Fiji me Hindi
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बिहार की मिट्टी में जन्में ‘डॉ. राजेश कुमार माँझी’ का नाम गिरमिटिया लेखन के लिए साहित्य में एक जाना पहचाना नाम है। आप उप निदेशक ( राजभाषा) इलेक्ट्रॉनिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय भारत सरकार में भी कार्यरत रहे हैं वर्तमान में आप दिल्ली के जामिया मिल्लिया में हिन्दी अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं ।

इस पुस्तक से पहले भी डॉ राजेश माँझी की कई मौलिक व संपादक के रूप में पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं हैं। “गिरमिटीया भारतवंशी” नाटक, ‘नदी के आस-पास’,’नून तेल’ इत्यादि पुस्तकों ने साहित्य जगत में अपना एक अलग स्थान स्थापित किया है।

संपादक के रूप में ‘उन्मुक्त परिंदे’, ‘गीत किसने गया’, ‘स्वामी विवेकानंद का भारत’, ‘कलम आज उनकी जय बोल’,‘फ़ीजी में हिन्दी: विविध आयाम’ को भी साहित्य जगत में सराहना प्राप्त हुई है ।

संपादक के रूप में डॉ राजेश कुमार माँझी की “फ़ीजी में हिन्दी: विविध आयाम “ पाँचवीं व महत्वपूर्ण पुस्तक है। जैसा कि इस पुस्तक के नाम से ही विदित होता है यह पुस्तक फ़ीजी देश में भारतीय प्रवासी किसानों व मज़दूरों के आगमन का वहाँ रहकर जिजीविषा के लिए संघर्ष,विषम परिस्थितियों में अपनी संस्कृति, सभ्यता और अपने अस्तित्व को बनाएँ रखने के साथ-साथ अपनी भाषा हिन्दी को आज तक जीवित रखना व उसे अधिकारीक रूप में वहाँ स्थापित करने और वर्तमान में फ़ीजी में हिन्दी भाषा के विस्तृत आयाम को दर्शाती है ।

हॉल ही में फ़ीजी ने अपना 154 वॉं गिरमिट स्मृति दिवस मनाया है। इसलिए भी यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण पुस्तक बन जाती है। इस पुस्तक में गिरमिटिया भारतीयों के जीवन की और भारत से दूर एक नया भारत बसाने की कहानी , मेहनत,और उनके अटूट विश्वास व आस्था के बारे में अलग अलग दृष्टिकोण से जानने और पढ़ने को मिलेगा। मेरे लिए इस पुस्तक को पढ़ना और भी ज़रूरी था क्योंकि मैं स्वयं एक गिरमिटिया परिवार से संबंध रखती हूँ।

इस पुस्तक का आमुख भारत में फ़ीजी के उपायुक्त श्री कमलेश प्रकाश जी ने लिखा है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सदस्य सचिव श्री सच्चिदानन्द जोशी जी की शुभकामनाएँ व इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकण्टक (मध्य प्रदेश) के कुलपति प्रो.श्री प्रकाश त्रिपाठी जी का अभिमत प्राप्त हुआ है।

डॉ राजेश कुमार माँझी ने जैसा की उन्होंने उनके संपादकीय जिसे उन्होंने नाम दिया है-“अतीत से सीखकर अतीत पर गर्व “ में लिखा है इस पुस्तक को लिखने और संपादित करने की प्रेरणा उन्हें “ दिल्ली में फ़ीजी उच्चायोग के गिरमिटिया स्मृति दिवस पर भारत में नियुक्त फ़ीजी के उपायुक्त श्री कमलेश प्रकाश जी से प्राप्त हुई ।

डॉ राजेश कुमार माँझी की यह पुस्तक समर्पित है-उन भारतवंशियों को जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी फ़ीजी में भारतीय सभ्यता-संस्कृति को समृद्ध करने में अपना अहम योगदान दिया है। सर्व भाषा ट्रस्ट प्रकाशन से यह पुस्तक प्रकाशित है
इस महत्वपूर्ण पुस्तक में 29 लेखों का संकलन लाने का यह प्रथम प्रयास है।

