कल्पना लालजी के गिरमिटिया महाकाव्य में भारतीय संस्कृति और परिवेश बोध – डॉ. राजेश कुमार ‘माँझी’
हम सभी जानते हैं कि बीसवीं सदी में अनेक भारतीय लोगों को कैरेबियन देशों अर्थात् फिज़ी, मौरिशस, सूरिनाम, गयाना, त्रिनिडाड आदि देशों में शर्तबंदी प्रथा के अंतर्गत भारत से ले जया गया जिन्हें गिरमिटिया मज़दूर के नाम से जाना जाता है ।
वे सशरीर भले ही विदेशों में रहे परंतु उनका मन भारत की सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज आदि के इर्द-गिर्द ही सदैव घूमता रहा।
इसी कारण कुछ प्रवासी भारतीयों में साहित्य सृजन की तीव्र इच्छा जागृत हुई और इसी कारण आज हम देखते हैं कि ज्यादातर हिंदी के प्रवासी साहित्यकार चाहे वह अभिमन्यु अनत हों, कल्पना लालजी हों , अर्चना राज हीरामन हों, स्नेह ठाकुर हों, तेजेन्द्र शर्मा हों, पूर्णिमा बर्मन हों, पुष्पिता अवस्थी हों या कोई और प्रवासी साहित्यकार, उन सभी लोगों का ज्यादातर साहित्य भारत की सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपरा आदि का बखान करता है।
विश्व के महान साहित्यकार अभिमन्यु अनत जी के प्रसिद्ध उपन्यास “लाल पसीना” पर आधारित कल्पना लालजी के “गिरमिटिया महाकाव्य” में भारतीय संस्कृति और परिवेश बोध के बारे में चर्चा करने से पहले यह जरूरी है कि हम लेखिका के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में संक्षिप्त परिचय दें ।
भारत के उत्तर प्रदेश के मेरठ में जन्मी श्रीमती कल्पना लालजी का नाम मौरिशस में हिन्दी साहित्य सृजन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण और जाना पहचाना नाम है ।
वह विगत 35 वर्षो से अधिक समय से मौरिशस में रहते हुये साहित्य सेवा कर रही हैं । आपकी रचनाएँ सतत रूप से मौरिशस की साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं जैसे कि इंद्रधनुष , बसंत , रिमझिम, वीणा आदि में प्रकाशित हो रही हैं । आप हिन्दी लेखक संघ, हिन्दी संगठन, विश्व हिन्दी सचिवालय, हिन्दी साहित्य अकादेमी तथा भारतीय उच्चायोग के मासिक कार्यक्रम साहित्य संवाद की सक्रिय सदस्य हैं ।
आपने लंबे समय अध्यापन भी किया है । श्रीमती कल्पना लालजी की कुछ प्रकाशित कृतियों के नाम हैं – अमरगीत, सर शिवसागर रामगुलाम, खट्टी मीठी मुस्कानें, आइना जिंदगी का, एक चिट्ठी माँ के नाम और अपराजिता आदि जिनकी साहित्य जगत में बहुत ही प्रशंसा हुई है । कुल मिलाकर अब तक उनका छह कविता संग्रह और एक कहानी संग्रह का प्रकाशन हो चुका है ।
आपकी प्रस्तुत रचना “गिरमिटिया महाकाव्य” भारतीय प्रवासी किसानों और श्रमिकों के अनजान एवं सुदूर देश में आगमन की पीड़ा, जिजीविषा के लिए संघर्ष, विषम परिस्थितियों में अपनी भाषा, बोली, सभ्यता-संस्कृति को संरक्षित रखने की लयबद्ध गाथा है ।
इसमें भारतीय सभ्यता – संस्कृति , भाषा – बोली , रीति- रिवाज आदि के संरक्षण और संवर्धन का भरसक प्रयास किया गया है जिसके लिए कल्पना लालजी बधाई की पात्र हैं । साहित्य सृजन का उनका मूल क्षेत्र कविता है जिसकी सृजन प्रक्रिया पूरी तरह से भावात्मक है ।
