
गरज उठा अभिमानी
स्वर्ण रत्न-मणि-मंडित भारी
दिव्य कवच अवधारे
काल-रूप साक्षात् लग रहा
निज भीषण धनु धारे
धनु-टंकार किया वाणों की
वर्षा-सी कर डाली
दल के दल कपि गिरे, रक्त की
छायी भीषण लाली
देख भयातुर वानर-दल को
लक्षमण बढ़कर आए
किया घोर टंकार कुपित हो
सघन वाण बरसाए
काट वाण उसके, लाघव से
निज कौशल दिखलाया
घायल किए सारथी-घोड़े
रथ उसका बिचलाया
नारी का शासन
नारी का शासन हुआ, नारी को अभिशाप।
नर-पिशाच करते फिरें, निर्भय होकर पाप।।
लाज नारियों की लुटे, और हरण हों प्राण।
सुप्त-व्यवस्था से वहाँ, मिले न तिल भर त्राण।।
रक्षा वाली ढाल ही, करती जहाँ निढाल।
दुराचार का गढ़ हुआ, अब पश्चिम बंगाल ।।
तमस बना संदीप ही, चुप्पी साधे घोष।
सीमाएँ सब तोड़ दीं, कैसे हो संतोष।।
लुटती-मरती ही गई, असफल निजी उपाय।
लाज-प्राण हरता रहा, दानव संजय राय।।
कृष्ण हमें सिखला गए
कृष्ण हमें सिखला गए, निश्छल-निर्मल प्रेम।
अपनों को अर्पण समय, मन में उनकी क्षेम।।
नंगे पैरों दौड़िए, यदि आ जाएँ मित्र।
उनको हृदय लगाइए, रखकर भाव पवित्र।।
फिर से कृष्ण
फिर से कृष्ण प्रकट हो जाओ।
मुरली की मृदु तान सुनाओ।।
चक्र सुदर्शन फिर से धारो।
दुष्टों को गिन-गिन कर मारो।।
दौड़ द्वारिका से आ जाओ।
द्रौपदियों की लाज बचाओ।।
शुभ प्रस्ताव शांति का लाकर।
युद्धों को रोको अब आकर।।
सज्जन-जन हैं बहुत दुखारी।
हर लो उनकी पीड़ा सारी।।
इतनी मानो विनय हमारी।
भू पर आओ कृष्ण मुरारी।।
सजल
( समांत- अन
पदांत– में
मात्राभार–१४ )
दिवस बीतते उलझन में।
रातें कटतीं अनबन में।।
पग-पग पर कठिनाई है।
कुछ भी सरल न जीवन में।।
नमक मिठाई घी वर्जित।
स्वाद कहाँ है भोजन में।।
मोबाइल में व्यस्त सभी।
चुप्पी है घर-आँगन में।।
शासक भी नतमस्तक हैं।
घर के कड़े प्रशासन में।।
महारथी सब असफल थे।
राम सफल धनुभंजन में।।
कान्हा ने लीलाएँ कीं।
अद्भुत अपने बचपन में।।
लिप्त निरंतर लोभी हैं।
बस धन के आराधन में।।
सोच पश्चिमी सहयोगी।
दुराचार उत्पीड़न में।।
पटी भूमि वीरों से
विचलित हुई उधर कपि-सेना
त्रिशरा के तीरों से
परिघ नाचता देवांतक का
पटी भूमि वीरों से
त्रिशरा पर झपटे बजरंगी
क्रोधित हो किलकाते
गदा सामने कर वाणों की
भीषण मार बचाते
मारी लात वक्ष में उसके
धनुष छीन कर तोड़ा
पटक भूमि पर, गदा घाव से
शीश अचानक फोड़ा
देख अंत उसका क्रोधित हो
देवांतक धर धाया
लिए भयंकर परिघ सामने
जा पहुँचा गुर्राया
खाकर वज्राघात परिघ का
गदा हाथ से छूटी
लाघव से कपि ने बढ़ मारा
मुक्का, नक्की फूटी
गिरा छूट कर परिघ हाथ से
आँखों में तम छाया
टाँग पकड़कर कपि ने उसको
नीचे खींच गिराया
चढ़े वक्ष पर निज घुटने से
कुचला शीश, दहाड़ा
प्राण पखेरू उड़े नखों से
वज्र वक्ष जो फाड़ा
हुआ ध्वंस रक्षों का जूझे
योद्धा कैसे-कैसे
महापार्श्व, देवांतक, त्रिशरा
वीर महोदर-जैसे
वीर नरांतक
विचलित हुए रक्ष जब देखा
वीर नरांतक दौड़ा
