
अनपढ़ चरवाहा
( Anpadh charwaha )
“अरे छिगनू काका!”
“आप खाना बना रहे हो ?”
“यह काम तो घर की औरतों का है, फिर आप क्यों ?”
स्कूल से घर जाति प्रिया ने आश्चर्य से पूछा।
“बेटा, हम घुमक्कड़ लोग है।
हमारा काम गाय, भेड़ और ऊँटों को घूमते हुए पालना व उन्हें बेचकर जीवन यापन करना है।”
“हमारी औरतें घर पर रहकर बच्चों को सँभालती है और हम जंगल जंगल भटकते हुए पशुओं को पालते है इसलिये खाना भी खुद ही बनाते है।”
छिगनू काका ने कहा।
“पर काका घरों में आटा गूँथ कर चकले पर बेलन से रोटियाँ बेली जाती है, आप तो बिना आटा गूँथे ही तुरंत पानी में आटे को भिगोकर हाथ से ही रोटी बेल रहे हो।”
प्रिया ने फिर आश्चर्य से पूछा।
“बेटा यह बाजरे का आटा है इसे गेहूँ के आटे की तरह नहीं गूँथा जाता, इसमें तुरंत पानी मिलाकर एक रोटी की लोई जितना सा गूँथना होता है और लोई को दोनों हाथों के बीच रखकर ताली बजानें की तरह पलटते हुए बेलना पड़ता है।”
“बेटा, स्कूल से आयी हो, भूख भी लगी होगी, गेहूँ की रोटी रोज ही खाती हो आज कढ़ी व देशी घी में डूबीं बाजरे की रोटी भी खाकर देखो।”
थाली में दही, चटनी, कढ़ी व रोटी पकड़ाते हुए छिगनू काका ने कहा।
“वाह काका! खाना तो बड़ा स्वादिष्ट है, हमारे घर तो ऐसा खाना कभी बनता ही नहीं।”
“सही कहा पीरू, पर बेटा इस रोटी को पचानें के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है।”
“तुम भी मेहनत करके खूब पढ़ लिखकर ऐसा मुकाम पाओ ताकि मैं भी कह सकूँ की एक अनपढ़ चरवाहा पशुओं की ही नहीं बल्कि इंसानों की भी सार सँभाल करना जानता है।”
छिगनू काका ने रूँधें स्वर में कहा।
रचनाकार : शांतिलाल सोनी
ग्राम कोटड़ी सिमारला
तहसील श्रीमाधोपुर
जिला सीकर ( राजस्थान )
यह भी पढ़ें :-