Nav Arsh ki pakhi
Nav Arsh ki pakhi

 

पुस्तक समीक्षा- 

नवअर्श के पाँखी “– नव क्षितिज की तलाश में।*

समीक्षक –  प्रो. (डॉ.) विजय महादेव गाडे

शोध निर्देशक एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग

बाबासाहेब चितळे महाविद्यालय, भिलवडी

ता. पलूस, जि. सांगली (महाराष्ट्र)

” रचनाकार की मौलिकता केवल शैली की नवीनता में नहीं,  उसके साथ चिंतन की दिशा और आस्था में भी है।”

–              एंटन चेख्व

भोपाल निवासी  अनुपमा श्रीवास्तव अनुश्री’ द्वारा लिखित और संदर्भ प्रकाशन भोपाल द्वारा सन 2018 में प्रकाशित नव अर्श के पाँखी’  काव्य संकलन कुल छह हिस्सों में विभाजित है, जिसे कवयित्री ‘अनुश्री’ ने बडे ही मनोयोग से लिखा है। विवेच्य संकलन की लगभग सभी कविताएँ मुक्त छंद में लिखी हैं, किन्तु इस संकलन की कई कविताओं में गेयता है।

प्रथम खण्ड में कुल 13 कविताएँ हैं, जिन्हें अनुश्री ने अपनी अनुभूतियों के द्वारा चित्रित किया है। धरती से अम्बर तक का कवयित्री का यह सफर यहाँ नजर आता है।

इस संकलन की सबसे बडी विशेषता यह है कि विवेच्य रचनाकार ने शब्दों का इस्तेमाल उचित ढंग से किया है और मूलतः वे अभिधा की कवयित्री है। इसका अर्थ यह नहीं कि व्यंजना और लक्षणा इनके शब्दों में नजर नहीं आती किंतु कविता का अर्थ समझने के लिए अधिक तकलीफ उठानी नहीं पडती।

समग्र काव्य संकलन पढने के बाद मन को एक असीम शांँति की अनुभूति होती है जो टी. एस. इलियट की ‘द वेस्टलॅण्ड’ की यादों को उजागर करती है।

जिंदगी की राहों में अनेक मुसाफिर मिलते हैं, जिनकी संगत सोहबत से हमारा जीवन खुशहाल और समृद्ध बन जाता है और इसलिए उनके प्रति शुक्रिया अदा करते हुए कवयित्री लिखती है –

वरना दिल हो जाता पत्थर का

और ख़ुद की धड़कन का भी पता नहीं चलता।’ (पृ. 11)

मानव का हित समष्टि में है इस बात को अक्सर मानव नजर अंदाज करता है और इसी कारण सारी दुनिया आज बारूद की ढेर पर बैठी हुई है।

एक चिंगारी के जलने का अवकाश समुची दुनिया खाक हो जाएगी क्योंकि आदमी मानवता एवं मानवतावाद को भूल बैठा है और इसका अंजाम प्रसिद्ध कवि साहिर लुधियानवी की प्रसिद्ध उर्दु नज्म ‘तसब्वुरात की परछाईयाँ उभरती है’ में हमने देखा और पढा भी है। कवयित्री को भी इस बात की चिंता है इसलिए –

कलयुग की करामात / दिग्भ्रमित से हैं जज़्बात / आसान राहों की चाह / संघर्ष, तप की किसे परवाह /

सारी सोच हित साधने, व्यक्तिगत / कुछ भी नहीं समष्टिगत। (पृ. 12)

‘दिल का मौसम’ कविता मनोव्यापारों को चित्रित करती है। आदमी चेहरे पर मुस्कराहटें लेकर घुमता है लेकिन उसके अन्दर के जज्बात उसे चैन से बैठने नहीं देते। लेकिन वह अपनी परेशानियों का इजहार नहीं करता। गालिब ने कहा भी है –

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है।’

इसलिए अनुश्री की यह पंक्तियाँ अनुचित प्रतीत नहीं होती –

साहिल पर टकराते तूफान का / अंदाजे बयाँ है क्या खूब।’ (पृ. 14)

“अस्तित्व” कविता का अंतिम हिस्सा बृहदारण्यक उपनिषद की स्मृतियाँ उजागर करता है –

‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्ण मुदच्यते। पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्णमेवावशिष्यते।’

जब कि अनुश्री ने लिखा है –

पूर्णत्व से प्रगट / पूर्णत्व में समाहित / सृष्टि के पुरातन / नवरूपों से झांँकता/

 मेरा अभिन्न अस्तित्व / कहीं भी अधूरा-अपूर्ण नहीं  (पृ. 16)

