भीड़ खचाखच थी। रंगमंच आधुनिक रंगों से सज़ा था। गांधी पर ‘ शो’ चल रहा था लेकिन बहुत अधिक मनभावन दृश्य न होने से घंटे भर में ही लोग झपबकाने लगे।

उसने इसलिए नहीं कि श्रोताओं को मानसिक संतुष्टि नहीं मिल रही थी बल्कि कुछ के सोने का समय हो रहा था और कुछ टकटकी लगाए गौर से दृश्य व वार्तालापों पर नज़र गड़ाए थे। कुछ दलित व पिछड़े पूना पैक्ट के दृश्य के इंतजार में थे और कुछ झपकियों में व्यस्त थे।

इंटरवल का समय हुआ। डायरेक्टर को पहले ही अनुमान था कि तड़क- भड़क से दूर, लोग जरूर गांधी पर तैयार दो घंटे के अभिनय में बोर हो सकते हैं। 2 अक्टूबर था ही। इसीबीच रंगमंच का पर्दा गिरा और घुप्प अंधेरा छा गया।

कुछ मिनटों बाद पर्दे को हटने का आभास लोगों को हुआ। फिर रंगमंच पर किसी के आकर खड़ा होने का एहसास हुआ और विजली कौंध गयी। लोगों की आंखें चुधिया गयी। सफेद चमकते पर्दे पर केशरिया रंग में अक्षर उभरने लगे ——–”

नाथूराम गोडसे —- भारत का भाग्य विधाता —- आज का गांधी। ” तभी गांधी का हमशक्ल केशरिया में शख्स जोर से चिल्लाया ——-” नाथूराम गोडसे——-अब मैं ही गांधी हूँ, फादर्स ऑफ इंडिया। ”

दर्शकों के हाथों में चरणपादुकाएं व मारो-मारो की आवाज़ बढ़ते ही पर्दा सड़ाक से गिरा और रंगमंच पर घुप्प अंधेरा छा गया ।

 

डॉ.के.एल. सोनकर ‘सौमित्र’
चन्दवक ,जौनपुर ( उत्तर प्रदेश )

यह भी पढ़ें :-

नहीं पचा पाओगे | Nahi Pacha Paoge

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here