विशुद्ध रूप से भारतीय सभ्यता – संस्कृति , भाषा – बोली , रीति- रिवाज , परिधान , भोजन आदि की पोशाक होने के कारण कल्पना लालजी की समस्त काव्य कृतियाँ इस प्रभाव से परिपोषित हैं । आप एक अत्यंत संवेदनशील रचनाकार हैं जिनकी कृतियों में दोनों देशों अर्थात भारत और मौरिशस की मनभावन खुशबू रहती है । आपकी रचनाओं का फ़लक बहुत ही व्यापक है ।
आपकी रचना “गिरमिटिया महाकाव्य” अनुभूति से परिपूर्ण है जिसमें भाषिक परिकल्पना और शिल्पगत कौशल देखते ही बनता है जिसके आधार पर यह कृति एक नई ऊंचाई छू रही है । “गिरमिटिया महाकाव्य” की सरलता और भाव प्रवणता का गुण सभी पाठकों को आकर्षित करने वाला है ।
कल्पना लालजी का “गिरमिटिया महाकाव्य” भावानुवाद और काव्यानुवाद का श्रेष्ठतम उदाहरण है जहाँ कवयित्री ने स्रोत ग्रंथ (लाल पसीना) के भावों को शत प्रतिशत काव्यात्मक रूप प्रदान करने का सरहनीय कार्य किया है ।
कुल मिलकर इस रचना में आशा की किरणें हैं, खुशी के गीत हैं, संघर्ष की खरोंचें हैं , विषम परिस्थितियों एवं सामाजिक व्यवहारों के प्रति आक्रोश तथा विद्रोह के स्वर हैं , अपनी जड़ों से दूर होकर भी उससे जुड़े रहने का अहसास है तथा साथ ही इस कृति में दुख और निराशा की झलक भी मौजूद है ।
कल्पना लालजी का “गिरमिटिया महाकाव्य” दो खंडों में रचित महाकाव्य है जिसके पहले खंड में छत्तीस और दूसरे खंड में तैंतीस सर्ग हैं । इसकी खासियत यह भी है कि प्रत्येक सर्ग के पूर्व उसका संक्षिप्त परिचय दिया गया है ।
जहां पहला खंड मौरिशस की उत्पत्ति/खोज के बारे में है वहीं दूसरे खंड में गिरमिटिया मजदूरों की दयनीय स्थिति का बहुत ही मार्मिक वर्णन संवेदनशील कवयित्री द्वारा किया गया है और पूरे महाकाव्य में भारतीय सभ्यता-संस्कृति, भाषा-बोली, पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, धर्म-आस्था, परंपरा, खानपान एवं परिधान के बिंब सबको आकर्षित कर रहे हैं । तो आइए “गिरमिटिया महाकाव्य” में स्वतः रूपायित कुछ महत्वपूर्ण बिंब चित्रों को समझने का प्रयास करते हैं ।
इस महाकाव्य के पहले खंड के पहले सर्ग में ही भारतीय जीवन मूल्य और ज्ञान परंपरा का उल्लेख करते हुए कल्पना जी लिखती हैं –
बहुजन हिताय बहुजन सुखाये, बुद्धम शरणम का गूँजे शोर ।
राह कठिन थी जल चहुं ओर, दूर अभी थी उनकी भोर ॥
भारत के बिहार प्रांत की चर्चा और साथ ही अहीर जाति के लोगों द्वारा गाए जाने वाले गीत का वर्णन करते हुए कवयित्री दूसरे सर्ग में लिखती हैं –
आई याद बिहार की शाम , बिरहा सुन लौटा था घर ।
मकई बिन पूछे क्या तोड़ी, अब तक पीट रहा था सर ॥
इस सर्ग में भारत का परिवेश बोध कुछ इस प्रकार झलकता है जहां पर भारत जैसे रीति –रिवाज और काली माँ के स्थान का उल्लेख आया है –
झोपड़ियाँ भी एकदम वैसी, वैसे ही हैं रीत–रिवाज ।
है काली माई का चौतरा भी, वैसे ही हैं घर के काज ॥