हमारे पूर्वजों में जीवन को यज्ञ कहा है और इस यज्ञ की अंतिम आहुति हमारे प्राण होते हैं तब जीवनयज्ञ समाप्त होता है। इस यज्ञ में समिधाओं का उल्लेख करते हुए अनुश्री ने पावन-अपावन सभी वस्तुओं का निर्देश किया है लेकिन बुरी चीजों से दूर रहना और उनका हवन करना जीवनयज्ञ का बडा पवित्र कार्य होता है और जीवन में परिवर्तन आता है –

अंधकार की कारा से नया नूर रोशन हुआ, ज्योर्तिमय जीवन यज्ञ संपूर्ण हुआ ।

उर्जा पूरित कण-कण मन हर्षाया, जीवन यज्ञ का पुण्य फल जग पर छाया।’ (पृ. 17)

कवि की अनुभूति जब पाठक की अनुभूति होती है तब वह कविता सफल एवं परिपूर्ण होती है यह टी. एस. इलियट ने अपनी प्रसिद्ध निबंध रचना ‘कविता का तीसरा स्वर’ में कही है। इसका निर्वाह इन कविताओं में हुआ है।

‘बातों का स्वाद’ इसकी अंतिम पंक्तियाँ –

फिसलना और आप के साथ संभलना, अच्छा लगता है।

हमेशा बने रहें ये हालात अच्छा लगता है।

धडकन के साज पर, नगमों की आवाज, अच्छा लगता है।

बनते रहें यूँ ही कुछ बात अच्छा लगता है।’ (पृ. 20)

चैतन्य महाप्रभु ने ‘प्रेम पुमार्थो महान’ अर्थात प्रेम यह पांँचवा और अंतिम पुरूषार्थ है जो सबसे महान है यह कहा था। जिसे सार्थक बनानेवाली यह पंक्तियाँ प्रेम महिमा को स्पष्ट करती है –

वेदों की वाणी, गीता की जुबानी / सीता, राधा और मीरा की कहानी/

रंग- बिरंगे इंद्र धनुष सी, जिंदगानी जिनके पन्नों पर सुख दुःख की रवानी।’ (पृ. 22)

नदीम क़ाज़मी का एक प्रसिद्ध शेर है –

‘जो भी मुलाकात थी, अधूरी मुलाकात थी ‘नदीम’

हर चेहरे के पीछे हजार चेहरे थे।’

कवयित्री की आत्माभिव्यक्ति इससे अलग नहीं हो सकती –

मन यूँ ही भरमाया था / संकुचित और डगमगाया था / क्या अपना क्या पराया था /

वो जो मिला अजनबी की तरह / अपना ही कोई हमसाया था।’ (पृ. 24)

बहुत बार जिन अनुभूतियों को मन ग्रहण करता है वह शब्दों से परे होता है और शब्द के द्वारा उसका स्पष्टीकरण देना मुश्किल होता है जैसे –

साहिल पर बैठकर समंदर में डूबा जो मन, लहरों में भीगा तन मन । किस कागज में संवरेगा!

एक एहसास बिना कहें, बिन सुने ,सब कह गया । एक लम्हा जो कहीं रह गया, किन हर्फों से लौटेगा ?’ (पृ. 26)

निदा फ़ाज़ली का एक दोहा है –

‘छोटा करने देखिए जीवन का विस्तार । आँखों भर आकाश है, बाहोंभर संसार।।’

जब कि अनुश्री की यह अवधारणा है –

आकाश जितना आप के पास उतना ही सबके पास।

कभी लगता यह भी है सबके अपने-अपने आकाश। (पृ. 27)

‘कौन हो तुम?’ में हमें रहस्यवादी स्वर सुनाई देते हैं। अर्थात यह हमारी अवधारणा है, किसी और की अवधारणा हम से अलग हो सकती है। प्रसाद जी ने ‘आँसू’ में लिखा है कि व्यक्तिगत निराशा ‘विश्व प्रेम’ का रूप ग्रहण कर सारे विश्व की पीड़ा को स्वीकार कर उसे सुखमय बनाना चाहता है –

‘मानस जीवन वेदी पर परिणय हो विरह मिलन का

सुख दुःख दोनों नाचेंगे, है खेल आँख का मन का।’

जब कि अनुश्री की कविता प्रसाद की अवधारणा से आगे जाकर कहती है –

तुम्हारे रास्तों पर चल कर जाना / तुम्हें समझना है आसान /

 तुम सच में हो बेहद / सरहदों से परे अनहद’ (पृ. 28)

विवेच्य रचनाकार की काव्यधारा में” जगह – जगह  रोमांटिसिज्म के स्वर भी सुनाई देते हैं, जो उनकी वाणी को उचित गहराई प्रदान करते हैं।”

