Van Gaman novel book review
Van Gaman novel book review

वन गमन- एक अनुभूति

 पुस्तक समीक्षा

( Van Gaman Novel : Book Review )

 

साहित्य भूमि प्रकाशन नई दिल्ली से 2022 में प्रकाशित वन गमन श्री गोवर्धन यादव का संभवतः प्रथम वृहत संग्रह है , जिसने 171 पृ‍ष्ठों में विस्तार पाया है. जिनमे दो भूमिका आलेख एवं लेखकीय प्रतिवेदन सम्मिलित है.

वन गमन- भगवान् राम की कथा है और उन्होंने एक पत्नी व्रत लिया था, इस नाते श्री गोवर्धन यादवजी द्वारा अपनी स्वर्गीय पत्नी श्रीमती शकुन्तला यादवजी को पुस्तक समर्पित करना निःसंदेह उनकी भावनाओं की श्रेष्ठ एवं सुन्दर अभिव्यक्ति है, जो बेहद खुबसूरत एवं प्रशंसनीय है .

जहां एक ओर भगवान् राम अवतारी मानव थे तो वहीं भगवान् कृष्ण को भी यही दर्जा प्राप्त है. वन गमन भगवान् राम के जीवन के एक कालखंड को चित्रित करती है और चित्रण करने वाले स्वयं गोवर्धन (कृष्ण का पर्यायवाची नाम) और उसपर सोने पे सुहागा यादव हैं तो कौन कथा की सुगमता, सरलता,सच्चाई ,ईमानदारी ,विश्वास और दृष्टिकोण पर प्रश्न चिन्ह लगाएगा?

भगवान् राम का जितना पारदर्शी व्यक्तित्व है उतना ही गोवर्धन यादवजी का सीधा एवं सरल प्रस्तुतीकरण संप्रे‍षणीयता में इसे और सुगम बनाता है .

वन गमन, सर्वविदित वही पृ‍ष्ठभूमि है जिसमें भगवान के राज्याभिषेक की तैयारी के साथ घटते घटनाक्रम समाहित हैं . जिसकी परिणिति भगवान के अयोध्या से गमन और चित्रकूट पहुँचने तक की रोचक प्रस्तुति है. परिवर्तन जीवन का अभिन्न अंग हैं और उस होने वाले परिवर्तन को जान पाना साधारण मानव के वश में नहीं, लेकिन भगवान राम तो स्वयं अवतारी मानव थे.

पृथ्वी पर अवतरण उनका सहज नहीं सोद्धेश्य था. ऐसे में होनेवाले सभी धटनाक्रम एक सुनियोजित योजना का हिस्सा लगते हैं जिनका सफल एवं कुशल संचालन विधाता द्वारा किया जा रहा था और भगवान इससे अनभि‍ज्ञ हो ऐसा मानना लघुतम सोच को परिलक्षित करता है.

पुस्तक में गोवर्धन यादवजी इस लघुतम सोच का परित्याग करते दिखते हैं. वे बलपूर्वक अपनी असहमति दर्शाते हैं कि मंथरा जैसी दासी की समझ एवं पहुँच के बाहर की यह बात है कि वे कैकेई जैसी वीरांगना की मतिभ्रष्ट कर सके.कथावस्तु का आधार यही है या यूँ कहें कथा का यही केंद्र बिंदु है.

यूँ तो विभिन्न घटनाक्रम को समाहित किये हुए यह पुस्तक चित्रकूट पर विश्राम करने लगती है, लेकिन मुझे लगता है की पूरी पुस्तक में केवल एक रात की ही कथा है. वह रात, जिसमें समय का ऐसा चक्र चला जिसने एक अनोखा इतिहास रचा, जो अमर हो गया. एक रात में होने वाले व्यवस्था के परिवर्तन पर आधारित सुप्रसिद्ध लेखक चाणक्य सेन का उपन्यास “मुख्यमंत्री” याद आ गया, जिसमें एक मुख्यमंत्री को दूसरे दिन अपना बहुमत सिद्ध करना है और उस रात जो जोड़तोड़, राजनीति एवं हठधर्मिता का चित्रण चाणक्य सेन ने किया है, लगभग उसी तरह गोवर्धन यादव ने भी एक रात के उन रहस्यों को अपने अनोखे अंदाज में उजागर करने का प्रयास किया है, जिसमें तात्कालिक स्थितियों और उनसे उपजे सभी प्रश्नों की प्रस्थापना एवं समाधान के लिए किये गए राजनैतिक और कूटनीतिक क्रियाकलाप सम्मिलित हैं.

महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण हो या गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस दोनों का प्रभाव जनमानस पर बहुत गहरा है. महर्षि वाल्मीकि समकालीन होने के कारण उनकी प्रस्तुति में स्वाभाविकता एवं वास्तिविकता की सुन्दर अभिव्यक्ति है, जबकि तुलसीदासजी भगवान राम के अनन्य उपासक एवं भक्त थे, तो स्वाभाविक रूप से उनकी प्रस्तुति में श्रद्धा भक्ति की प्रचुरता है.

रामजी की वाल्मीकि जी से भेंट का लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक में उल्लेख किया है. चित्रकूट में प्रवेश के बाद भगवान राम महर्षि वाल्मीकिजी से जो कहते हैं वह देखने में तो साधारण वार्तालाप लगता है, लेकिन जाने कितने अर्थों को अपने आप में समाहित किये हुए है.

रामजी वाल्मीकिजी से कहते हैं- ” हे महाभाग आपने तो काफी समय पूर्व ही मेरे लिए पटकथा लिख दी है. राम उसके अनुसार सफल अभिनय भी कर रहा है . मैं आपके इस पवित्र पावन पर्णकुटी से कुछ दूरी पर रहकर निवास करना चाहता हूँ .

वसंत ऋतु के चलते चित्रकूट इस समय मुझे बड़ा ही मनभावन लग रहा है. इस स्थान पर आकर मै अपने सारे संताप भूल चुका हूँ. अतः आप मुझे यहीं निवास करने की आज्ञा प्रदान करें” (पृष्ट क्रमांक 159) भगवान् राम के विराट व्यक्तित्व एवं चरित्र की थाह पाना मानव मात्र के लिए संभव नहीं है.

व्यक्तित्व की सरलता जितनी उल्लेखनीय है वहीं उसकी विशालता हर किसी को अचंभित कर देती है. इसीलिए मानव मात्र को यह अटूट श्रद्धा से भर देता है. विभिन्न भाषाओं में अनेकानेक ग्रन्थ, टीकाएँ , आलेख आदि जाने कितना ही विपुल भण्डार उपलब्ध है.

न जाने कितने कथा वाचक राम महिमा का बखान प्रति दिन करते हैं. इन सब के होते हुए वन गमन के रूप में एक और प्रस्तुति लेकर आना श्री गोवर्धन यादव का निश्चित ही एक सराहनीय, प्रशंसनीय या यूँ कहें की साहसिक कदम है .

एक स्वाभाविक प्रश्न पाठकों के मन में उठता है कि जब इतना प्रचुर साहित्य भगवान राम की महिमा में उपलब्ध है, तो ऐसा क्या है जो वन गमन के माध्यम से लेखक पाठकों तक पहुँचाना चाहता हैं?. निसंदेह यह विचारणीय है.

देखा जाए तो आज विभिन्न माध्यमों ( दृश्य एवं श्रव्य ) से जितनी भी कथाएँ हम तक पहुँच रही हैं, मुझे लगता है उन सब में आधारभूत ग्रन्थ रामायण, राम चरित्र मानस और उत्तर रामायण ही हैं .”हरी अनंत हरी कथा अनंता” कोई यदि आधार माने तो हर लेखक जब अपनी प्रस्तुति देता है तो निश्चित ही दृष्टिकोण का अंतर, वैचारिक पृष्ठभूमि, प्रस्तुति में विभिन्नता हर प्रस्तुति को नया स्वरुप प्रदान करती है. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण होता है पाठकों की स्वीकार्यता.