जिसमें विशेष बात यह है कि इस पुस्तक के लिए दस फ़ीजी के लेखकों ने सहयोग दिया है।जिन साहित्य मनीषियों, साहित्यकारों,भारतीय राजनायिकों,शिक्षाविदो ने अपने लेखन से योगदान दिया हैं।

उनमें डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा,डॉ.जवाहर कर्नावत डॉ.विवेकानंद शर्मा,डॉ.हरीश नवल,श्री अनिल जोशी, डॉ.शैलजा सक्सेना ,भावना सक्सेना,डॉ .दीपक पाण्डेय, डॉ. मनीषा रामरखा,प्रोफ़ेसर हरिमोहन, डॉ. नूतन पाण्डेय,डॉ. सुनीता वर्मा, डॉ.कमल किशोर मिश्र,डॉ.सुनंदा वर्मा , डॉ. सुभाषिनी लता कुमार, डॉ.श्रद्धा दास, डॉ.सरिता देवी चंद,धीरा वर्मा, डॉ.राकेश पाण्डेय, डॉ.नरेश चन्द्र,सुएता दत्त चौधरी,रोहिणी लता कुमार,श्यामला कुसुम चंद,दीप्ति अग्रवाल व शर्मिला चंद हैं ।

इस पुस्तक में फ़ीजी में वाचिक परंपरा के साक्ष्य गिरमिट गीत,रामायण और भारतीय संस्कृति,हिन्दी साहित्य,हिन्दी और हिन्दुस्तानी संस्कृति भारतीयता और भारतीय साहित्य के माध्यम से ‘ भारतभाव’ के प्रभाव,फ़ीजी के राष्ट्र कवि पं.कमला प्रसाद मिश्र,पं.प्रताप चंद मिश्रा और पं. विवेकानंद शर्मा के योगदान पर लिखे लेख शामिल डॉ राजेश कुमार माँझी की यह पुस्तक चार खंडों में विभाजित है । पहला खंड फ़ीजी का गिरमिट इतिहास और संघर्ष-गाथा को बताता है।

दूसरा खंड- फ़ीजी का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य के विषय में विस्तार से जानकारी देता है।तीसरे खंड में-फ़ीजी में हिन्दी शिक्षण-प्रशिक्षण के विषय में वहाँ के विद्यालयों की शिक्षा पद्धति के विषय में प्रकाश डालता है ।

चौथे खंड में -फ़ीजी की सभ्यता-संस्कृति एवं विविध प्रसंग में आपको भारत से दूर बसे एक छोटे भारत के विषय में वहाँ की सांस्कृतिक ,धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

1879 से 1920 तक भारतवर्ष से गन्ने के खेतों तथा चीनी मिलों में काम करने के लिए भारतीय किसान व मज़दूर यहाँ लाए गये। यह काल उस समय के भारतीय प्रवासियों या गिरमिटिया प्रवासी भारतीयों के लिए शोषण, उत्पीड़न एवं निराशा का काल था। इन्हें इंसान कम ,पशु अथवा गुलामों से भी गिरे हुए रूप में औपनिवेशिक मालिकों देखा। उनका व्यवहार भी अधिकांशतः अमानुषिक,क्रूर,अत्याचार तथा अन्यान्य पूर्ण था।

भावना सक्सेना जी ने फ़ीजी के गिरमिट संघर्ष-गाथा के वाहक व फ़ीजी गिरमिटिया इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान सीखने वाले “पं. तोताराम सनाढय” के विषय में बहुत विस्तार पूर्वक गहन जानकारी अपने लेख के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाई है।

