Nazar Chura ke
Nazar Chura ke

नज़र चुरा के सभी आज कल निकलते हैं

( Nazar chura ke sabhi aaj kal nikalte hain )

 

नज़र चुरा के सभी आज कल निकलते हैं
न जाने किसलिए इक दूसरे से जलते हैं

ऐ काश वक़्त पे हर काम कर लिया होता
ये सोच सोच के हाथों को अपने मलते हैं

जो सारे ख़ाब हक़ीकत में मैंने देखे थे
वो बन के अश्क मेरी आँखों से निकलते हैं

बड़े ख़ुलूस से मैनें तुझे पुकारा था
मगर सुना है तुझे, यार अपने खलते हैं

तेरी गली के सभी लोग तन्ज़ हैं कसते
कि हमभी सर को झुका, राह अपनी चलते हैं

तुम्हारी बज़्म में हर पल धुआँ सा फैला है
हथेलियों पे सभी जान ले के चलते हैं

लगा के जाम को होंठों से तुम करो ख़ाली
भरे हों जाम अधूरे तो वो उछलते हैं

किसी भी विष से नहीं कम सवी जफा उनकी
सौ मुश्किलों से मगर हम भी तो निगलते हैं

 

सवीना सवी

( अम्बाला )

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