अरमान (सच्ची घटना पर आधारित)
बड़े अरमानों के साथ संध्या शादी के बाद ससुराल आई थी। उसके हाथों की मेहंदी का रंग उतरा भी ना था कि सासू मां ने रसोई घर की जिम्मेदारी उसके कंधों पर डालते हुए कहा-
“अब यह घर तेरा हुआ। थक गई मैं, इस घर को संभालते हुए। अब इसको संभालने की जिम्मेदारी तेरी है।”
संध्या खुश थी कि चलो सासू मां ने उसे परिवार की जिम्मेदारी उठाने लायक तो समझा। अगले ही दिन संध्या ने अपनी मर्जी से रसोई बना ली। संध्या के ऐसा करने से परिवार में कानाफूसी होने लगी। तरह-तरह के बातें चलने लगी। अचानक से पति रमेश का सख्त स्वर संध्या के कानों में पड़ा-
“तुम कल ही शादी होकर यहां आई हो और आते ही इस घर में अपनी मर्जी चलाने लगी? होश में रहो। क्या बनेगा, क्या नहीं… इसका निर्णय मेरी मम्मी करती आई हैं और आगे भी वही निर्णय करेंगी। तुम्हारा काम उनकी मदद करना है ना कि अपनी मर्जी चलाना।”
संध्या की आंखों में आंसू आ गए। कितने मन से उसने रसोई में तरह-तरह के व्यंजन बनाए थे लेकिन सब व्यर्थ। संध्या समझ गई कि ससुराल में उसे निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। सिर्फ एक नौकरानी की तरह दायित्व निभाने की जिम्मेदारी उसे दी गई है। उसी दिन संध्या को उस घर में अपने कद और पद का एहसास हो गया था। संध्या सर्वगुणसम्पन्न थी लेकिन पता नहीं क्यों रमेश को वह बिल्कुल नहीं भाती थी? आए दिन रमेश संध्या को नीचा दिखाने और सबके सामने अपमानित करने का उसे कोई मौका ना छोड़ता था। बात-बात पर कहता-
“तेरी मां ने तुझे यही संस्कार दिए हैं… ना तो खाना बनाने की तमीज है और ना ही साफ सफाई करने की… किसी काम को करने का कोई सलीका नहीं आता। तुझसे शादी करके मैं बर्बाद हो गया। इससे अच्छा तो मैं कुंवारा रहता या कहीं और शादी कर लेता।”
परिवार के लिए सब कुछ करने के बावजूद रमेश की दिल तोड़ने वाली बातें सुनकर संध्या खून के घूंट पीकर रह जाती। वह रमेश को अपनी बात समझाने की कोशिश करती, गलत बात पे उससे लड़ती भी लेकिन उस पर जूं न रेंगती। सास भी संध्या का पक्ष न लेकर रमेश की पैरवी करती। लेकिन संध्या को अपने व्यवहार पर पूरा यकीन था कि एक दिन वह सबका दिल जीत लेगी, सब उसको प्यार करेंगे, सम्मान देंगे।
इसी इंतज़ार में धीरे-धीरे समय बीतता गया। शादी को 7 साल बीत गए। संध्या के दो खूबसूरत बच्चे हुए लेकिन पति और सास के व्यवहार में तनिक अंतर उसे नजर ना आया। सास सब कुछ देखते हुए भी कभी संध्या की मदद के लिए आगे ना आती। सुबह शाम घर में तीन से चार तरह की सब्जियां बनती। वह दिन रात खाना बनाने, घर की साफ सफाई में ही लगी रहती। उसे आराम का बिल्कुल मौका नहीं मिलता।
यही उसकी दिनचर्या बन गई थी। शाम को सास संध्या के बारे में उल्टी सीधी बातें बोलकर रमेश के कान भरती। इसका परिणाम यह होता कि रमेश संध्या से सीधे मुंह बात ना करता। बात बात पर उस पर तंज मारता। संध्या को अपनी जिंदगी कामवाली से भी बदतर नजर आने लगी थी।