उन्होंने अपने लेख की शुरुआत में कुछ पंक्तियों को कोट करते हुए कहा है-“यदि किसी मनुष्य में थोड़ा भी ह्रदय हो तो संसार में सबसे अधिक कष्टदायक और विषादोत्त्पादक दृश्य फ़ीजी की कुली लेन को देखना है।

फ़ीजी के पादरी श्री जे.डब्लूबर्टन के इन शब्दों महात्मा गाँधी और भारत के अधिकारियों व जन सामान्य तक पहुँचाकर फ़ीजी में गिरमिट प्रथा की समाप्ति का सूत्रपात करने का श्रेय पं. तोताराम सनाढय को ही जाता है। पं.तोताराम सनाढय द्वारा लिखित पुस्तक “फ़ीजी में मेरे 21 वर्ष “ गिरमिट काल का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।

श्री अनिल जोशी जी ने अपने लेख “ गिरमिट प्रथा की समाप्ति भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम “ में गिरमिटिया प्रथा के इतिहास के बारे में बताते हुए इस प्रथा के समाप्त होने तक के विषय में विस्तार से जानकारी दी है।

अपने लेख में उन्होंने गोपाल कृष्ण गोखले के कुछ शब्दों द्वारा इस प्रथा पर असहमति दिखाई है— “गोपाल कृष्ण गोखले के 4 मार्च 1912 को लेजिसलेटिव कॉउंसिल में कहें इन शब्दों-सरकार कुछ भी कहे ,इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा सरकार की सहमति और भागीदारी से कभी की समाप्त हो गई होती।

इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ से गिरमिट मज़दूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है?इसके बाद “ गिरमिट प्रथा के विरोध में स्वर ऊँचा करने वाले वाले अन्य लोगों का भी जैसे महात्मा गाँधी, , पं.तोताराम सनाढय, आदि का उल्लेख किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि सन 1917 में औपचारिक रूप से गिरमिटिया प्रथा समाप्त हो गई।

लोकगीत मूलतः मानव मन के प्रतिबिंब होते हैं। प्रायः जो बातें हम स्पष्ट रूप से कह नहीं पाते वह हम गीतों, कविताओं के माध्यम से बहुत सहज व सुंदर रूप से व्यक्त कर सकते हैं। लोकगीतों में व्यक्ति की विभिन्न मानसिक दशाओं का बड़ा सहज व उन्मुक्त चित्रण होता है।

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए डॉ धीरा वर्मा ने अपने आलेख-फ़ीजी “में प्रवासी भारतीय जब फ़ीजी गए उस समय वह अपने साथ भारतीसंस्कृति,भाषा,परंपरागत गीत,मान्यताओं को अपने साथ ले जाने का ज़िक्र अपने लेख में किया हैं ।

उस समय कि विषम परिस्थितियों में जो उनके पीड़ित मन के उद्गार उनके गीतों में दिखाई देते हैं। उन्होंने इन गीतों का उदाहरण देते हुए उस समय की समकालीन कवयित्री अमरजीत कौर की कविता “गिरमिटिया “ के कुछ अंश
प्रस्तुत किये हैं- न हमारा कोई भइया-भाभी,
न हमारी कोई बिटिया ।
न ज़र- जोरू,न कोई बहना,
न भेजें कोई चिठिया,
फ़ीजी में जब आए के देखा
जीवन हो गया मोहरा ।
गिर कर भी जो न मिटे न लोगो,
उसे कहते हैं गिरमिटिया ।

गिरमिटिया गीत प्रवासी भारतीयों की आशा और निराशा के गीत हैं । इन गीतों में उनके परिश्रम की सौंधी ख़ुशबू आती है ।इनमें इनके संघर्ष का स्वर है और मन की करुण अभिव्यक्ति है।