दूसरे खण्ड में कुल 14 कविताएँ हैं जो नारी विमर्श को अभिव्यक्त करती है। सीमोन द बुआ ने अपनी विश्वविख्यात रचना ‘द सेकंड सेक्स’ में लिखा है, ‘नारी पैदा नहीं हीती, नारी बनायी जाती है’ इस बात का एहसास इस खण्ड की कविताओं को पढते समय बार-बार हो जाता है।

नारी विमर्श के पीछे सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नारी जिस सम्मान की अधिकारी है वह अधिकार उसे नहीं मिलता जो उसे मिलना आवश्यक है। इस खण्ड में कई स्थानों पर यह बात उजागर होती है।

जब तक समाज अपनी अवधारणा नहीं बदलेगा नारी को सम्मान नहीं मिलेगा। दूसरी उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि नारी को खुद अपनी कीमत तय करनी होगी और पहचाननी होगी नहीं तो पुरूष प्रधान समाज व्यवस्था उसकी कीमत तय करेगा। जफर अली खान ने कभी लिखा था –

‘खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली

न हो जिसको खयाल आप अपनी हालत के बदलने का।’

सवाल समाज की संकीर्ण सोच विचार का है इसलिए आहत होकर कवयित्री लिखती हैं –

कब खत्म होगी ये संकीर्ण सोच और मानसिक विकृति / कि आहत होकर नारी को स्वयं ही/

लेनी पडे अपने जीवन से मुक्ति / सडी-गली परंपराओं को अब नहीं ढोना है /

दामिनी’ के दमन से जागृत देश का कोना-कोना है।’ (पृ. 31)

आधुनिक मानव जाति के सामने दो सबसे बडी विकराल समस्याएँ हैं जिसमें प्रथम है ‘आधुनिकताहीन संस्कृति’और दूसरी है ‘संस्कृतिहीन आधुनिकता’ जिसे शंभुनाथ ने स्पष्ट किया है। हम आधुनिक न होकर सीधे उत्तर आधुनिक बन गए।

जिस दिन इस देश में वृद्धाश्रम खोले गए, लिव इन रिलेशनशीप का आगाज हुआ, पालनाघरों का निर्माण हुआ, समलिंगी वैवाहिक सम्बन्धों को स्वीकृति मिली, इक नई अपसंस्कृति का जन्म हुआ और गर्भ परीक्षा के माध्यम से नारी गर्भ और भृण हत्या होने लगी हम उत्तर आधुनिक हुए।

हमें तो यह डर लगता है कि भविष्य में शायद भाइयों की कलाइयाँ सूनी रहेगी क्योंकि इन कलाइयों पर राखी बांधने के लिए हाथ ही नहीं होगे। हम पहले गाय को माता कहते थे अब हमने माता को गाय बना दिया है।

अखबार या न्यूज चैनल्स पर हररोज जोर-जर्बदस्ती की खबरें हम सुनते और पढते हैं। हिन्दुस्तान में अब कहाँ नारी के प्रति सम्मान नजर आता है।

सबसे बडी चिंता की बात यह है कि इन सभी बातों को अंजाम देनेवाली कोई नारी ही होती है इसलिए व्यथित अंतकरण से यह कहना पडता है, ‘आखिर नारी ही नारी की दुश्मन होती है’ इन सब को स्पष्ट करनेवाले कई स्वर नारी विमर्श में उभरते हैं। विवेच्य कवयित्री की कविता में भी यह बात उभरती है। ‘कन्या सिर्फ रत्न नहीं’ कविता की कुछ पंक्तियाँ –

अल्हड उन्मादिता का न हो दमन, नए सुर भावों में हो जिसका सृजन /

सागर की गहराइयों में मोती सा जिसका मन / अपना चेहरा दिखाई दे, ऐसा है वो दर्पण’ (पृ. 32)

हम उस पीढी के प्रतिनिधि हैं जहाँ माँ पाँच-पाँच संतानों का आसानी से पालन-पोषण करती थी और आज पाँच बच्चे जिसमें केवल लडके ही नहीं अपितु लडकियाँ भी आती हैं, मिलकर एक माँ को संभाल नहीं पाते।

बचपन में हम कहते थे ‘माँ मेरी है, मेरी है, आज हम कहते हैं माँ तेरी है, तेरी है।’ अब के इस आलम में कौनसा मातृत्व दिवस हम मनाते हैं ? इसलिए अनुश्री की यह बात हम सब पर सार्थक एवं प्रासंगिक प्रतीत होती है –

तभी सार्थकता है मातृत्व दिवस की, आइये / इस आत्मिक अमर बंधन को कुछ और अटूट बनाए’ (पृ. 33)