सर्ग संख्या तीन में भारत में बनाए जाने वाले मकई के भात का वर्णन निम्नानुसार किया गया है जहां हम यह भी देखते हैं कि किस प्रकार गिरमिटिया मजदूरों के लिए बीमार होने पर उपचार की कोई सुविधा नहीं थी –
भात मकई का वह पचा न पाता , रातों को तड़पता था ।
न कोई पूछने वाला था , न दवाई से कोई नाता था ॥
सर्ग संख्या पाँच में रामायण और महाभारत के पात्रों के जिक्र किया गया है जो भारतीय परिवेश का बोध कराते हैं । रामायण और महाभारत के पात्रों का जिक्र इस प्रकार आया है –
मूछों वाले को मामा कंस , कहकर सभी बुलाते थे ।
जरासंध था दुःशासन था, कुम्भकरण विभीषण भी थे ॥
इसी सर्ग में भारत के कुछ एक लोगों द्वारा धारण किए जाने वाले ताबीज़ का वर्णन देखने को मिल रहा है और साथ ही यह भी देखने को मिल रहा है कि किस प्रकार गिरमिटिया मजदूरों पर कोड़े बरसाए जाते थे एवं उन्हें यातना दी जाती थी –
ताबीज़ वीर हनुमान का , था उसके गले का हार ।
खाता रहा कोड़े मगर, निकालने से किया इंकार ॥
सर्ग संख्या आठ में भारतीय परिधान का उल्लेख निम्नानुसार आया है और यहाँ यह भी देखने को मिलता है कि किस प्रकार गिरमिटिया मजदूरों को गन्ने के खेतों में कठिन परिश्रम करनी पड़ती थी मौरिशस जैसे अनजाने देश में –
ईख के पैने पत्तों ने, खून से लथपथ किया शरीर ।
धोती और अंगोछे तक में , चुभते हों जैसे शहतीर ॥
अगले सर्ग में भारतीय परिवेश बोध का वर्णन अनाज को साफ करने वाले सूप, छत की ओरी और चावल के टुकड़े जिसे भोजपुरी प्रदेश में खुद्दी कहा जाता है आदि के द्वारा कवयित्री द्वारा सुंदर ढंग से इस प्रकार किया गया है –
शाम ढलते ही ओरी तले , महिलाएं वहीं बैठ जाती थीं ।
खुद्दियों को फटक कर, स्वयं ही चावल भी बिनवाती थीं ॥
……..चावल सूप में बीनती …………………………………… ।
खंड एक के नवम सर्ग में ही हम यह भी देखते हैं कि किस प्रकार गोदना भारतीय महिलाओं में प्रसिद्ध था जो गिरमिटियों संग गिरमिटिया देशों तक जा पहुंचा । इसी सर्ग में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारतीय समाज में और खास तौर से भोजपुरी क्षेत्र में गाय के गोबर से घर की लिपाई की जाती थी और गोबर से घर लीपने की प्रथा दूर देश में जा पहुंची। भोजपुरी के प्रयोग से भी भारतीय परिवेश का बोध यहाँ हो रहा है और साथ ही भारतीय सभ्यता- संस्कृति का परिचय हो रहा है –
गोदना भी उन दिनों, महिलाओं में चर्चित था ।
“आज गोदना गोदाऊँगी’, संध्या का मन हर्षित था ॥
…………………………..
गोबर से घर लीपती , फूलवन्ती नखरे से बोली ।
“आज काम बहुते बाटे” , कल पर उनसे बात टाली ॥
खंड एक के दसवें सर्ग में बिरहा गाने का उल्लेख निम्नानुसार हुआ है और साथ ही भोजपुरी प्रदेश में बाँस से बनाए जाने वाले सूप – दौरी का सुंदर चित्रण किया गया जो भारतीय परिवेश का बोध करा रहा है –
नौ जवान गाँव के सब, अब देव ननन के साथ थे ।
रात रात भर बिरहा गाते, उसका दायाँ हाथ थे ॥
……………………………………………………..