लेखक की सफलता पाठकों की स्वीकार्यता पर निर्भर करती है और जो पाठक को रोचक प्रस्तुति से आकर्षित करता है. पाठक की पसंद भी वही बनता है. गोवर्धन यादवजी का यही प्रयास वन गमन में घनीभूत होते दिखता है. चिरपरिचित घटनाओं की अनुभूति का यह बदलाव पाठक को निसंदेह पसंद आयेगा.

पुस्तक को पढ़ते समय मुझे दो बातें विशेषरूप से उल्लेखनीय लगीं. पहली- वृहत एवं तार्किक विश्लेषण साथ ही दूसरी- तब के वातावरण, प्रकृति की नेसर्गिकता और उनका तत्कालीन स्थितियों पर पड़नेवाला प्रभाव. इस सबमें लेखक की परिमार्जित सोच एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने इसे ज्यादा प्रभावी एवं उल्लेखनीय बना दिया है.

सुक्ष्तम विश्लेषण में जब भगवान् राम, लक्ष्मणजी एवं सीताजी को चित्रकूट में महर्षि, देवर्षि , ऋषि ,मुनि ,संत, महात्मा, साधू , योगी और सिद्ध की परिभाषा को स्पष्ट करते हैं तो यह पूरा संवाद महत्वपूर्ण बन पड़ता है .

यह निश्चित ही युवा पाठकों के ज्ञानवर्धन में उपयोगी साबित होगा (पृ‍ष्ठ क्रमांक 152-153). यहाँ लेखक का गहन अध्ययन भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है .

लेखक का मानना है की वन गमन एक यात्रा है. यात्रा का पर्याय है और यह यात्रा अकारण नहीं सोद्देश्य है, जिसमें देश को जानना, देश को पहचानने की आकांक्षा की प्रमुखता दृष्टिगोचर होती है .यात्रा की विशेषता यह है कि इसमें लक्ष्य का निर्धारण करने के बाद, नीति निर्धारण किया गया और उसे व्यवस्थित करने लिए यह दर्शाया गया कि जैसे सब कुछ अव्यवस्थित है, जबकि वास्तिविकता इस दर्शाए गए चित्र से सर्वथा परे थी और यही परिस्थिति की सुन्दरता थी या यूँ कहें की सौन्दर्यपूर्ण पारिस्थितिक अभिव्यक्ति एवं क्रियान्वयन का अनूठा उदाहरण जन-जन तक पहुँचाने की चेष्टा लेखक द्वारा की गई है .

गोवर्धन यादवजी ने जिस तरह तथ्यात्मक विश्लेषण के साथ घटनाक्रम में धार्मिक, आध्यात्मिक , वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश किया है, वह प्रशंसनीय है. पुस्तक का प्रारम्भ ही उन्होंने अयोध्या के वैभव से किया लेकिन इसकी अक्षुणता के लिए उन्हें अयोध्या के भविष्य की भी चिंता ने आ घेरा .कान के पास आये सफ़ेद बालों की झलक एक युग की समाप्ति का संकेत देने लगे तथा नए युग को अभिलेखित करने की प्रेरणा भी.

मुझे लगता है यदि इसे सही अर्थों में समझा जाए तो यह केवल सता का हस्तांतरण नहीं बल्कि दशा एवं दिशा का निर्धारण भी था. चक्रवर्ती राजा को लगने लगा कि यही उपयुक्त समय है, जब सत्ता का हस्तांतरण उचित है. शायद यही सोच केंद्र में हो कि परिवर्तन विकास के नए मानदंड स्थापित कर सकता है.

दरअसल महाराज दशरथ की उस समय की सोच भावी राजनैतिक परिदृश्य के लिए एक दिशा निर्धारण थी. लेकिन समय कहीं कुछ और ही अपने अंतर में छुपाये हुए था. तभी तो तमाम तुलनात्मक अध्ययन के बाद निर्णीत भगवान् राम को होने वाले पारिस्थितिक एवं चारित्रिक परिवर्तन ने प्रभावित कर दिया, क्या इसे बदला जा सकता था?