कामवाली को तो घर के काम के बदले में वेतन, कपड़े, भोजन सब मिल जाते हैं, लेकिन संध्या को दो वक्त का खाना खाने के बदले में उसे दिन भर घर का काम करना पड़ता और रात में पति के काम की तृप्ति करनी पड़ती। शादी के पहले दिन से ही वह सास और पति के प्यार भरे दो शब्द सुनने को तरसती रही।
वह अंदर ही अंदर घुटती रही लेकिन मायके पक्ष को उसने अपने दुख, दर्द, तकलीफ की कभी भनक न लगने दी। वह चाहकर भी पति और सास से अपने आत्मीय संबंध न बना पाई। इसका परिणाम यह हुआ कि वह धीरे-धीरे बीमार पड़ती चली गई। वह गुमसुम रहने लगी। अब उसे घर का काम करने और बच्चों को संभालने में दिक्कत महसूस होने लगी। वह जल्द ही थक जाती।
एक दिन संध्या काम करते-करते अचानक चक्कर खाकर गिर पड़ी। शाम को रमेश को जब अपनी मां से संध्या के चक्कर खाकर गिरने का पता चला तो वह गुस्से से संध्या के कमरे में पहुंचा और उसे धमकाने के अंदाज में बोला-
“बीमारी का बहाना बनाने से, कामचोरी करने से काम ना चलेगा। यहां तो तुम्हें सब काम करने हीं पड़ेंगे। अगर तुमसे नहीं हो रहा तो अपने घर चली जाओ पर मुझे बक्श दो। तुमसे शादी करके तो मैं दुखी हो गया।”
मानव मन जितना घायल बीमारी के समय होता है, उतना किसी और समय नहीं होता। न तो सास को और न ही रमेश को उसकी पड़ी थी। किसी ने भी प्रेम से उसके सर पर हाथ फेर कर यह ना कहा- “संध्या तू चिंता क्यों करती है, तुम क्यों परेशान होती है? अपना ध्यान रखो।
अगर तुमसे काम नहीं होता तो कोई बात नहीं, मत कर… लेकिन तुम टेंशन बिल्कुल मत लो। तुम्हारा ठीक होना हमारे लिए बहुत जरूरी है। तुम्हारे होने से, तुम्हारे सहयोग से ही पूरा परिवार अच्छे से रह रहा है।” लेकिन ऐसा कुछ भी ना हुआ। उसकी बीमारी को, उसकी समस्या को ना जानकर रमेश ने उसे बहाने बनाकर कामचोरी का दर्जा दे दिया। आज संध्या को अपना जीवन सच में व्यर्थ नजर आने लगा।
मन में बुरे बुरे ख्याल आने लगे। रमेश के रोज-रोज के दूसरी शादी करने के तानों से वह पहले से ही परेशान थी, लेकिन आज ऐसे समय जबकि वह बीमार है तो उसका यह बोलना “इससे शादी करके मैं दुखी हो गया” ने संध्या को कठोर कदम उठाने पर मजबूर कर दिया। उसने कागज कलम उठाया। सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर ली। सुसाइड नोट में लिखा था-
“रमेश जी, आप हमेशा कहते थे कि आपकी जिंदगी बर्बाद हो गई है। लो, अब आपकी जिंदगी सुधारने के लिए मैंने यह कदम उठाया है। हो सके तो मुझे माफ कर देना। मैं आपसे लड़ती थी, अब नहीं लडूंगी। चिक-चिक करती थी। अब नहीं करूंगी। आई एम सॉरी, मेरे मर जाने के बाद… आपको मेरी कसम है.. दूसरी शादी जरूर करना। मैं आपको खुश देखना चाहती हूँ। आप हमेशा खुश रहो। भगवान करे।
आपको मेरी उम्र लग जाए। मेरी जिंदगी यहीं तक थी। मुझे पता है कि मैं अपने बच्चों के साथ गलत कर रही हूँ लेकिन मैं मजबूर हूँ। मेरे बच्चों को हमेशा सीने से लगा कर रखना। बेटी को मेरी बहन के यहां छोड़ देना और बेटे को मेरी मां के पास छोड़ देना। सासू मां, सॉरी, मैं जीते जी आपको कभी अच्छी ना लगी। शायद मरने के बाद लग जाऊं। मैं परिवार के सभी सदस्यों से भी हाथ जोड़कर माफी मांगती हूँ।
