( 2 )
धीरे-धीरे महीने हो गए थे ।अभी बच्चे की आंख नहीं खुली ।उसके माता-पिता अपलक निहार रहें थे। उन्हें कुछ नहीं समझ में आ रहा था कि क्या किया जाए। बच्चे का शरीर सूख कर काटा हो चुका था। फिर भी माता-पिता की आशा थी कि मेरे लाल को कुछ नहीं होगा।
मनुष्य को अक्सर जब कोई सहारा नहीं दिखाई देता है तो एकमात्र परमात्मा का ही सहारा बचता है। किसी को भी यह विश्वास नहीं था कि यह लड़का बचेगा। मांस सूखकर लोथड़ा बन गया था । बस हड्डियां दिखाई देते थी।
अक्सर लोग कहते कि भगवान कहां भूल गया है । या तो मौत दे दे या फिर ठीक कर दे। वे दम्पति लोगों के ताने सुन सुनकर भी चुप रह जाते । उन्हें विश्वास था कि मेरे लाल को कुछ नहीं होगा । एक दिन उसकी आंखें जरूर खुलेगी। परमात्मा को पुनर्जन्म देना ही पड़ेगा।
परमात्मा में ऐसी अडिग निष्ठा बहुत कम लोगों में दिखाई पड़ती है। बालक के पिता को जब इष्ट देव प्रकट होते थे तो उसकी मां पूछती–” मलिक बालक का क्या होगा ? उसकी सूरत देखी नहीं जाती ?”
उसके पिता के सिर पर सवार इष्ट देव कहा करते –” माई तूं धैर्य रख ! बालक को कुछ नहीं होने दूंगा । लोग क्या कहते हैं इस पर ज्यादा ध्यान मत दो? देखना सब ठीक हो जाएगा । यही बालक एक दिन दुनिया का भाग्य विधाता होगा । देश दुनिया में उसके नाम की धूम होगी।”
बाद दरअसल यह थी कि बालक के माता-पिता को अपने इष्ट देव पर पूर्ण विश्वास था। उन्हें यह विश्वास मन की गहराई तक भर गया था कि मालिक की बात झूठी नहीं हो सकती है?
बालक की मां जब निराश हो जाती थीं तो उसके पिताजी कहा करते –” हिम्मत से काम लो। जिसने जो बताए सब तो किया। आखिर बचा ही किया है ।एक मालिक के सहारे के । अब उन्हीं का सहारा बाकी है।”
उसकी मां कहती –” मैं मां हूं! आप तो पुरुष हो। जानती हूं कि आपको भी बाबू की सूरत नहीं देखी जा रही हैं फिर भी आप धैर्य बनाए हुए हो मुझसे धैर्य नहीं रखा जा रहा है।”
अक्सर जीवन में मां तो अपने दुखों को व्यक्त कर दिया करती है। लेकिन पिता व्यक्त नहीं कर पाता है । वह अपने दुखों को अंदर ही अंदर पी सा जाता है। यही कारण है कि पिता अक्सर उपेक्षित सा महसूस हुआ अनुभव करता है।
आखिर मां पिता की दुआओं का प्रभाव होने लगा था। लगभग 40 दिनों बाद बच्चे ने आंख खोली थी। शरीर में हिलने डुलने की ताकत तो थी नहीं बस वह टुकुर-टुकुर अपने अम्मा कक्का को देख रहा था।
उसकी मां आंचल प्रसार कर प्रार्थना करने लगी -” तेरा लाख-लाख शुक्र है मालिक तूने बच्चे की आंख को बचा लिया उसे कुछ नहीं होने दिया।”
उसके पिता ने कहा -” मैं कह रहा था ना कि बाबू को कुछ नहीं होगा। तुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था। चलो छोड़ो बस बाबू ठीक हो जाए।”
धीरे-धीरे बालक के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। थोड़ा-थोड़ा वह खाने पीने लगा खाने पीने से उसके शरीर में जान आने लगी ।
आज वही बालक जिसको लोग छूना या देखना पसंद नहीं करते थे इन पंक्तियों को लिख रहा है।
( 1 )
पूरे परिवार में सन्नाटा छाया हुआ था । कोई किसी से बात नहीं कर रहा था। जैसे सब गूंगे हो गए हो। रजनी कि सिश्किया भी दब सी गई थी। उसका अपराध बस इतना सा है कि उसने छः बेटियों को जन्म दिया। अबकी बार भी यदि बेटी हुई तो उसने प्राण कर लिया था की जान दे दूंगी लेकिन बेटी का मुंह नहीं देखूंगी ।लेकिन लगता है प्रभु ने उसकी सच्ची पुकार को सुन लिया।
