अक्षय तृतीया : आखा तीज
अक्षय तृतीया : आखा तीज
अक्षय तृतीया पर्व पर इस जीवन को पावन बनाये ।
पापों व तापों के हैं घेरे उनको ढहाते हुए चले ।
संसार सागर को पार कर मोक्ष की और बढ़ते चले ।
उमड़ती घटाएं है यहाँ कामना की ,
उफनती हैं नादियाँ यहाँ वासना की ,
हां , भूले कहाँ ? भूले कहाँ ?
छोड़ो बह जाना , ख़ुद को बचाते हम चले ।
निर्लिप्त भाव हो जैसे जल में हो कमल
काजल से भी घिरने पर भी
रहती ज्यो लौ विमल
मन निर्विकार हो , खुद में रमते हम चले ।
निर्विकार भावना जीवन को देती बदल
सब मित्र हो हमारे जो हमारी
आगे भव की गति को करते प्रबल ।
समता का आधार हो , खुद का विकास करते हम चले ।
सुख छीन कर किसी का दुःख नहीं दे कभी
सभी समान है सुखकामी
के आकांक्षी सभी ।
सभी का हित हो , खुद चिन्तन कर बढ़ते चले ।
अवगुण ही देखना हो तो
स्वयं की और हम ध्यान दे
गुण देख औरो का मन से मान दे ।
जीवन उन्नत का प्रकार हो , खुद में झाँक कदम चले ।
अक्षय तृतीया पर्व पर इस जीवन को पावन बनाये ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)