मैं हमेशा आपसे प्यार करती रही, मगर आप मुझे कभी समझ ना पाए। मेरी सबसे बड़ी गलती यही थी कि मैं ज्यादा बोलती थी। गलत बात सहन नहीं कर पाती थी। मैं अपनी मर्जी से यह कदम उठा रही हूँ। रमेश जी की और उनके परिवार की कोई गलती नहीं है। मैं अपनी मर्जी से आत्महत्या कर रही हूँ।”
पति और सास का सम्मानजनक और प्यार भरा व्यवहार दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। खुला संचार, समर्थन और भावनात्मक समझ पति-पत्नी के रिश्ते को मजबूत बनाते हैं।
सास का बहू के प्रति प्यार और सम्मान, समझ और सहानुभूति की कोशिश, बहू को निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना व मार्गदर्शन प्रदान करना भी परिवार में सुख-शांति बनाए रखने में मदद करता है। इससे परिवार में प्रेम और सहयोग का वातावरण बनता है। रिश्तों में समझना व सम्मान करना बहुत जरूरी है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो कोई भी रिश्ता हम संभाल न सकेंगे। सब हमसे दूर चले जायेंगे।
आज के समय में रिश्ते सिर्फ नाम के हो गए हैं। रिश्तो को अब जिया नहीं जाता, निभाया नहीं जाता, रिश्तो में सम्मान नहीं किया जाता… रिश्तो को सिर्फ झेला जाता है। शादी एक समझौता बनकर रह गई है। किसी के सुख-दुख की किसी को नहीं पड़ी। सब अपनी दुनिया में मस्त है। इंसानी रिश्ते समाज को दिखाने के लिए हैं, जबकि अंदर से वे मर चुके हैं। एक ही चाहरदीवारी के नीचे रह रहे लोग कितना अकेले पड़ जाते हैं… संध्या इसका एक उदाहरण है।
शादी के बाद के बदलाव को स्वीकार करने के लिए पति, पत्नी व सास कोई भी पहले से तैयार नहीं रहता। पति, अपनी पत्नी व अपनी माँ के बीच पिसकर रह जाता है। माँ को बहू का अपने बेटे के करीब देखना मुश्किल होता है। उन्हें लगता है कि उनका बेटा बदल गया है, बहू ने उसे उनसे छीन लिया है, अपने कब्जे में कर लिया है। बहू को बेटी न मानकर गैरों की तरह बर्ताव किया जाता है।
बहू को लगता है कि उसके आत्मसम्मान को कुचला जा रहा है। बहुत कम माता पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों की खुशी में अपनी खुशी को देखते हैं। ज्यादातर माँ बाप समाज को दिखाने के लिए बोलते हैं कि बेटा बहू खुश रहें, हमें और कुछ नहीं चाहिए जबकि होता इससे उलट है। माता पिता को यह समझना होगा कि उन्होंने तो अपनी जिंदगी अच्छे से जी ली है, अब बच्चों को भी स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार दिया जाए, पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओ को त्यागकर खुद को अपडेटेड रखते हुए वर्तमान परिवेश के अनुसार, बदलावों को स्वीकृति दी जाए।
हमारे शब्द, हमारी बातें हमारा व्यवहार ही लोगों के दिलों में जगह बनाने और दिल से बाहर निकालने का माध्यम बनते हैं। अपने शब्दों का हमें सोच समझकर इस्तेमाल करना चाहिए। हमारे शब्द किसी के आत्मसम्मान को कितनी ठेस पहुंचा सकते हैं, उन्हें अंदर तक कितना जख्मी, छलनी कर सकते हैं.. यह संध्या से बेहतर कौन जानता है जिसे रमेश के कटु शब्दों ने आत्मघाती कदम उठाने पर मजबूर कर दिया।

लेखक:- डॉ० भूपेंद्र सिंह, अमरोहा
यह भी पढ़ें :-