जौने बजे बाँस बांसुरी, तौने ही बाँस सूपहू दौरी ॥
खंड एक के तेरहवें सर्ग में भारतीय लोग आस्था का दर्शन देखते ही बनता है जब कवयित्री कल्पना लालजी लिखती हैं –
चमक रहे थे सूर्य देवता, अपनी पूरी शक्ति से ।
इन्द्रदेव से करें विनय, बरसों घन पूरी भक्ति से ॥
सोलहवें सर्ग में भारतीय मुहावरे का निम्नानुसार प्रयोग भारतीय परिवेश का बोध करा रहा है –
………पानी में रह ई लईका, मगरमच्छ संग बैर खोजता ।
इसके आगे सत्रहवें सर्ग में भारत का सुंदर चित्र उकेरा गया है जहां बदगड़ -पीपल की छांव, मकई और सत्तू पीसने उल्लेख और जतसार गाने का वर्णन सहित माँ दुर्गा की आराधना एवं भारत की याद पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है । कवयित्री भारतीय बिंब इस प्रकार खींच रही है –
बरगड़ के पीछे से देखा, चक्की की आवाजें आतीं ।
मकई पीस रही थीं बैठी, जतसार स्वर में थीं वे गातीं ॥
दृश्य देख यह आ गया याद, बिहार का वह अपना गाँव ।
सतुआ पीसती माँ थी उसकी , पा पीपल की ठंडी छांव ॥
भीतर भीतर गुनगुना उठा, उन पंक्तियों को याद कर ।
आँखें भी भर आयीं पल में , दुर्गा माँ से फरियाद कर ॥
यह भी सर्वविदित है कि व्यक्ति या लेखक अपने संस्कार अपने घर-परिवार और परिवेश से ही ग्रहण करता है। और विभिन्न कारणों से जब वह अपने जन्म स्थान, मातृभूमि से अलग होकर एक नए देश काल और परिवेश में चला जाता है, वहां जीवनयापन करने लगता है तब परिवेश बदल जाने से प्रवासी के जीवन में विषमताएं और जटिलताएं आ जाती हैं ।
इस कारण उसके नए संस्कार, नए दृष्टिकोण, नए विचार और नई सोच व नई मान्यताएँ उसके मन में बनने लगती हैं। वह पुराने मूल्यों को नए दृष्टिकोण से देखने लगता है। हिंदी के प्रवासी लेखकों के काव्य साहित्य और गद्य साहित्य में ये सारी बातें देखने को मिलती हैं। इसी कारण सत्रहवें सर्ग में कल्पना लाल जी ने भोजपुरी में एक गीत की रचना इस प्रकार की है –
मोरे नैहर के संदेसवा, लेके तू पहुँचो ।
मोरे भैया ताकत हूँ , मैं तोरी रह ॥
गवां के कुवां, पानी से भरल होवे ।
कि अकाले मचेला चहुं ओर……।
तमाम विषम परिस्थितियों में रहते हुए प्रवासी लेखक द्वारा हिंदी में लिखना बहुत ही कठिन कार्य है। परंतु सच्चाई यह है कि अच्छा साहित्य उसी भाषा में लिखा जाता है जिसके संस्कार हमें बचपन से मिले हों।
यदि मातृभाषा में न लिखकर किसी और भाषा में साहित्य की रचना की जाए तब वह साहित्य इतना संवेदनशील नहीं होता है । हिंदी का प्रवासी साहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है क्योंकि उसे पढ़कर तनिक भी यह नहीं लगता है कि वह भारतीय हिंदी लेखकों की रचनाओं से किसी भी रूप में कमतर है।
भारत में जन्मे, पले-पढ़े लोगों के लिए पराए देश में जाकर उस देश की सभ्यता और संस्कृति के साथ सामंजस्य बिठाना अत्यंत कठिन होता है। प्रवासी लोगों को बहुत सारी सामाजिक, आर्थिक, नैतिक और सांस्कृतिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शायद यही वजह है कि कल्पना लालजी तेइसवें सर्ग में भोजपूरी में कुछ इस प्रकार लिखती हैं –
रतवा भयानक बीत गयल भैया
टूट गयल नींदवा हमारी ओ भैया
अगेवा बढ़न को हो गयल फजिरवा ….
