Essay Criminalization of politics a threat to Indian democracy

निबंध – राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए एक खतरा

राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र के लिए एक खतरा : निबंध

( Criminalization of politics a threat to Indian democracy : Essay in HIndi)

 

देश की राजनीति को स्वच्छ बनाने का अभियान तभी सफल बन सकता है जब हमारे राजनीतिक दल दागदार लोगों को चुनाव में प्रत्याशी के रूप में न उतारे। यह तभी संभव है जब सर्वोच्च अदालत द्वारा दिए गए संदेश को लागू करने के लिए चुनाव आयोग को अधिकार संपन्न बनाना होगा।

आपराधिक रिकॉर्ड वाले संसद सदस्यों, विधायकों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के बारे में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का दूरगामी परिणाम हो सकता है।

देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सख्त बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त संदेश दिया है। केंद्र सरकार और प्रमुख राजनीतिक दलों को इस निर्णय पर अत्यंत परिपक्व और संतुलित प्रतिक्रिया देना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था की वैधता को तकनीकी आधार पर नजरअंदाज कर राजनीतिक पार्टियों में लगभग आम राय बन गई है। राजनीतिक प्रतिष्ठा अपराधियों और राजनेताओं के बीच बढ़ती मिलीभगत और काले धन के प्रभाव की समस्या को सुलझा यह इनकार करता रहा है।

10 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 8(4) को रद्द करते हुए धारा 8(3)के प्रावधान को लागू कर दिया है। इस कानून के तहत किसी भी अपराध के लिए 2 साल की कैद से दंडित व्यक्ति को चुनाव लड़ने के अधिकार पर रोक लगा दी गई है तथा पात्रता निर्धारित की गई है।

कानून की धारा 8 (4) पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सजा के बाद आप पात्रता से संबंधित है अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमों की पेंडिंग होने की वजह से आरोपी द्वारा जानबूझकर नया प्रक्रिया में देरी करने से अधिकतम कदमों में सजा नहीं मिल पाती है।

जस्टिस वर्मा कमेटी ने जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(1)(ए) में संशोधन का प्रस्ताव दिया था। इसके तहत भारतीय दंड संहिता के तहत आने वाले अपराधों को शामिल करने का प्रस्ताव दिया गया था।

ऐसे में गंभीर अपराधों के लिए जिसमें 5 वर्षीय या उससे अधिक की सजा का प्रावधान है को परिभाषित करने का प्रस्ताव, जेल में बंद लोगों के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक का आदेश कानूनी तौर पर दिया था। लेकिन शासन में व्याप्त अनैतिकता के संदर्भ में उसका जबरदस्त दुरुपयोग संभव है।

सत्ता सरकारी मशीनरी का भारी दुरुपयोग पुलिस का राजनीतिकरण और आपराधिक न्याय प्रणाली के एकदम दुरुस्त न होने की वजह से फैसला कठोर मालूम पड़ता है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की संवैधानिक नैतिकता से तो मेल खाती है। लेकिन राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण को देखते हुए इसकी न्यायिक समीक्षा करना जरूरी हैम

निष्कर्ष तौर पर यह कहा गया है कि जनप्रतिनिधित्व कानून पर गौर करते हुए अदालत से राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान फैसले की परिभाषा का दुरुपयोग किए जाने की अनजाने में अनदेखी की गई है।

साल 2012 में भ्रष्टाचार विरोधी कार्टून बनाने के लिए कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी कानून का दुरुपयोग करने का एक उदाहरण था।

विकसित देशों में चुनाव के दौरान वित्तीय लाभ पहुंचाने से संबंधित सभी वायदों की मीडिया संयंत्र के स्तर पर और टेलीविजन की बहस में समीक्षा होती है। लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता। भारत में राजनीतिक दल चुनावी रैलियां की होड़ में लगे रहते हैं।

अगर इमानदारी से संबंधित प्रावधानों को लागू कर दिया जाए तो वोट बैंक को आकर्षित करने वाले राजनीतिक दल काम नहीं करेंगे न ही इनकी विघटनकारी राजनीति कामयाब हो सकेगी।

महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीति को साफ सुथरा बनाने का अभियान तभी संभव हो सकता है जब राजनीतिक दल आपराधिक रूप से दागदार लोगों को चुनाव के दौरान प्रत्याशी न बनाएं। देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा दिए गए संदेश को लागू करना चुनाव आयोग के लिए जरूरी है।

ऐसा करने से ही देश से भ्रष्टाचार और अपराधीकरण से निजात मिल पाएगी। अपराधी राजनेता के बचाव के लिए प्रसिद्ध वकील, राजनेताओं, सांसदों की हमारे देश में कमी नहीं है।

25 सितंबर 2018 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य फैसले में कहा कि वकील सांसद या विधायक वकालत भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्णकालिक लोक सेवक नहीं माने जा सकते।

जब कि हम सब जानते हैं कि तथाकथित अपराधी संसद के मुख्य द्वार से ही नहीं चोर दरवाजे से भी प्रवेश करते रहे हैं। जब संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के सम्मान में सुरक्षा कवच की तरह खड़ी हो तो राजनीति को अपराधीकरण से आखिर कैसे बचाया जाए।

सर्वोच्च न्यायालय का लोक प्रहरी मामले में एक और नया फैसला न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा खानविलकर धनंजय चंद्रचूड़ा के मामले में आया। दोष सिद्ध पर स्टे से सांसद सदस्यता बहाल हो सकती है।

अपराधियों के बचाव के लिए हमारे देश में अक्सर राजनीतिक व्यवस्था आड़े आती है और आती रहेगी। सरकार संसद और राजनीतिक दलों को अपनी अपनी व्यवस्था भी है और उनकी अपनी सीमाएं भी है। सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी सीमा नहीं लांध सकता है।

आगामी चुनाव में भारतीय समाज की मूल चिंता यही है कि पूंजी, धर्म, अपराध और राजनीति के अटूट बंधन कब और कैसे खत्म होंगे।

लेखिका : अर्चना  यादव

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