यदि हाँ तो फिर यह संभव क्यों नहीं हुआ और यदि नहीं बदला जा सकता था तो यह नियति थी और नियति चक्र जिसके निर्देशों से संचालित एवं नियंत्रित होती है उसका नाम है विधाता. कहते हैं होनी को टाला नहीं जा सकता. केवल उसके प्रतिकूल प्रभाव को कम ही किया जा सकता है, जिस तरह इस संसार में जो भी आया है उसका प्रारब्ध सुनिश्चित है.

वह उसे भोगना ही पडेगा. अच्छे कर्म केवल उसकी तीव्रता को कम करते हैं और उस प्रारब्ध को सहन करने की शक्ति प्रदान करते हैं . इसलिए यदि देखा जाए तो हम भगवान् राम को अवतारी मानव से परे साधारण मानव भी समझें, तो यह उनका प्रारब्ध ही होगा, जिसने उन्हें राजपाट से दूर वन गमन करा दिया .

लेखक ने यही स्पष्ट करने का प्रयास किया है की यह वन गमन जन कल्याण ,सामाजिक उत्थान की भावना से किया गया सुनियोजित प्रयास है क्योंकि यदि यह नहीं होता तो फिर शोषित वर्ग की मुक्ति कैसे होती? .लेखक का निश्चित रूप से इस हेतु ये एक सफल प्रयोग है .

राम कथा में हमेशा यह प्रश्न उठाता है कि कैकई जैसी माता, जिसने हमेशा भरत से ज्यादा राम पर अपना वात्सल्य छलकाया, वह अचानक इतनी निर्दयी, निष्ठुर कैसे हो सकती है? जिसे न जन भावना का ख्याल होगा, ना ही पारिवारिक परिस्थितियों का .

कहते हैं त्रिया चरित्र को भगवान भी नहीं समझ पाए, तब भी सामान्य सोच इस बात पर सहमत नहीं होगी की बिना किसी पूर्व पृष्ठभूमि के कैकेई की समझ इतनी विध्वंसक कैसे हो गई?

कोई परिवर्तन अकस्मात् नहीं आता, लेकिन राम के वन गमन की घटना अकस्मात् ही सामने आती है. सुबह राज्याभिषेक है और रात्रि के अंतिम प्रहर में यह निर्णय होता है कि राम वन गमन करेंगे. कहीं ना कहीं सहज और स्वाभाविक रूप से ग्राह्य नहीं होता.

ऐसी क्या बात थी जिसने कैकेई को खलनायिका का स्वरुप पाने में भी असहज नहीं किया . मुख्य रूप से यही वह घटनाक्रम था जिसने गोवर्धन यादवजी को मजबूर किया कि वे इस विषय पर अपने ढंग से घटनाक्रम के उस पक्ष पर अपनी लेखनी चलायें, जिसे सामान्य रूप से अभिव्यक्त नहीं किया गया .

जैसे-जैसे यादवजी की कलम इस घटनाक्रम का सर्वथा अलग चित्रण करते हुए आगे बढती है, उनकी लेखनी की सच्चाई पर विश्वास मजबूत होते जाता है .

दो महान ग्रन्थ रामायण और महाभारत जिसमें दो विशिष्ट चरित्र थे जिनको वास्तव में वो सम्मान नहीं दिया गया जिनके वे हकदार थे. रामायण में कैकई और महाभारत में कर्ण.

सुप्रसिद्ध साहित्यकार शिवाजी सावंत नें अपने बहुचर्चित उपन्यास मृत्युन्जय में कर्ण की सर्वथा अलग एवं तार्किक प्रस्तुति दी. मुझे लगता है की वन गमन में गोवर्धन यादवजी ने कैकेई का भी ऐसा ही चरित्र चित्रण किया है, जिसे पढ़ते हुए लगता है की कैकेई कितनी महान थी जिन्होंने यह जानते हुए कि जो कुछ उन्हें करने के लिए कहा जा रहा है यदि उन्होंने किया तो कोई उन्हें माफ़ नहीं करेगा. उनका अपना पुत्र उनका विरोधी हो जाएगा.

