फिर कोई ख़्वाब | Ghazal Phir koi Khwab
फिर कोई ख़्वाब
( Phir koi Khwab )
फिर कोई ख़्वाब निगाहों मे बसाने आजा
फिर मेरे घर को करीने से सजाने आजा
एक मुद्दत से तरसता हूँ तेरी सूरत को
ग़मज़दा हूँ मुझे तस्कीन दिलाने आजा
तुझको लेकर हैं परेशाँ ये दर-ओ-दीवारें
अपना हमराज़ इन्हें फिर से बनाने आजा
जिसको सुनते ही ग़म-ए-दिल को सुकूँ मिल जाये
बात कुछ ऐसी मुझे आज सुनाने आजा
जाम जो तूने पिलाये थे कभी आँखों से
फिर वही जश्न उसी तौर मनाने आजा
मैंने छेड़ी है शब-ओ-रोज़ तेरी तन्हाई
यह ही इल्ज़ाम मेरे सर पे लगाने आजा
हर तरफ़ ख़ौफ अंधेरा है मेरी आँखों में
इस अमावस में मुझे चाँद दिखाने आजा
मैं वही शख़्स हूँ जीता था जिसे देख के तू
आ मुझे अपने कलेजे से लगाने आजा
हम यक़ीनन ही किसी मोड़ पे मिल जायेंगे
बस यही आस मेरे दिल को बँधाने आजा
तोड़कर क़ल्ब को रोता है तू तन्हा साग़र
बात फिर बिगड़ी हुई आज बनाने आजा
कवि व शायर: विनय साग़र जायसवाल बरेली
846, शाहबाद, गोंदनी चौक
बरेली 243003
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