उसके भाले से कपि-दल में
मार्ग बन गया चौड़ा
त्राहि-त्राहि मच गई, बिछ गए
वानर अंगद धाए
मारा मुक्का सिर में, दिन में
तारे उसे दिखाए
गिरा चढ़े छाती पर, छीना
कर से उसका भाला
किया प्रहार एक ही पल में
उर विदीर्ण कर डाला
महापार्श्व से उधर भिड़े थे
ऋषभ वीर बलधारी
घुटने के बल टिके, पड़ी जो
चोट गदा की भारी
सँभल, उठ खड़े हुए क्रोध में
शिला-खंड ले धाए
किया प्रहार शीश पर उसके
मरा शीघ्र, हरषाए
उधर महोदर गज पर बैठा
तीक्ष्ण वाण बरसाता
चला आ रहा था कपि-दल को
थर्राता, विचलाता
बढ़कर मारी गदा नील ने
गज उसका चकराया
उछल छीन कर धनुष हाथ से
नीचे उसे गिराया
गुँथे परस्पर भिड़कर दोनों
करते मारामारी
एक-दूसरे पर थे लगते
दोनों पड़ते भारी
तभी अचानक उठा नील ने
सिर के बल दे मारा
हुआ शीश फटकर दो टुकड़े
किया राम-जयकारा
प्रखर ज्ञान
प्रखर ज्ञान-विज्ञान विमर्शी
विकट युद्ध-सेनानी
कुशल धनुर्विद्या-अधिकारी
विगत विजय-अभिमानी
चढ़ विशाल हाथी पर कर में
दुर्ध्दर धनु अवधारे
चला महोदर बना अग्रणी
विपुल सैन्य विस्तारे
त्रिशरा निज रथ पर सवार हो
दौड़ा, जग थर्राया
युद्धोन्मत्त नरांतक गरजा
श्वेत अश्व चढ़ धाया
स्वर्ण-विभूषित परिघ उठाए
देवांतक अतिचारी
भीषण गदा उठाए धाया
महापार्श्व बलधारी
मारामार मच गई रण में
एक-एक से जूझे
भिड़े परस्पर होकर अंधे
कृत्य-अकृत्य न सूझे
वृक्ष, शिला, पर्वत-खंडों को
ले वानर-दल धाया
बड़े-बड़े राक्षस-वीरों को
रण में मार गिराया
रावण के मन में
सुन अधीर रावण के मन में
जगे भाव दृढ़ता के
उठे नरांतक-देवांतक भी
रण-संकल्पित बाँके
रावण-पुत्र अप्रतिम योद्धा
त्रिशिरा भी हुंकारा
चारों भाई गरजे, गूँजा
रक्षों का जयकारा
उठे महोदर-महापार्श्व भी
रावण के दो भाई
रावण-पुत्रों की रक्षा की
दृढ़ सौगंध उठाई
प्रात:काल नवोदित रवि की
रक्तिम लाली छायी
भीषण रक्तपात का जिसमें
पड़ता बिम्ब दिखायी
चले युद्ध-मद-चूर बाँकुरे
वीर रक्ष-सेनानी
विविध शस्त्र-सज्जित रथ आगे
था विशाल गतिमानी
जिसमें था अतिकाय गरजता
बैठा निज धनु धारे
कुम्भकर्ण की प्रतिकृति जैसा
निज काया विस्तारे
सजल
समांत– अंग
पदांत– हो जाएँ
मात्रा भार– १६
तुम-हम रति-अनंग हो जाएँ।
जीवन संग-संग हो जाएँ।।
सूर्योदय की धूप ओढ़ लें।
अपने सात रंग हो जाएँ।।
पढ़ें मनुजता की परिभाषा।
जग-अनुकूल ढंग हो जाएँ।।
स्वामी होकर भी सेवक हों।
गतिमय अंग-अंग हो जाएँ।।
मन से भागे आपाधापी।
सारे पाप भंग हो जाएँ।।
जनमत जनहित को अपना ले।
नेता स्वयं नंग हो जाएँ।।
कुम्भकर्ण-वध
वाण-बिद्ध सिर कुम्भकर्ण का
पहुँचा राजसभा में
भय,विस्मय, अवसाद छा गया
देख जिसे लंका में
कुम्भकर्ण-वध से अधीर हो
रावण का मन डोला
‘अघटित घटित हुआ यह कैसे’
कातर हो वह बोला–
“कुम्भकर्ण तू नहीं रहा तो
क्या अब युद्ध लड़ूँगा
खोकर तुझ- जैसे भाई को
क्या सुख-भोग करूँगा
नहीं-नहीं ! अब बहुत हो चुका
किसके हित लड़ना है ?”
