पारदर्शी दृष्टि | Laghu Katha Paradarshi Drishti
पारदर्शी दृष्टि
( Paradarshi Drishti )
दो मित्र के लिए अपने पसंद की दो राजनीतिक पार्टियांँ हो सकती है, लेकिन मित्रता अपनी जगह पर कायम रहती है, इसमें पार्टियां नहीं आती, आती हैं तो बस मित्रता। इसे कभी भी टूटने नहीं देना चाहिए।
लेकिन बहुत कम ही लोग होते हैं जो इस बात को समझते हैं। गांँव में ऐसी स्थिति ज्यादा देखने को मिलती है। मित्रता की बनी घनिष्ठता खत्म होते देर नहीं लगती। तब एक दिन ऐसा भी देखने में आता है कि अति कष्टदायी समय में मित्र की मित्रता अपनी छाया समेटती दूर चली जाती है।
और आदमी की उम्मीद आत्म पश्चाताप करती अकेली नजर आती है। तब उस दिन चुहेलबाज कहने लगते हैं कि मित्रता कभी निभती ही नहीं। जब सोच की कमी ही मार गई हो उसे तब कहांँ से निभेगी मित्रता। परवान नहीं चढ़ेगी तो और क्या होगी। काम आएगी, जिंदगी मेंॽ
व्यक्ति की जिंदगी में सोच की अहम भूमिका होती है। चाहे मित्रता हो या घर का आधार स्तम्भ, सभी सोच पर ही टिकें होते हैं। व्यक्ति की सोच दूरगामी होनी चाहिए। आगे खाई हो तभी बचे और पीछे कुआं हो तभी। तालाब में फैले शैवाल पर चढ़ कर हम तालाब नहीं लांघ सकते।
तब शैवाल की बात आने पर हमें अपनी लगी मित्रता पर सोच लेनी चाहिए। कहीं हमारी मित्रता उस शैवाल की तरह ही तो नहीं है। जिसे हम भ्रम में रह कर अपनी मित्रता को भी पालते जा रहे हैं और समय आया तो हमें पता चला कि हमारी मित्रता उस शैवाल-सी थी।
आज के समय में पारदर्शी दृष्टि होनी चाहिए हमारी। मित्रता तो मित्रता होती है, जो संसार की और अन्य वस्तुओं से भिन्न होती है।
विद्या शंकर विद्यार्थी
रामगढ़, झारखण्ड