कभी गोपालदास ‘नीरज’ ने हमसे बात करते हुए कहा था – ‘अनचाहा ही सदा मिला जीवन में मनचाहा नहीं’ कवि नीरज की इन पंक्तियों का स्मरण करानेवाली यह पंक्तियाँ जिसमें किसी चोट का अनुमान होता है –

जिंदगी से चाहे अनचाहे, जो गया था मिल / कुछ हिस्सा उसका भी, हो गया शामिल/

गिले शिकवे उस पल के पन्नों पर उडते से मिले / कुछ सपने, अरमान भी हर्फों में थे कसे /

 कुछ अजनबी की भी उनमें थें बसे।’ (पृ. 36)

अनुश्री ने नारी को महाकाव्य कहा है लेकिन हमारी अवधारणा के तहत नारी का खण्डित जीवन उसे खण्डकाव्य के अधिक नजदीक लाता है क्योंकि –

खुद को बाँट कर सबको करती हो पूरा / फिर भी कुछ रह जाता है अधूरा /

करती हो जो पूर्णत्व प्रदान / क्या पाती हो सच्चा प्रतिदान         नारी की गहराइयों को छू सके /

पुरूष का कहाँ ऐसा उत्कर्ष / एक कोना जो रह जाता है कहीं खाली / पुरूष नहीं भर पाएगा कभी।’ (पृ. 37)

नारी विमर्श के साथ कन्या विमर्श भी इस खण्ड में कई स्थानों पर दृष्टिगोचर होता है जो हमारी उपर्युक्त अवधारणा को बल प्रदान करता है। आज जो भृण हत्या होती है उस पर कवयित्री ने लिखा है –

कहती है ‘अनुपमा’ नहीं है, बेटी की उपमा / हर बेटी है कुछ खास, कर लीजिए इसका अहसास /

 न हो उसका न हो वह व्यर्थ बदनाम / न रौंदी जाए, व्यर्थ रूढियों का बहाना बनाकर /

 न मारी जाए, अजन्मी कोखों में आकर।’ (पृ. 39)

खुद की अस्मिता को पहचान कर वर्तमान नारी पुरूषों को दाँव देते हुए कहती है कि मेरा धर्म और इमान तुम्हारी तरह नहीं है क्योंकि –

जब तुम से ‘सौ कदम आगे’ खुद को खड़ा पाती हूँ / तब तुम्हारे झूठे पौरूष, दम्भ, कमजोरियों /

और सही मायने में नपुसंकता का शिकार पाती हूँ’ (पृ. 43)

‘सीता के राम’ कविता के संदर्भ में विवेच्य रचनाकार और हमारी अवधारणा अलग है। अपने जीवन में हमने संस्कृत भाषा के अध्ययन के लिए कुछ समय दिया है और वाल्मीकि रामायण का अंतिम काण्ड बाद में जोडा गया है यह अनेक भाषाविदों का मत है।

क्योंकि अंतिम सर्ग की भाषा वाल्मीकि की भाषा से मेल नहीं खाती। हमारी यह मान्यता है कि एक क्रौंच पक्षी के वध के कारण वाल्मीकि ने रामकथा लिखी और वह सीता त्याग कैसे चित्रित कर सकते हैं।

विवाद के लिए हम मानते हैं कि राम ने सीता का त्याग किया लेकिन वह पति होने के नाते नहीं अपितु राजा होने के नाते किया। सीता त्याग के बाद राम चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और अश्वमेध यज्ञ के समय सीता की सुवर्ण प्रतिमा बनाकर यज्ञ विधि पूर्ण किया।

राम की इस महानता को क्या हम कभी समझ पाएँगे या नहीं यह हमारे सामने यक्ष प्रश्न है। समीक्षा करते समय यह जरूरी नहीं कि रचनाकार की सभी बातों से कोई आलोचक सहमति दे, कुछ स्थान विवाद पूर्ण भी हो सकते, पर भी विचार विमर्श होना जरूरी है ऐसा हम मानते हैं। किन्तु इस कविता में सीता के राम क्या करते हैं ? जिसे अनुश्री ने स्पष्ट करते हुए लिखा है –

सज़ाएँ भी नियत हैं करते अधूरे कर्तृत्व, भूलों की /

जैसे बस नारियाँ हेतु है डगर मर्यादा, उसूलों की।’ (पृ. 44)

अग्निपरीक्षा के समय सीता राम से कहती है –

‘मदधीनं तु यत् तन्मे हदयं वर्तते, पराधीनेषु गात्रेषु कि करिष्याम्यनीश्वरा

त्वथा तु नर शार्दुल क्रोधभेवानुवर्तत, लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरूस्कृत्म।’ (वाल्मीकि रामायण 05/26/10)