इतिहास उन्हें सदैव स्वार्थी, निर्दयी, निष्ठुर के रूप में कलंकित करेगा. फिर भी उन्होंने ऐसा किया. यह चित्रण बरबस उस दूरदृष्टि को केंद्र में रख कर किया गया प्रतीत होता है,जहां जन कल्याण पर निहित स्वार्थ की भावना सर्वोपरि लगती है और खूबसुरती यह कि दिखे स्वार्थ पर अंतर्निहित हो जनकल्याण .

राम कैकेई संवाद को तथ्यात्मक रूप से लेखक ने इस पुस्तक में जिस तरह से प्रस्तुत किया है ,वह उनकी लेखकीय श्रेष्टता को प्रदर्शित करती है, जहां उन्होंने राम द्वारा एक आभासी संसार का निर्माण करते हुए अपने मंतव्य से माता कैकई को ना केवल अवगत कराया बल्कि सहमत भी कराया .लेखक कहते हैं “ माते मैं आपकी शरण में आया हूँ.

कृपाकर आप मुझे इस चक्रव्यूह से बाहर निकालें. केवल और केवल आप ही यह उपक्रम कर सकती हैं दूसरा कोई नहीं.” ( पृष्ट 44 ).

“माते आप मेरे लिए चौदह साल का वनवास और भरत के लिए राज्याभिषेक का वर मांग लीजिये ….बस यही एकमेव रास्ता बचता है मेरे लिए – राम ने कैकई से कहा.” ( पृष्ट क्रमांक 45 )
कैकेई ने इसे सहज स्वीकार नहीं किया उन्होंने भी इसका विरोध किया था जिसका सामान्यतः उल्लेख नहीं मिलता है- “राम ये क्या कह रहे हो तुम –तुमने ये कैसे सोच लिया की कैकई ऐसा भी कर सकती है ? क्या वह सत्ता के लालच में इतना गिर सकती है ?

जिस राम को उसने अपने बेटे से ज्यादा स्नेह दिया लाड़-प्यार दिया, दुलार दिया, उसके लिए यह सब कैसे मांगे .”( पृष्ट क्रमांक 45 ) कोई भी माँ अपनी संतान के लिए यह सब नहीं कर सकती और शायद यही कैकेई का प्रतिरोध भी था लेकिन जब राम ने यह कहा की यह आवश्यक है.

इसमें जगत कल्याण छुपा है तो ही कैकई ने अपनी सहमति दी .लेखक कहता हैं “ माते एक सामान्य मनुष्य भी यही सोचेगा जैसा की आप सोच रही हैं , राम की माता होने के नाते आप को इतना छोटा नहीं सोचना चाहिये .

हम जो इस चलते फिरते संसार को देख रहे हैं यह मात्र एक सपने के सद्रश्य है . समय बदलते ही द्रश्य भी बदल जाते हैं .हम सब इतिहास का हिस्सा बन जायेंगे हम आज हैं कल कोई और रहेगा. यदि कोई बच रहेगा तो केवल देश और सनातन धर्म ही बच रहेगा.”( पृष्ट क्रमांक 46 ) प्रसंगवश आगे राम कहते हैं – “ रावण के बढ़ते अत्याचार से धरती काँप रही है. सारे देवगण उसके आतंक से भयभीत होकर यहाँ वहां छिपकर रहने के लिए विवश हैं .

यदि उस दुष्ट का संहार नहीं हो सका तो इस धरती पर दानव ही दानव होंगे – मानवता समूल नष्ट हो जायेगी आपके इन दो वरदानों में संसार का कल्याण छिपा है .

अतः माते अपने मन मस्तिष्क से क्षुद्र विचारों को बाहर निकाल दें और जनकल्याण की भावना से आगे आयें” .” ( प्रष्ट क्रमांक 46 ) लेखक ने एक अंधियारे पक्ष को अपनी लेखनी के माध्यम से प्रकाशवान किया है, जिसमें कैकई के सर्वविदित चरित्र को एक अलग स्वरुप प्रदान किया, जो इस वन गमन के माध्यम से चारित्रिक विशेषता के वास्तिविक रूप को जन-मानस तक पहुँचाने का सघन प्रयास है.

जिस घटनाक्रम ने इतिहास बना दिया, जिसने कैकई जैसी माता को कलंक के अंधियारे पथ में धकेलकर बदनाम कर दिया, उसी कैकई के चरित्र के उजले पक्ष को जन-जन तक पहुँचाने का प्रशंसनीय कार्य लेखक ने किया है.

लेखक ने अपने बुद्धिचातुर्य का प्रदर्शन करते हुए जब उन्होंने, राम के द्वारा आभासी संसार सृजित कर, कैकई- राम संवाद के माध्यम से, इस पूरे सांसारिक मायाजाल की रचना की , यह तात्कालिक परिस्थितियों में समय की मांग थी, वरना संसार का स्वरुप कुछ और ही होता, जो शायद सृष्टी का सर्वाधिक दुरूह काला अध्याय होता जिसमें सृष्टि से सभी सद्गुणों का समापन हो जाता.

वन गमन की रचना के पीछे लेखक श्री गोवर्धन यादवजी का जो मंतव्य मुझे समझ में आया कि वह इस बात को आम जन तक पहुँचाना चाहते थे कि कैकई दरअसल विधाता द्वारा रचित योजना के क्रियान्वयन की सशक्त माध्यम थी, लेकिन जिस ढंग से परिस्थिति की अनिवार्यता थी, कैकई ने सहज तमाम दुरुहता , दुर्गमता , एवं अपमान के साथ इसे स्वीकारा .

उनकी इसी चारित्रिक विशेषता की तमाम अपमानजनक कालिख को पोंछकर उसे उज्जवल बनाने का प्रयास लेखक ने किया है.. लेखक की इसी सोच ने इस चरित्र को परिमार्जित कर उज्जवल एवं उत्कृष्ट बना दिया. उज्जवल बनाने की प्रबल इच्छाशक्ति के अंतर्गत किया गया लेखक का यह प्रयास उल्लेखनीय है .

यदि भगवान् राम दोनों वरदान लागू ना करवाते तो वे सीमित दायरे में कैद हो जाते. एक राजा के रूप में अयोध्या ही उनका कार्यक्षेत्र बन जाता जो उनके अवतारी होने के प्रमुख उद्धेश्य को ही समाप्त कर देता . इन दो वरदानों ने , जो कैकई ने हठपूर्वक लागू करवाये उसने ही राम को उन्हें इतना वृहत केनवास प्रदान किया.

दुसरे शब्दों में कहा जाए तो जनमानस की नज़रों में राम को राम बनाने का कार्य इसी माध्यम से पूर्ण हुआ. ल्रेखक ने इसी भावना का वन गमन में खुलकर समर्थन किया ,जिसने उनकी विकेन्द्रित दृष्टि को हर पहलू, हर घटना के साथ न्याय करने हेतु उत्साही बनाए रखा .

पुस्तक की एक विशेषता और है जो पाठक को हर क्षण, हर घटना से जोड़े रखने में सफल हो पाती है, वह है स्थिति के साथ उस समय के वातावरण का मनभावन चित्रण, प्रकृति की सुन्दर मनभावन प्रस्तुति, काल परिवेश से सीधे पाठक को जोड़ देती है. लेखक ने प्रकृति का जो सुन्दर चित्रण किया है वह इस प्रकार है “ सूर्यास्त का समय हो चला था. आकाश में घिरा कुहासा अब धीरे धीरे छटने लगा था. शीतल पवन मंद-मंद गति से प्रवाहमान होने लगी थी.

पौधों पर ऊग आईं कलियाँ जो अब तक लाज के मारे घूँघट काढ़े हुई थीं, अपनी मादक सुगंध को बिखराते हुए खिलने लगी थीं. भ्रमर जो अब तक अलसाया पड़ा था, आनंद मगन हो, मकरंद चुराने के लिए निकल पडा था .