फ़िजी में सृजनात्मक हिन्दी का इतिहास भी उतना ही पुराना है जितना कि वहाँ रहने वाले प्रवासी गिरमिटिया भारतीयों का इतिहास।जब पहले प्रवासी ने वहाँ पग रखा होगा उसी के साथ हिन्दी भाषा का वहाँ आगमन हुआ। क्योंकि फ़ीजी ले जाएँ जाने वाले अधिकांश भारतीय हिन्दी भाषी क्षेत्रों से ही थे इसलिए हिन्दी वहाँ अधिकारीक रूप से स्थापित हो गई।

डॉ विमलेश कान्ति ने अपने लेख में फ़ीजी के सृजनात्मक लेखन को तीन खंडों में विभाजित करने की बात लिखी है।फ़ीजी में कई लेखक व कवि हुए हैं जिनमें पं.तोताराम सनाढय, काशी राम कुमुद,कवि सुखराम,अमरजीत कौर, भरत वी. मॉरिश,पं.कमला प्रसाद मिश्र,और रामदेव धुरेंदर के नाम प्रसिद्ध है ।

श्यामला कुसुम चंद जी ने अपने लेख में फ़ीजी के विद्यालयों में हिन्दी भाषा की शिक्षा कक्षा एक से कक्षा तेरह तक मान्य है। यह शिक्षा निःशुल्क है। डॉ. सुभाषिनी लता कुमार जी ने फ़ीजी में रामायण संस्कृति के प्रभाव की बात की है।

प्रभावी भारतीयों ने जहाँ एक तरफ़ परदेस को अपनी कर्मभूमि बनाया वहीं दूसरी और अपनी भाषा और संस्कृति की ध्वजा भी सबसे ऊँची लहराई है। फ़ीजी में भी लोग राम चरित्त मानस के अनुरूप ही अपने धर्म और नियमों का पालन करते हैं ।

यूँ तो गिरमिटिया मज़दूरों या फ़ीजी पर अनेक पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं,फिर भी मैं यह कहना चाहूँगी कि डॉ राजेश कुमार माँझी ने अपनी इस पुस्तक को एक छोटी से पुष्प गुच्छ का रूप दिया है।

जिसमें एक से एक बेहतरीन पुष्पों को सजा कर इस पुस्तक में उनके लेख की सुगंध को समाहित कर इस पुस्तक को विशेष पुष्प गुच्छ का रूप दिया है ।

यह पुस्तक सिर्फ़ पुस्तक की दृष्टि से ही नहीं बल्कि शोधकर्ताओं के लिए भी बहुत उपयोगी पुस्तक सिद्ध होने वाली है। इस पुस्तक द्वारा फ़ीजी देश में सिर्फ़ भारतीय संस्कृति के बारे में ही नहीं अपितु वहाँ की अपनी संस्कृति ,भाषा, भूगोल की जानकारी है।

यदि संपादन की दृष्टि से देखें तो डॉ राजेश कुमार माँझी ने अपना कार्य बहुत ही ईमानदारी से किया है सभी तथ्यों को समझ कर इस पुस्तक में लिखा है। इस पुस्तक में सभी लेखों में सरल हिन्दी का प्रयोग किया गया है।

लेखकों के लेखन के स्त्रोतों को भी इस पुस्तक में स्थान दिया गया है। कहीं कहीं इस पुस्तक में कई लेखकों के लेखन में विषय समानता देखने को भी मिलती है।

पुस्तक में प्रवासी भारतीयों के लोक गीत, कविताएँ दोहें आदि इस पुस्तक को रोचक बनाते हैं। यह पुस्तक गिरमिटिया संस्कृति के बार में बहुत सहायक सिद्ध होगी।अंत मैं इतना ज़रूर कहना चाहूँगी कि डॉ राजेश कुमार माँझी की यह पुस्तक साहित्य में मील का पत्थर साबित होगी ।

शुभकामनाओं सहित

डॉ ऋतु शर्मा नंनन पांडे
भारत की बेटी सूरीनाम की बहूँ
व नीदरलैंड की निवासी
संपर्क सूत्र-📱031-0622252508
[email protected]

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