इन पंक्तियों से सीता की स्वाभिमानी प्रवृत्ति तो स्पष्ट होती ही है लेकिन वह राम को ‘नरशार्दुल’ कहती है जिससे राम के व्यक्तित्व का भी हमें परिचय प्राप्त हो जाता है।

अनुश्री का यह कथन है कि नारी विमर्श का काफी चर्चा हुआ है अब पुरूष जाति का भी अध्ययन होना जरूरी है। बात से हम भी सहमत हैं किन्तु वर्तमान नारी यह अपवाद छोडकर निश्चित ही सुरक्षित है इसके संदर्भ में हमारे मन में कोई भी किन्तु नहीं है। सभी पुरूष धोखेबाज एवं फरेबी होते हैं यह बात भी सही प्रतीत नहीं होती। कवयित्री लिखती हैं –

किसी ने सच कहा है, पोथी पढिए, पढिए गीता / किसी मूर्ख की, हो परिणीता / पुरूष पर भी शोध हो कभी /

 धोखा और फरेब के बीजांकुर मिलेंगे / अध्ययन करने को / कुछ रखा ही नहीं’ (पृ. 47)

तुलसी ने ‘मानस’ की रचना की जिसमें उन्होंने सीता, सती, पार्वती, अहल्या, मंदोदरी आदि अनेक नारी चरित्र सुंदर ढंग से निरूपित किए हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि तुलसी का स्त्री की ओर देखने का क्या नजरिया था किन्तु एक पंक्ति के कारण उनकी आलोचना की जाती है जब कि कबीर को नारी स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक माना जाता है, उसने नारी के बारे में क्या कहा है ?

इन सब पर विचार विमर्श की जरूरत है ऐसा हम मानते हैं। हालांकि यह स्वतंत्र आलेख का विषय है कहने के बजाय स्वतंत्र पुस्तक का विषय है ऐसा हम मानते हैं और इस बात को यहीं छोड देते हैं।

किसने मुझे कहा, पतंग हूँ मैं’ कविता के द्वारा नारी अस्मिता की अलग पहचान उजागर हो जाती है। आज की नारी अपना आजाद वजूद दुनिया के सामने रखना चाहते हुए कहती हैं जो निःसंदेह इस संकलन की सर्वश्रेष्ठ कविता है –

गर मान भी लो पतंग मुझको / तो भी यह पक्का कर लो / अपनी डोर कभी दी नहीं तुम को /

डोर भी मेरी और उडान भी मेरी / अपने फैसले खुद करती दबंग हूँ मैं / किसने मुझे कहा, पतंग हूँ मैं।’ पृ. 52

हमारे जीवन में खुशियों के अनंत क्षण आते हैं किन्तु हमारा उनकी ओर ध्यान नहीं रहता या हम अपनी जिंदगी में इस कदर मसरूफ होते हैं कि उन्हें नजरअंदाज करते हुए हम आगे बढ़ जाते हैं। इसी मनोवैज्ञानिक बात को अनुश्री ने ‘खुशियों का एनसाइक्लोपीडिया’ कविता के द्वारा स्पष्ट किया है।

इस संकलन का तीसरा खण्ड प्रकृति चित्रण या प्रकृति विमर्श को उद्घाटित करता है। इस खण्ड में कुल 17 कविताएँ हैं जो विवेच्य रचनाकार के प्रकृति प्रेम का निरूपण करती है। प्रकृति भी कविता की तरह मानव की आदिकाल से सहचर है और मनुष्य प्रकृति की संगत में ही बडा बन जाता है। प्रकृति का मादक चित्रण इस कविता में मिलता है –

झूम उठा कण-कण ओज से भर प्रकृति के संग / गुनगुनाती पुष्पों की ओढ़नी ओढ़ /

छेड रहा नयी धुन मदन / ऋषि, मुनी, गुनी जनों को भायी / फिर बसंत बहार छाई’ (पृ. 59)

‘रहिमान पानी बिनु सब सून’ पंक्ति प्रसिद्ध है। पानी की महत्ता को अनुश्री ने ‘अपना गुण’ और ‘बारिश’ कविताओं के माध्यम से चित्रित किया है। प्रकृति के साथ मानव जाति का संतुलन जब बिगड़ जाता है तब –

पर कभी आक्रोशित होकर / प्रकृति से खिलवाड करने वालों पर /

कहर ढाकर मानवता को सम्यक / संतुलित व्यवहार का संदेशा हैं दे जाती।’ (पृ. 63)

