ख्वाहिशें | Kavita Khwahishen
ख्वाहिशें
( Khwahishen )
ख्वाहिशों को जरूरत न बनाइये अपनी
बन भी जाए अगर, तो उसे कभी अपनी
लत न होने दीजिये, हो भि जाए लत यदि
तो उसे न बनाइये कभी मजबूरी अपनी
मजबूरी भी बना देती है मजबूर इतना कि
हाथ सेंकने को घर अपना हि जला देती है
ऐसे हालात में भुला दें खुशियों को अपनी
रहिये देखते जलता हुआ घर आराम से
जरूरतें रहती नही कभी अधिक किसी की
तुलना में हि बढ़ जाती हैं इछाएँ आपकी
जीने नही देतीं सामर्थ्य से बाहर की ख्वाहिशें
बिक जाती है इसीमे सर की पगड़ी आपकी
आपकी संगत ही होती है आधार कल का
होता नहीं दोष कभी भविष्य के फल का
होकर भी आँख अगर अंधा और नासमझ हो
तो, जीवन नहीं है मैदान कोई खेल का
डूबते नहीं आप हि केवल लगी लत मे अपने
डूब जाते हैं आपसे जुड़े कईयों के सपने भी यहाँ
उठा तो देते हैं आप हाथ अपना मजबूरी बता कर
मगर भरोसे आपके रह रहे लोग अब जाएं कहाँ
( मुंबई )
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