बोला तब अतिकाय, “पिताश्री !
व्यर्थ शोक करना है
युद्धभूमि में चाचाश्री ने
निज कर्तव्य निभाया
मातृभूमि की रक्षा में जो
अपना प्राण गँवाया
ऐसे वीर सपूतों पर तो
लंका गर्व करेगी
मिली वीरगति धन्य हुए वे
कीर्ति-कांति बिखरेगी
तजें शोक, अनुमति दें मुझको
मैं कल युद्ध करूँगा
रिपु को मार आपके उर का
संशय सकल हरूँगा”
राजनीति में
राजनीति में दोहरे, मानदंड हैं व्याप्त।
जनता के दुख इसलिए, होते नहीं समाप्त।।
मुखियाओं से जानकर, कुछ की कुछ बस बात।
दब जाते हैं इस तरह, दुष्टों के उत्पात।।
जनता से कब पूछते, क्या हैं उसके कष्ट।
‘समाधान क्या है कहो’, कैसे हों दुख नष्ट।।
रामांजलि
कृष्णाजी की मधुरिम वाणी,
गाती रामांजलि कल्याणी।
रामचरित अपना ले तो फिर,
धन्य हो उठे मानव प्राणी।।
आषाढ़
कभी तेज रिमझिम कभी, लगातार बरसात।
लगते ही आषाढ़ के, बरस रहा दिन-रात।।
तृप्त हुए हमको लगे, नदिया पोखर झील।
श्याम घने बादल घिरे, गए धूप को लील।।
दुखद सत्संग
जिला हाथरस में हुआ, बहुत दुखद सत्संग।
भीड़ असीमित थी वहाँ, किंतु व्यवस्था भंग।।
तुच्छ व्यक्ति ईश्वर बना, कहता ‘लो पग-धूल’।
इसीलिए भगदड़ मची, यह घटना का मूल।।
गिरकर दबकर मर गए, वहाँ बहुत से लोग।
गाँव फुलरई में हुआ, बड़ा दुखद दुर्योग।।
‘भोले बाबा’ था बना, अति साधारण व्यक्ति।
जानें क्यों कुछ मानते, उसे ईश की शक्ति।।
उसे किसी से था नहीं, रत्ती भर अनुराग।
दुर्घटना के बाद वह, गया वहाँ से भाग।।
सरल ( गीत )
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
पग-पग पर बाधक होता है,
मानव-मन चंचल होना
कह कर लोग पलट जाते हैं
अनुबंधों से हट जाते हैं
दिए वचन पालन होते हों,
उस धारा से कट जाते हैं
लोग बदलते रहते चोले,
और भरोसे भी तोड़ें
अपनी ही बातों पर सबको,
दुष्कर बहुत अटल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
सुनें न ‘पर’ की करुण-कहानी
‘निज’ के नहीं नयन में पानी
निजी लाभ के लिए सदा ही,
करते रहते हैं मनमानी
लेना-देना नहीं किसी से,
जिनके मन में स्वार्थ भरा
पर पीड़ा में उनकी आँखें,
संभव नहीं सजल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
जैसे भीतर वैसे बाहर
दिखते नहीं वही नारी-नर
कृत्य और कुछ होता उनका,
किंतु और कुछ होता मुख पर
अपने-अपने सोच सभी के,
अपने-अपने लोभ बड़े,
सदा असंभव है स्वाभाविक,
सबका मन निर्मल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
पग-पग पर बाधक होता है,
मानव-मन चंचल होना
सबकुछ कर लो सरल, स्वयं का,
सबसे कठिन सरल होना
माँ ( सजल )
समांत- आरी
पदांत– माँ
मात्रा भार– 14
है साधारण नारी माँ।
सब नातों पर भारी माँ।।
हमें धरा पर ले आई।
देकर जन्म हमारी माँ।।
‘राम-श्याम’ ने सिखा दिया।
होती देव-दुलारी माँ।।
डर ने पथ घेरा अपना।
हमने तभी पुकारी माँ।।
दुग्ध-पान कर शिशु पलते।
सबकी पालनहारी माँ।।
बना दिया घर को मंदिर।
सबसे बड़ी पुजारी माँ।।
मैं अनाथ हो बैठा हूँ।
जबसे स्वर्ग सिधारी माँ।।
डॉ० रामप्रकाश ‘पथिक’
कासगंज( उ.प्र.)
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