चांँदनी रात में विचरण करते समय मन के कुछ जख्म, वेदनाएँ, टीस ताजा हो जाती है जब चाँदनी –

चांँदनी में ठहरे कुछ पल / निश्चल अविचल, असहज, बेकल / थपथपाकर उनको सहलाती चाँदनी।’ (पृ. 65)

आम तौर पर कवियों की वर्षा ऋतु प्रिय होती है। अपवाद तुलसी का है, गोस्वामीजी ने शरद ऋतु का वर्णन ‘मानस’ में गहन गंभीरता से किया है। पावस उत्सव की परिणती –

आइए कर लें, कुछ बहारें चोरी / बन जाए बूंँदों के हम जोली / झूमें , नाचें, गायें कहती है /

शहरी बाला से गाँव की गोरी / अब नहीं रहेगा कोई अनुछुआ / बूंँदो ने बरसकर दी है ये दुआ।’ (पृ. 67)

बादलों का चित्रण करते समय कवयित्री की कलम खुद पायल बन जाती है और कविता में संगीत उभरता है–

कायनात जैसे एक नृत्यशाला बन गई / हवाओं ने बूंँदों की पायल पहन ली /

छम छम छमा छम / मंत्रमुग्ध सा सारा आलम।’ (पृ. 72)

हर रचनाकार अपनी माटी से जुडा होता है और माटी से कट कर कोई भी रचनाकार कुछ भी लिख नहीं पाता। माटी की लगावट का अदभुत वर्णन कवयित्री ने सुंदर शब्दों के माध्यम से किया है –

बनाकर मिटाना, मिटाकर गढना / अमूर्त को मूर्त करना /

कितनी दूरियाँ तय करती है / सदियों से कितने फासले भरती है।’ (पृ. 73)

प्रदूषण वर्तमान की सबसे बडी समस्या है और इसकी ओर अनदेखी करना मूर्खता ही होगी। कवयित्री ने अपनी चिंता जाहीर करते हुए लिखा है –

प्रकृति से खिलवाड करके जनजीवन / नैसर्गिक से असामान्य बनाया /

 जिस प्रकृति से सब कुछ मिलता है / उसकी तरफ हमारा बड़ा फर्ज बनता है /

 कब मानव पर्यावरण के प्रति जागरूक होगा / फिर से वातावरण, सुरम्य, शुद्ध /

नैसर्गिक प्रदूषण मुक्त होगा  (पृ. 76)

‘जब चली ठंडी सर्द हवा, मैंने तुम्हें याद किया’ पंक्ति का स्मरण देनेवाली अनुश्री की यह पंक्तियाँ –

ठहर-ठहर गुजरती हवा आईने से जल पर / करती चली बेतकल्लुफ चित्रकारियाँ /

बारिशों ने भिगोई जो शाम ओ सहर / तरबतर हो गया है दिल का शहर।’ (पृ. 77)

जीवन में बहुत बार हम पूर्व दीप्ति को महसूस करते हैं और वही क्षण फिर दोहराना चाहते हैं लेकिन घडी के काँटे वापस अतीत में हमें नहीं ले जा सकते इसलिए उन क्षणों को याद करना ही हमारे हाथ होता है –

‘झर-झर झर उठे स्मृति के झरोखों से / इन लम्हों को आजाद किया / एक बार फिर जी लिया।’ (पृ. 79)

चित्रकला की सफलता का रहस्य अनुश्री ने केवल दो पंक्तियों में स्पष्ट किया है –

इसलिए ‘रंग’ कहीं भी बिखरे हों / पलकें उनके उजालों से रंगी हो।।’ (पृ. 80)

कृषि को आज तक कुछ संत महात्माओं का अपवाद छोडे तो किसी ने भक्ति नहीं कहा है। हमारे देश में प्राचीन काल से दो प्रमुख संस्कृतियाँ थी – ऋषि संस्कृति और कृषि संस्कृति जो दोनों एक के लिए पूरक थी और आज इसके विपरीत मंजर नजर आता है इसलिए अनुश्री की यह पंक्तियाँ अनुचित प्रतीत नहीं होती –

यह आनंदोत्सव यूँ ही रहे ठहरा / तन-मन धूला-धूला-निखरा / परिवेश रहें सजा- संँवरा /

 हो इस तरह खुदा की बंदगी / खिलखिलाती रहे सब की जिंदगी।’ (पृ. 82)

इस संकलन का चौथा खण्ड भारतीयता और हिन्दी से प्रभावित है। इस खण्ड में कुल छह कविताएँ हैं जो हमें भारतीयता के साथ हिन्दी का परिचय देती है। हिन्दी अब विश्व हिन्दी बन गई है और भविष्य में निश्चित ही हिन्दी विश्व का स्वप्न साकार होगा इसके प्रति हमारे मन में कोई आशंका नहीं है। अनुश्री के लिए हिन्दी –

