आई फिर जनता की बारी

आई फिर जनता की बारी | Kavita Janta ki Bari

आई फिर जनता की बारी

 

आने लगे नेता पारापारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
बढ़ी गइल कितनी बेकारी,
महंग भइल दाल -तरकारी।

बगुला भगत बनि-बनि जइसे आए,
वोटवा की खातिर वो दामन बिछाए।
घूमें जइसे कोई शिकारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
आने लगे नेता पारापारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
बढ़ी गइल कितनी बेकारी,
महंग भइल दाल -तरकारी।

छोड़ा तू पंचो घरेलू झमेला,
पांच साल बाद आयल देखा ई मेला।
आया है प्यासा दुआरी,
कि आई फिर जनता की बारी।
आने लगे नेता पारापारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
बढ़ी गइल कितनी बेकारी,
महंग भइल दाल -तरकारी।

आम,बबूल, बाँस, आँख गड़ाए,
पनघट पे देखो धमाल मचाये।
जाई न कबहूँ होशियारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
आने लगे नेता पारापारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
बढ़ी गइल कितनी बेकारी,
महंग भइल दाल -तरकारी।

केहू नहीं वोट देखा दिहले से चूका,
लालच की नोट पर हर कोई थूका।
नाहीं तौ नचाई ऊ मदारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
आने लगे नेता पारापारी,
कि आई फिर जनता की बारी।
बढ़ी गइल कितनी बेकारी,
महंग भइल दाल -तरकारी।

रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )

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