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सारा जीवन ही बीत गया
( Sara jeevan hi beet gaya )
सारा जीवन ही बीत गया , यह अश्रु-गरल पीते-पीते ।
जो भरे कलष समझे हमने ,वे मिले सभी रीते-रीते।।
मत पूछो त्याग-तपस्या से,क्या जीवन को उपहार मिला।
शापों से आहत गंगाजल, पीने को बारम्बार मिला।
क्या जीत सके उन्मादों से , वो हार गये जो हार मिला।
हर बार अतुल विश्वास लिये,
यह लगा कि अब जीते-जीते ।।
सारा जीवन ही——
आशा के विषधर अनायास, जब लिपट गये तन चंदन से ।
रोली अक्षत उर-दीपों के ,बहते आँसू अभिनंदन से ।
श्वासों की पीड़ा जब गूँजी ,स्वर काँप उठा उस क्रंदन से।
आशा की झीनी चादर को ,अब हार गये सीते-सीते।।
सारा जीवन ही ——-
यह हरे बैगनी गुब्बारे ,जब बनते हैं नभ के तारे ।
कितने अवाक रह जाते हैं ,विधना की इच्छा के द्वारे ।
इस भाँति हमें भी छला गया ,परिभाषित हो सब कुछ हारे।
अब संभवतः विश्वास हुआ ,मर गये यहाँ जीते-जीते।।
सारा जीवन ही——
जंगल-जंगल घूमे लेकिन, यह चाहत थी वनवास नहीं।
हर पथ में ही ढूँढा साग़र,पर मिला कहीं विश्वास नहीं।
अब किसे बतायें कौन सुने, किस मग में था संत्रास नहीं।
यह कह कर धैर्य दिया मन को ,यह दिन तो अब बीते-बीते।।
सारा जीवन ही——–
अब इन बदले परिदृश्यों में,मृग-तृष्णा है भटकी -भटकी ।
हर धड़कन दीप जलाती है ,हर आहट पर साँकल खटकी ।
बस एक वही छवि ओझल है ,
क्या दशा हुई अंतर-घट की ।
यह पीर विरह की यूँ बिलखी, ज्यों राम कहें सीते-सीते ।।
सारा जीवन ही ——-
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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