इसके आगे के सर्गों में हम देखते हैं कि कल्पना लालजी ने पृष्ठ संख्या 70 पर मेढक के टर्टराने का जिक्र किया है; पृष्ठ संख्या 127 पर पांडवों के एकांतवास का उल्लेख किया है; 128 पर पूरनमासी; 137 पर कृष्ण जन्माष्टमी और देवी सीता का वर्णन किया है; 139 और 176 पर भारत के खेल गिल्ली डंडा और कबड्डी; 140 पर प्राचीन भारत की कुप्रथा सतिप्रथा; 140 पर रामायण की चर्चा ; 148 पर काली माई के चौतरा और बलि के बकरे का उल्लेख सुंदर ढंग से किया है ।
इसके आगे कवयित्री ने पृष्ठ संख्या 155 पर एक भोजपुरी विरह गीत, लोरवा से भीगी गइले गोरी के चुनरिया लिख डाला है । पृष्ठ संख्या 156 पर हिन्दू महिला द्वारा मांग में भरे जाने वाले सिंदूर का जिक्र किया है । पृष्ठ संख्या 164 पर भारत में किस प्रकार जातिप्रथा है उसका बिंब खींचा है ।
पृष्ठ संख्या 167 पर भारत की त्याग, तपस्या के गुण को चित्रित किया गया है । पृष्ठ संख्या 178 पर भारतीय वाद्य यंत्रों ढ़ोलक, झाल आदि का जिक्र किया गया है ।
पृष्ठ संख्या 180 पर भारतीय गाँव का चित्र खेती किसानी के उल्लेख में मिल रहा है । पृष्ठ संख्या 183 पर भारतीय समाज में व्याप्त अंध विश्वास और ओझा गुणी का वर्णन कल्पना लालजी ने किया है । पृष्ठ संख्या 203 पर कवयित्री ने विरह वेदना का सुंदर चित्र भोजपुरी में कुछ इस प्रकार उकेरा है –
झरी गइले रे सभी गछवन के फूलवा ।
बही गइले रे सभी अंखियन के लोरवा ॥
इस गिरमिटिया महाकाव्य के पृष्ठ संख्या 183 पर ही हनुमान जी की पूजा अर्चना को दर्शाया गया है । पृष्ठ संख्या 184 पर यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार भारत के लोग माटी से तिलक लगते हैं और धरती माँ की पूजा करते हैं तथा गंगा उनके लिए कितना महत्वपूर्ण है ।
पृष्ठ संख्या 189 पर हिन्दू धर्म के प्रति अटूट आस्था और ईसाई धर्म को न अपनाने के निर्णय को सुंदर ढंग से रूपायित किया गया है । कल्पना जी इसके बारे में लिखती हैं –
धर्म संस्कृति को बेचकर हम सुख कौन सा पाएंगे ।
आँखों में गर आँसू आए, तो क्या चैन से जी पाएंगे ॥
गिरमिटिया महाकाव्य के उपरोक्त उदाहरणों से यह सिद्ध हो जाता है कि कल्पना लालजी का हृदय सदैव भारत के लिए धड़कता है और उनके काव्य में भारतीय सभ्यता- संस्कृति, भाषा- बोली, धर्म – आस्था, रीति –रिवाज, गीत संगीत, भोजन और परिधान आदि की झलक काबिले तारीफ है ।
गिरमिटिया महाकाव्य के लिए मैं कल्पना लालजी को बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि माँ सरस्वती की कृपा उनपर हरदम बनी रहे ।
डॉ. राजेश कुमार ‘माँझी’
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