सरोवर का जल जो अब तक ठहरा हुआ था हिलोरें लेने लगा था.चिड़ियों के समूह और अन्य पक्षियों के दल अपनी-अपनी बोलियों में चह्चहाते हुए तथा ऊँची ऊँची उड़ान भरते हुए सामूहिक गाने गाकर, अपने आराध्य सूर्यदेव की अगवानी में निकल पड़े थे .

शाखामृग कब पीछे रहने वाले थे. वे कभी इस डाली से उस डाली पर, तो कभी किसी अन्य डालियों पर उछल-कूद मचाने लगे थे. दाना पानी की तलाश में बगुलों के दल निकल पड़े थे. सारी सृष्टि जो अबतक अलसाई-सी सोई पड़ी थी, प्रमुदित होकर मुस्कुराने लगी थी .” (प्रष्ट क्रमांक 25)
एक और बानगी इस तरह ” चित्रकूट पर्वत पर बड़ा ही रमणीय स्थल है इस पर्वत पर लंगूर, वानर और रीछ निवास करते हैं.

बहुसंख्यक फल-मुलों से संपन्न. बड़ी संख्या में हिरणों के झुण्ड यहाँ वहां विचरते ,उछलते कूदते देखे जा सकते हैं . वहां पवित्र मन्दाकिनी नदी, अनेकानेक जल स्त्रोत ,पर्वत शिखर ,गुफाएं, कंदराएं तथा छल-छल के स्वर निनादित करते मन भावन झरने भी देखने मिलिंगें.जमीन पर घोंसला बनाकर रहने वाला पक्षी टीटीटुम (टिटहरी), पिविटीया (हरी चिड़िया भी कहते हैं)और स्वर साधिका कोकिला के मधुर कूक भी मनोरंजन करेंगे (पृष्ट क्रमांक 154 ).

पुस्तक पर विहंगम दृष्टि डालते हुए यदि समग्रता पर केन्द्रित करें, तो निसंदेह यह गोवर्धन यादवजी की एक उत्तम कृति है जिसमें सम्पूर्ण राम चरित्र मानस के एक अंश ,वन गमन पर केन्द्रित होकर उस विलक्षण घटना के मूल में छिपे उन गूढ़ार्थों को उजाकर करने का सफल प्रयास किया गया है, जिसके द्वारा राम को सृष्टि उद्धारक के अनूठे रूप में प्रस्तुत कर उन्हें सर्वमान्य अलौकिक स्वरुप क्यों मिला उसका तार्किक चित्रण उसे सारगर्भित प्रासंगिकता से जोड़ देता है.

क्यों राम आज भी पूजनीय एवं प्रासंगिक है इसमें स्वेच्छा से वन गमन भी एक अभीष्ट कारण बन गया. पुस्तक में कैकेई के चरित्र का अनूठा चित्रण जिसने कै्केई के चरित्र पर लगे सभी कलंकों को हटाकर, उनके महान व्यक्तित्व की अविस्मरनीय छवि प्रस्तुत की है .

देखा जाए तो शायद यही वास्तिविकता भी थी क्योंकि कैकई यदि अपने आप को उस परिस्थिति में कलंकित ना करवाती, तो शायद रामायण सम्पूर्णता को प्राप्त ना हो पाती. कैकेई के उल्लेख तथा कालखंड के बिना वन गमन संभव नहीं था और तब राम की चारित्रिक विशेषता भी इस लोक के लिए कल्पना मात्र ही होती.

इस नाते कैकई ने ही राम के द्वारा “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” के जन कल्याणकारी कार्य में प्रमुख सूत्रधार की भूमिका को अभिमंचित किया.