स्नेह में पगी हमारी मातृभाषा हिन्दी / साहित्य सृजन, कला, संस्कृति, सौंदर्य की परिभाषा हिन्दी’ (पृ. 86)

‘भारतीयता’ क्या है ? इसपर आज तक असंख्य विचारकों ने अपना विवेचन प्रस्तुत किया है। फिर भी वह अधूरा-सा प्रतीत होता है। कवयित्री के अनुसार हमें अपनी भारतीयता और संस्कृति को सुरक्षित रखना हमारा फर्ज है इसलिए कवयित्री लिखती है –

जो करते हैं अपनी जड़ों को पुरजोर सिंचित / उन्हीं के ह्दय में सिर्फ भारत बसता है /

 क्योंकि खुद को ‘भारतीय’ कहना और सच में होना बडा फर्क करता है।’ (पृ. 88)

भारतीय होने का अर्थ कवयित्री बहुत कम शब्दों में बयाँ करती हैं –

इंटरनेट, स्काइप, चैट भी नहीं भर पाता खालीपन /

तब  तन तो परदेस चला जाता है, पर देश में ही रह जाता है मन।’ (पृ. 89)

इस संकलन का पाँचवा खण्ड समसामयिक परिवेश की भयावहता को प्रस्तुत करता है। इस खण्ड में कुल 16 कविताएँ हैं। वर्तमान परिदृश्य की डरावनी तस्वीर को अनुश्री ने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है –

हर जगह भीड बेशुमार, संचार साधनों की भरमार / शान शौकत, साजो-समान, नए वस्त्रों का भंडार/

फिर भी तनहाई ओढ़ता, तन्हाई पहनता / तन्हाइयों का शिकार आदमी।’

बाजार ,शिकायत , कविताएँ भी आधुनिक मानव की त्रासदियों को प्रस्तुत करती है।

नकाब ओढ़कर जीनेवाले लोगों के प्रति कवयित्री की अवधारणा देखिए –   झूठ, दिखावा, आडंबर सिर्फ यहीं / कितना ! कब तक। क्या खुद से हटाते हैं /

ख़ुद से छिपा है कभी। झाँको अंतर्मन में / कभी पहचानो तो सही /

 जब ये आवरण हटाते हैं / खुद से तो नहीं डर जाते हैं।’ (पृ. 102)

कैक्टस, भागमभाग, वसुधैव कुटुंबकम व्यक्तिवाद, गुजरते हुए पलों का हिसाब आदि कविताएँ जीवन मूल्यों के विघटन को स्पष्ट करती है। हमारे जीवनमूल्य क्या थे ? और आज हमने किन मूल्यों को आपने गले लगाया है इसका मनोरम चित्रण कवयित्री ने किया है। इतना जहरीला एवं भयावह मंजर होने के बावजूद अनुश्री को अभी भी इस बात पर भरोसा है, और वह भविष्य के प्रति आश्वस्त नजर आती है –

अच्छाइयों पर बुराइयों का राज / चल नहीं सकता इससे सही कामकाज /

 ये तो एक बीमारी है / जो सारी दुनिया पर भारी है।’ (पृ. 111)

सोशल मीडिया भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप का स्मरण कराता है और फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम, पाँड्स और न जाने कितने इसके चेहरे हैं।

हमने कभी फेसबुक के संदर्भ में ही कहा था ‘फेसलेस बुक अर्थात सोशल मीडिया के इस आक्रमण के कारण हर वर्ग एवं उम्र के लोग उसके प्रति आकर्षित होते हैं और अपना जीवन खराब कर रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि इन पंक्तियों के लेखक का फेसबुक एकाउंट नहीं है।

हमारा भी लगभग सोशल मीडिया के हर हिस्से में एकाउंट है लेकिन उसे कितना महत्व देना है यह हमारे हाथ है इसलिए कवयित्री का यह कथन बेजा नहीं लगता –

कैसे-कैसे नाम, चेहरे, अंदाज नजर आते हैं / फेसबुक पर, फेस छापने के / नए-नए तरीके अपनाते हैं /

युवाओं को उलझाती, ये फंतासी की हाइट / ग्लोबलाइझेशन की देन, ये सोशल साइट्स।’ (पृ. 112)

याद रहे अब सोशल मीडिया सोशल नहीं रहा वह नितांत वैयक्तिक बातों के लिए ही इस्तेमाल होता है और कभी-कभी निजी एवं गोपन बातों का भी इसके द्वारा निःसंकोच ढंग से इजहार होता है।

