लघु कथा सुकून | Laghu Katha Sukoon
सीता पेपर देने अपने पति के साथ भोपाल आई थी। पेपर अच्छा रहा लौटते समय एक सुलभ कांप्लेक्स के सामने गाड़ी रोक कर सीता के पति कहने लगे ।
बड़ा साफ सुथरा है, सुलभ कांप्लेक्स। जब तुम पेपर देने गई थी। तब हम लोग यहां आए थे। तुम भी फ्रेश हो जाओ फिर रास्ते में इतना साफ सुथरा मिले ना मिले। सीता को भी अपने पति की बात सही लगी। वह तुरंत उतर कर आगे बढ़ी और कॉम्प्लेक्स की ओर गई ।
सीता ने जैसे ही कदम रखा तो दंग रह गई, चारों ओर इतनी सफाई थी। कि पूछो मत ,कुनेन की गोलियां, वॉश बेसिन में पड़ी हुई थी। हैंड वॉश रखा था। टॉयलेट भी एकदम चमक रही थी। तभी उसे एक महिला की आवाज आई जो एक छोटे से कमरे में पर्दा डाले हुए थी।
बड़े प्यार से सीता को नमस्ते करके वह मुस्कुरा कर खड़ी हो गई। सीता की साड़ी थोड़ी स्लिप हो रही थी उसने पर्दा पड़ा देखा तो महिला बोली आइए न सीता ने जब उसे कमरे में प्रवेश किया लगभग आठ वाई आठ का ही कमरा होगा । एक और छोटी सी पुरानी टीवी रखी थी।
एक टूटे हुए बक्से के ऊपर बक्सा पुराना था। कपड़े टंगे हुए थे बास पर। वह भी करीने से, और वह सब्जी काट रही थी। जमीन ऐसी साफ थी, जैसे अभी पोछा लगाया हो। सीता भी वैसे स्वभाव में बहुत सीधी थी वह अपनी साड़ी ठीक करने लगी तभी वह महिला उससे बात करने लगी आप कहां से आई है।
सीता ने जवाब दिया पेपर देने आई थी अच्छा.. महिला बोली, कहां से आई हैं आप, सीता ने बताया ललितपुर के पास से महिला के चेहरे के हाव-भाव देखकर और उसकी खुशी देखकर सीता अचंभित हो गई सीता ने पूछा यहां तुम्हारी ड्यूटी लगती है क्या, वह बोली हां मेमसाहब मैं यहां की साफ सफाई रखती हूं और मेरे पति भी मेरे साथ रहते हैं।
वह मजदूरी करते हैं। मेरे दो बच्चे हैं वह स्कूल गए हैं मुझे यह कमरा रहने को दे दिया है हम इसी में रहते हैं अभी बच्चे स्कूल से आते ही होंगे आप काय से आई हैं सीता ने जवाब दिया पति के साथ कार से वह बाहर उठकर कार देखने गई। एक बार तो सीता अचंभित ही रह गई इस महिला का सुकून तो देखो चेहरा लाल बिंदी में चमक रहा था।
उस के चेहरे पर जो मुस्कुराहट थी शायद वह लाखों अरबो रुपए खर्च करके भी नहीं पाई जा सकती थी। सीता ने उसकी ओर रुपए बढ़ाये पर उसने लेने से इनकार कर दिया आप तो हमारे गांव के पास की है । हम भी ललितपुर के हैं ।
काम के सिलसिले में हम लोग यहां चले आए और जो साहब है । उन्होंने मेरी साफ सफाई देखते हुए हमें यह कमरा रहने को दे दिया उस आठ बाय आठ के कमरे को देखकर सीता बिंदेश्वरी पाठक को नमन करने लगी धन्य है… जिन्होंने एक पूरे परिवार को रहने गुजरने का आश्रय दे दिया।
सीता को याद है जब बिंदेश्वरी पाठक ने सुलभ कांप्लेक्स की शुरुआत की थी तो उन्हें अपने ही समाज का विरोध झेलना पड़ा था। पर उसे दृढ़ प्रत्येक के व्यक्ति ने महिलाओं के हित के लिए कितना सोचा और आज एक परिवार को भी नौकरी दे रहे थे।सीता बाहर आने लगी तो न करने पर भी उस महिला के हाथ में रख दिए बच्चों को दे देना कह देना कि उनकी चाची आई थी…
सीता उसकी सादगी पर मोहित हो गई थी । कोई हार नहीं था गले में, कोई महंगी साड़ी नहीं पहनी थी। बहुत खूबसूरत भी नहीं थी ।पर, ऐसा क्या था उसमें, वह थी उसकी सादगी,,… ईमानदारी से पैसे कमाने का सुकून… उसके चेहरे पर झलक रहा था ।
जहां दो मिनट हम रुक नहीं सकते वहां वह पूरा जीवन गुजर रही थी। अपने बच्चों को पढ़ा रही थी। आते समय सीता खुद अपने आप को छोटा महसूस कर रही थी कार में बैठने के बाद बहुत दूर तक वह इसी ख्याल में खोई रही इस महिला से उसे बहुत कुछ सीखने को मिल गया था ।
जीवन में हमारे पास सब कुछ होता है। पर सुकून नहीं होता जिस सुलभ कांप्लेक्स में 2 मिनट जाकर हम जल्दी से आ जाते हैं। तंबाकू की पिक से रंगी हुई दिवाले होती है इस महिला ने उसे स्वर्ग बना रखा था। उसमें वह अपना जीवन यापन कर रही थी और उसका सुकून तो लाखों पैसे देकर भी नहीं खरीदा जा सकता था।
वास्तव में ऐसे लोग अच्छे-अच्छे अमीरों को पाठ पढ़ा देते हैं। जीवन भर सब कुछ होने के बावजूद आदमी की मांगे कभी खत्म नहीं होती और वह महिला उसी के बारे में सोचते सोचते जाने कब उसके पति ने उसे जकजोरा अरे खाना नहीं खाना है होटल आ गया है रात को घर पहुंचने में देर हो जाएगी उसे हो सैया वह इतनी दूर उसी के ख्यालों में डूबी हुई चली आई थी सीता के मन की भूख वह शांत कर आई थी पेट की भूख मिटाने के लिए उसे उतरना पड़ रहा था।
आज भी सीता को जब भी कभी भोपाल जाने का मन होता है तो सीता के जहन में महिला की तस्वीर आ जाती है ।उससे वह दोबारा मिलना चाहती है । जिसने उसके मन को भी सुकून दे दिया था ।