सन्नाटा तब टूटा जब दाईं ने बताया की बधाई हो बाबूजी रजनी बिटिया ने बेटे को जन्म दिया है। पूरे परिवार में खुशी की बहार होने लगी । सास कहती कितनी मैं भाग्यवान हूं । घर में जो कुल का तारणहार पैदा हो गया। रजनी के लिए तो जैसे उसका पुनर्जन्म हो गया हो। उसने बेटे के साथ ही नई जिंदगी पाई थी ।
नहीं तो उसने पक्का इरादा कर लिया था । अपने जीवन लीला समाप्त करने का। वह प्रभु की कृपा का बार-बार धन्यवाद दिए जा रही थी। परंतु अतीत की याद जब आती तो उसका दिल शिहर उठता ।आखिर क्या क्या ताने नहीं सुनना पड़े उसे।
अतीत के झरोखों को वह जितना भुलाना चाहती वह उतना ही याद आने लगा लगता । याद आता कि कैसे उसकी सास और ननद ने उसे जान से मारने का भी कुचक्र रचा गया था परंतु वह बच गई । परमेश्वर ने न जाने कौन सी ताकत थी जो उसे जीने को मजबूर कर रही थी।
कहीं जिन बेटियों के कारण उसे मार डालने की धमकी दी जाती रही । वही तो उसकी हिम्मत नहीं बन जा रही थी। वह सोचती यदि मुझे कुछ हो जाता है तो मेरी बेटियों का क्या होगा । छोटी पिंकी तो अभी 2 वर्ष की भी नहीं हुई है । सबसे बड़ी मालती भी विवाह योग हो गई है। पंकज को क्या हुआ दूसरी शादी कर लेगा। लेकिन भोगना तो मेरे बच्चों को ही पड़ेगा कि मां की गोद में वे शांति से सो सकेंगे।
हद तो तब हो गए जब एक दिन पंकज ने रजनी को तलाक देने का विचार उसको सुना दिया। रजनी को तो जैसे पैरों तले से जमीन खींसकती नजर आने लगी।
रजनी यह नहीं समझ पा रही थी कि क्या यह वही पंकज है जो साथ-साथ जीने मरने की लंबी-लंबी डींगे हाका करता था। परंतु रजनी कुछ सोच कर थोड़ा शांत रही थी कि आग में घी डालने से कोई फायदा नहीं है। अतः शांत रहने में ही भलाई समझी।
लेकिन पंकज ने रजनी की शांति उसकी कमजोरी समझ उसे टॉर्चर करने से बाज नहीं आ रहा था । रजनी यह बात अच्छी तरह से समझ रही थी कि पंकज को मेरी ओर से भड़काने वाली मेरी सास है । वह तो उसके चेहरे को देखकर ही डर से कांप जाती थी। कैसे उसकी सास ने जब छोटी बेटी पिंकी का जन्म हुआ था । महीनों भूखे तड़पने को रखा था । पूरा शरीर सूख कर काटा हो गया था । भगवान का शुक्र गुजार था कि वह बार-बार मौत के मुंह से बच गई।
बच्चों के जन्म के समय कितना दर्द होता है यह भुक्तभोगी ही समझ सकता है । पंकज को वह समझाना चाहती थी कि लड़का लड़की होना किसी स्त्री का दोषी नहीं बल्कि पुरुष होता है।
यह बात वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध की है परंतु पुरुष का अहंकार उसे सै करने को तैयार ही नहीं । 99 ऐसी स्थिति में स्त्रियों को ही दोषी ठहराया जाता है।
वह सोचती स्त्री तो धरती के समान होती है । उसमें जैसे बीज डालेंगे वैसे ही फसल होगी। बबूल के बीज से आम के वृक्ष की कैसे कल्पना की जा सकती है ।आखिर पुरुष समाज यह समझने का प्रयास क्यों नहीं करता?
रजनी आज खुश थी क्योंकि उसका तारने वाला जन्म ले चुका था । गुड्डू उसका लड़का नहीं बल्कि उसके लिए नई जिंदगी लेकर आया था । वह स्वयं का पुनर्जन्म हुआ अनुभव कर रहे थीं।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )