मुझे सिनेमा पसंद है

हा.. मुझे सिनेमा पसंद है..

मै कई ऐसे लोगो को जानता हु की जो की सिनेमा के नाम पर नाक भौ सिकोड़ते है.. सिनेमा उनकी दृष्टि में हेय और निंदनीय कृति है.. वे सिनेमा को समाज के पतन का कारण मानते है.. सिनेमा ने ही देश का बंटाधार किया है यह मान्यता उन के जेहन में कही भीतर तक समा गयी है.. इस के बनिस्पत मै सिनेमा पसंद करता हु.. बहुत ज्यादा.. शायद कुछ दीवानगी की हद तक।

सिनेमा मे मेरी रूचि का मुख्यत कारण यह है की सिनेमा हमारे अरमानो का प्रतिबिम्ब है.. वे सब बाते.. वे सब हसरते जो की मेरे मन में है.. दिल में है.. दिमाग में है.. जो की पूरी नही होनी है.. जो की पूरी हो भी नहीं सकती.. और जब फ़िल्म में नायक यह सब पा लेता है तो मन को बड़ी ख़ुशी मिलती है।

मानो नायक ने नही मैने सब कुछ पा लिया है.. मानव मन का यह रसायन बड़ा अजीब है.. जो स्वयं नही कर पाता वो जब नायक करता है तो तालियाँ बज उठती है.. इंसानी मन का यह रहस्य कही बहुत गहरी पर्त में दबा है.. सदिया बीत गयी है मगर स्वयं को समझ हम अब तक नही पाये है।

नादाँ उम्र में ही मैने बहुत सिनेमा देखा है.. अब कोई यह अपेक्षा मत कर लेना की मैने विश्व स्तर का गुणी सिनेमा देखा होंगा.. नही.. ऐसा बिलकुल भी नही है.. मैने तो वो सिनेमा देखा है जो की मन में गुदगुदी पैदा करता है.. अरमान जगाता है और मुट्ठियां भिंच कर मन की भड़ास को कम करता है।

अमिताभ बच्चन जी का बिस पच्चीस गुंडों की पिटाई करना मुझे बहुत भाता था.. मानो ये गुंडे गुंडे नही बल्कि हमारी होटल में कई बार मुफ़्त की चाय डकार जाने आसपास के टुच्चे लोग हो.. मेरी कल्पना में अमिताभ जी मेरी तरफ से मुफ़्त की चाय पी जाने वाले इन बदमाशो की पिटाई करने वाले मेरे रहनुमा थे।

इन बातो को याद कर अब तो बड़ी हँसी भी आती है.. अहिंसा के कार्यकर्मो की पैरवी करने वाला मै अमिताभ जी की हिंसा से आनंदित होता था.. जिंदगी का सूक्ष्म अध्यन अब करने लगा हु तो लगता है नायक की हिंसा पर तालिया बजा कर कितने जन्मों के पाप को सर पर बांध लिया है.. फिर भी सच तो यही है की रोजमर्रा की जिंदगी में आज भी सिनेमा हावी है।

भगवान महावीर और श्री राम जी कभी स्वयं हो कर मन को नही जगाते है जब की सिनेमा तो अवचेतन मन में भी चिपका रहता है.. मन जरा भी तन्हा हुआ की सोच सिनेमा की और दौड़ती है.. सिनेमा के कलाकारों के बारे में बाते होती है.. सिनेमा के दृश्य आँखों के सामने से बहने लगते है।

कभी बसंती गोली चलाना सीखती है.. कभी ठाकुर के हाथ काटे जाते है.. कभी क्रांति की पत्नी बरसते अंगारो में शिशु को जन्म देती है.. कभी सावन के महिने में पवन शौर करता है.. कभी कोई कागज कोरा रह जाता है.. कभी जख्मी दिल बदला चुकाने होली पर गीत गाते है।

बात घूम फिर कर फिर वही आती है की आखिर ऐसा क्या है जो सिनेमा हमेशा मन में घुसा रहता है.. आईने के सामने खड़े हो कर जब इस का जवाब जानने की कोशिश की तो आईना व्यंग से मुस्करा उठा.. धीरे से आईने की आवाज कानो में आयीं.. साधारण सी तो शक्ल है भाई तेरी.. और लम्बा भी सलमान गोविंदा से ज्यादा क्या होंगा।

सिनेमा में जाने की सोच ही मत.. भले ही सिनेमा में घुसा रहे.. आईने के कटाक्ष से आहत हो मैने मुट्ठी बांध कर उसे घुसा दिखाया.. मै सोच में पड़ जाता हु.. किशोर अवस्था के दिन याद आ जाते है।

हीरो बनने की कितनी ललक थी.. मगर कभी गम्भीरता से उस राह पर कदम बढ़ाया नही.. और ये मुमकिन था भी नही.. परिवार तो मेरे शुरूआती दौर में लिखने के भी खिलाफ था.. न जाने मेरी कितनी कविताये.. न जाने कितने गीत किराणा की दुकान में लोगो को सामान में तोल कर दे दिए गए.. मै हाथ मलता रहा।

कोसता रहा और अपने भीतर जिद को भरता रहा.. जिद.. सिर्फ अपने मन की करने की.. मगर फिल्में कभी भी मेरी जिद में शामिल नही थी.. काश की होती।

सिनेमा वो तिलिस्म रचता है जिस में हर आम इंसान न चाह कर भी जुड़ता है.. सिनेमा आखिर है क्या.. एक आम इंसान की जिंदगी का वह पहलु जो की अधूरा है सिनेमा उस की पूर्ति करता है.. सपनो को ऊंचाइयों पर ले जाता है.. सिनेमा के चरित्र को दर्शक स्वयं में जीता है.. नायक के दुख में दुखी होता है।

उस के सुख में शांति महसूस करता है.. उस के लतीफे पर ठहाके लगाता है.. और युद्ध में उस की जित की प्रार्थनाएं करता है.. और जब कभी नायक अंत में चल बसता है तो दुखी मन से सिनेमा घर से बाहर आता है।

मै हमेशा एक आम आदमी बन कर ही सिनेमा देखता हु.. बहुधा लोग सिनेमा में दिमाग लगाते है की ऐसा सम्भव नही.. ऐसा असल जिंदगी में कर के बताओ.. मुझे यह बाते नही सुहाती.. असल जिंदगी में मै बीस मजली इमारत से कूद नही सकता यह सच है मगर जब नायक फलांगे लगाता है तो अच्छा लगता है क्यू की वो वह काम कर रहा है जो की मेरे बुते का नही है।

वो पचासो लोगो के बिच नायिका का हाथ अपने हाथ में ले प्यार मोहब्त के गीत गाता है जब की चार लोगो में मेरी पत्नी आज भी मुझ से बतियाने में संकोच करती है.. मतलब यही की नायक के जिम्मे वे सभी काम है जो एक आम इंसान अपने सीने में हसरते पालता है.. और जब हसरते पूरी हो तो भला किसे अच्छा नही लगेगा..?

सिनेमाई तिलिस्म में बंधे होने के बावजूद भी पिछले कुछ सालो से मै सिनेमा से दूर हु.. कभी कभार कोई फ़िल्म देख ली या दीगर बात है मगर सभी फिल्में.. पहला दिन पहला शो.. वाली बात अब नही रही.. आज के दौर की फिल्में मुझे नही भा रही है।

नये नये चेहरों के साथ नये नये प्रयोग हो रहे है.. संगीत का तो यह अजीब गरीब कालखण्ड है.. सालो हो गए है मगर कोई गीत मेरी जुबाँ पर नही चढ़ा है.. सुर संसार में इतना अकाल शायद पहले कभी नही पड़ा हो.. पता नही फ़िल्मकार गीत संगीत से मुँह क्यू फेर लेते है।

मुझे तो सन 70 और 80 के बिच की फिल्में भाती है और आज के दौर में निर्देशको ने कसम खायी है की करोडो रुपया फूंक देंगे मगर क्या मजाल की उस समय को जरा भी स्पर्श कर लेंगे.. और सच कहु.. सिनेमा का यह रूप देख कर ही मन व्यथित होता है की मै सुनहरे संसार से क्यू नही जुड़ा..?

फिर सोचता हु की गर मै वहा होता भी तो जो आज सोच रहा हु वेसा कर भी पाता… शायद नही.. भेड़ चाल मे मै भी शामिल हो जाता.. बाते बहुत है मगर सब बाते यहाँ करु उतना समय न तो मेरे पास है और न ही आप के पास.. लेकिन यह स्वीकार करने में मुझे कोई हर्ज नही की सिनेमा मुझ पर हावी है और मेरे जीवन को प्रभावित करता है।

अमिताभ जी.. धर्मेन्द्र जी.. देवांनाद जी.. हेमाजी.. माधुरी और श्री देवी जी.. इस के साथ और भी कई कलाकार है जो अक्सर मन में चमक जाते है.. ये वे लोग है जो माँ और बाबूजी की यादो से मुझ पर छाये रहते है।

मै जन्मदाताओं के साथ साथ इनकी भी यादो का आंनद लेता हु… सिनेमाघर से भले ही दूर हु मगर सिनेमा से नही.. महानायक अमिताभ जी की कभी कोई फ़िल्म मैने छोड़ी नही और दुःख है की पिछले कुछ सालो से उनकी कोई फ़िल्म मैने देखी नही.. मुझे क्षमा करो सिनेमा के भगवान.. अनेक अनेक धन्यवाद।

रमेश तोरावत जैन
अकोला

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