Nice Ghazal | कुछ भी नहीं
मरासिम अब हाँ! कुछ भी नहीं
( Maraasim ab haan! kuchh bhi nahin )
मरासिम अब हाँ! कुछ भी नहीं
पर कहने से होता कुछ भी नहीं
ज़ेहन और दिलका आबाई जंग है
इस के बरख्श तेरा कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी है सोज़-ए-शाम-ओ-सेहर
और इस के सिवा कुछ भी नहीं
नफ़िस एक तुझको खोकर जाना
मेरे पास बचा कुछ भी नहीं
तेरे अलावा कोई क्यों नहीं आता
इस दर्द का क्या दवा कुछ भी नहीं
होगा यह मानकर चल तो सकते है
मगर होने वाला कुछ भी नहीं
ना डर रही, ना ऐतमाद ही रहा
जानकार की पाना कुछ भी नहीं
बे-फ़िक्र से खेले हम अपनी बाज़ी
जब जाना के अपना कुछ भी नहीं
देख भी ले वह सख्स अगर तो
दोस्त, उसे दीखता कुछ भी नहीं
जितनी मर्ज़ी आवाज़ लगाओ ‘अनंत’
अब वह तेरा सुनता कुछ भी नहीं
लेखक : स्वामी ध्यान अनंता
( चितवन, नेपाल )