वन गमन पुस्तक में श्री गोवर्धन यादवजी की लेखनी एवं सोच के विभिन्न पहलुओं से साक्षात्कार होता है. .धार्मिक आस्था, सामजिक समदृष्यता, मत विभिन्नता के बावजूद ,जनकल्याणकारी सर्वोच्चता , चारित्रिक उत्थान विशेष पर कैकई की राजकीय एवं व्यक्तिगत प्रतिबद्धताएं , परिस्थितियों के विश्लेषण की वैज्ञानिकता, मनोविज्ञानिक एवं दार्शनिक धरातल पर सोच एवं परिस्थितियों का अन्वेषण, विश्लेषण एवं समावेशन ने पुस्तक को विशिष्ट बना दिया है. यही वजह है की वन गमन एक प्रभावी उपन्यास के रूप में सामने आता है .

लेखन की उच्च परम्पराओं का निर्वाह करते हुए श्री गोवर्धन यादवजी ने वनगमन के साथ पूर्ण न्याय किया है. धार्मिक प्रसंगों में होने वाले जोखिम को परे रखते हुए उन्होंने पुस्तक में सभी स्थितियों, परिस्थितियों को सहज एवं स्वाभाविक प्रस्तुतीकरण द्वारा इसे विवादित होने से बचाया है. जाने- पहचाने प्रसंगों को नए स्वरुप में पुनः पाकर पाठकों को यह रुचिकर लगेगा. ताजगी एवं प्रवाह इसे अंत तक पढ़ने हेतु पाठकों को उत्साहित करते रहेगा.

पाठकों के लिए पुस्तक निसंदेह उत्साहवर्धक रहेगी, खासतौर पर राम के राम बनने की प्रारम्भिक स्थितियां, कैकई का सर्वथा विलक्षण चरित्र चित्रण , वातावरण के अनुकूल प्राकृतिक स्थितियों का चित्रण उपन्यास की उल्लेखनीय विशेषता है.

कथ्य और शिल्प में गोवर्धन यादवजी ने अपनी श्रेष्टता को बनाए रखा है. हाँ, प्रकाशकीय भूल के अंतर्गत कहीं-कहीं प्रूफ की गलती से शब्दों के संयोजन में बाधाएं आती हैं, लेकिन उनसे अर्थों में बदलाव नहीं होने से ज्यादा परेशान नहीं करती, फिर भी अगले संस्करण में सुधार अपेक्षित है. बावजूद इसके उल्लेखनीय है की पुस्तक का कलेवर अच्छा बन पड़ा है.

वन गमन यद्यपि श्री गोवर्धन यादवजी के उपन्यास के प्रथम रूप में हम तक पहुँचा है किन्तु इसमें भी उन्होंने अपनी पूर्वस्थापित लेखकीय प्रतिभा का परिचय देते हुए इसे भी श्रेष्ट प्रस्तुति बना दिया है, जो निश्चित ही पाठकों को अपनी रूचि के अनुकूल ही लगेगी और इसे वे अपनी परिमार्जित अभिरुचि का हिस्सा बनायेंगें. छोटे-छोटे शीर्षकों के माध्यम से की गई रचना रोचक बन पड़ी है.

हर शीर्षक अपने आपमें हर घटनाक्रम को पूर्णतः समाहित किये हुए है, जिससे पाठक आसानी से सामंजस्य स्थापित कर लेता है. कथावस्तु पाठक तक सहजरूप में पहुँचने में सफल है और इसे पाठक की स्वीकार्यता भी प्राप्त होगी .

श्री गोवर्धन यादवजी को उनकी इस उत्कर्ष रचना के लिए साधुवाद एवं शुभकामनाएं .आने वाले उपन्यास ,जो इस प्रस्तुति की दूसरी कड़ी है “दंडकारण्य की ओर ” तथा “लंका की ओर” भविष्य की उन समस्त रचनाओं के लिए, जो साहित्य जगत में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करेंगी . “दंडकारण्य की ओर” तथा “लंका की ओर” का हम सभी को इंतज़ार रहेगा.
बहुत बहुत बधाई .

प्रदीप कुमार श्रीवास्तव 

डी -303 , सिग्नेचर रेजीडेंसी ,
कोलार रोड , भोपाल

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