जो हाल सोशल मीडिया का है वही हाल टी. आर. पी. के लिए दूर तक खींचे जानेवाले टी. वी. सीरियल्स का भी है जिसे अनुश्री ने बेबाक ढंग से और व्यंग्यात्मक लहजे से स्पष्ट किया है। इसलिए अंत में कवयित्री लिखती हैं –

टी. वी. समाज का आईना है टी. वी – फिल्मों से / बनता बिगडता समाज है / इस पर शोध की दरकार है।’ (पृ. 120)

काव्य संकलन के अंतिम खण्ड में कुल 23 कविताएँ हैं। इस संकलन का शीर्षक ‘नव अर्श के पाँखी’ कविता भी अंतिम खण्ड में है। ‘मैं भगवान के द्वारा निर्मित मास्टर पीस हूँ’ यह भावना अगर हर मानव के मन में होगी तब वह प्रगतिपथ पर चल सकता है ,यह कवयित्री की अवधारणा है। इसलिए वे लिखती हैं –

मैं किसी आत्मा किसी बंधन में नहीं / दूर आस्माँ में मेरी परवाज / अपनी गति से गतिमान /

 सबसे जुदा अपना अंदाज / अंतर्मन में बस यह एहसास चाहिए।’ (पृ. 122)

कवयित्री द्वारा कविता की परिभाषा कितने महीन शब्दों में प्रयुक्त हुई है –

अपने वक्त की धारा में आए / सब फूल कांँटों को सहेजती /

अतीत को आईना बना, नए डग भर/ भविष्य की ओर देखती है कविता।’ (पृ. 132)

‘रंगो की फुहार’ कविता का अन्त अत्यंत हदयस्पर्शी और कवयित्री ने इससे लोकमंगल की भावना को एक नया आयाम दिया है –

यही दुआ है कि फिर से छाए, वह हल्दी- चन्दन, टेसु के रंग / फिर महके प्रेम, सौहार्द अपनापन /

अबीर -गुलाल की महक संग / सब पर चढे सिर्फ एक / ‘प्रेम और इन्सानियत’ का रंग।’ (पृ. 137)

जीवन क्या है ? इसपर अनेक विचारकों ने अपने तर्क प्रस्तुत किए और अन्त में वे भी मौत का दामन थामकर इस दुनिया से चले गए, क्योंकि जीवन को समझना इतना आसान नहीं है। इसलिए कवियत्री का यह कथन बेबुनियाद नहीं लगता जिन्दगी ने क्या कहा –

एक दिन मिली तो हाथ थामकर बोली / एक जिंदगी लग जाती है, समझने में जिंदगी।’ (पृ. 139)

कुल छह खण्डों में विभाजित दुरूहता से मुक्त इन 89 कविताओं का यह काव्य संकलन कवयित्री अनुपमा श्रीवास्तव ‘अनुश्री’ के प्रति उम्मीदें बढानेवाला है।

उच्च शिक्षा ग्रहण कर उन्होंने काव्य और साहित्य के प्रति जो अपना रूझान दिखाया है ,वह निश्चित ही तारीफ के काबिल है इसके प्रति हमारे मन में कोई आशंका नहीं है।

अपनी कलम से उन्होंने भारतीयता, मानवतावाद, स्त्री, तीज-त्यौहार, देश प्रेम, प्रकृति आदि पर अपनी बात रखते हुए अपनी कलम की सार्थकता को सिद्ध किया है।

व्यंग्यात्मक  लहजा, बेबाक ढंग, कोमलकांत पदावली के साथ हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है जिससे कविता पाठक को निश्चित आकर्षित करती है।

इस संकलन में अनेक विमर्श उजागर हुए हैं और हर विमर्श की अंतिम परिणति यह प्रेम में ही होती है इसलिए हम इस नतीजे पर आते हैं कि “प्रेम ही इस संकलन का प्राणतत्व है।”

 

कवयित्री का यह प्रथम काव्य संकलन है इसलिए भविष्य में उनके और भी काव्य संकलन प्रकाशित होगे ,यह उम्मीद जगाते हुए हम उन्हें बधाई देते हैं।

हमारे प्रिय कवि मिर्जा गालिब का एक सुंदर शेर है –

‘अब हम वहाँ पहुँच गए हैं ‘गालिब’

जहाँ से हम को हमारी खबर नहीं होती।’

सुश्री ‘अनुश्री’ भविष्य में वह मुकाम हासिल करेगी इसी दुआ के साथ हम अपनी बात को यहाँ विराम देते हैं।

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‘अनुश्री’ अनुपमा श्रीवास्तव – नव अर्श के पाँखी, संदर्भ प्रकाशन, भोपाल 2018

 

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