हाँ! मैं आसमान से बात करती हूँ

हाँ! मैं आसमान से बात करती हूँ

मैं वो लड़की हूँ —
जो अक्सर रात की चुप्पियों में
खुद से सवाल करती है:
क्या मेरा होना बस एक समझौता है?
या कोई पुकार है —
जो इस सदी के शोर में गुम हो गई?

मेरी हथेलियाँ खाली नहीं हैं,
इन पर बिखरे हैं अधूरे ख्वाब,
जो रोज़ सिले जाते हैं
घर की चौखटों से,
नियमों की टांकों से,
और झूठी मुस्कानों के धागों से।

पर क्या कोई देखता है
कि मेरी साँसों में
एक पूरा आकाश धड़कता है?
जहाँ हर कोना कहता है
तू बस उड़, जो चाहे वो बन।

मैं उड़ना चाहती हूँ,
पर पंखों को सिर्फ़ फैलाना काफी नहीं होता
उन्हें सहना पड़ता है बोझ भी,
अपने डर, अपनी चुप्पियों,
और समाज के ‘नहीं’ का वज़न भी।

मुझसे कहा गया
लड़कियाँ सितारे नहीं चुनतीं,
वे छत देखती हैं, सीमाएँ जानती हैं।
पर मैं जानती हूँ,
कि जो लड़कियाँ चुप रहती हैं,
वो भी कभी-कभी
अंदर ही अंदर पूरा ब्रह्मांड रचती हैं।

मैं खुल कर जीना चाहती हूँ,
ना किसी की परिभाषा में,
ना किसी उम्मीद की कसम में बंध कर।
मुझे आवाज़ चाहिए
वो जो गले से नहीं, आत्मा से निकले।
वो जो कहे
मैं हूँ, और मेरा होना पूरा है।

हर सुबह जब सूरज उगता है,
मैं उसकी रौशनी से पूछती हूँ:
क्या अब मैं उड़ सकती हूँ?
और वो मुस्कुरा कर कहता है —
ये उड़ान तो तुझमें ही थी,
बस तूने खुद को रोका हुआ था।

मैं अब खुद को खोल रही हूँ —
धीरे-धीरे,
ज़ख्मों के पर्दों को हटाकर,
सपनों के परों को सहेजकर।

और जब कभी तुम मुझे देखो
उस नीले आकाश की ओर उड़ते हुए,
समझ जाना
ये सिर्फ़ एक लड़की नहीं,
बल्कि एक इंकलाब है —
जो खुल कर जीने की इजाज़त मांगने नहीं,
उसे छीनने आई है।

गरिमा भाटी “गौरी”
सहायक आचार्या, रावल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन,
फ़रीदाबाद, हरियाणा।

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