योग की कक्षा में एक महिला लगातार मुस्कुराए जा रही थी ।बीच-बीच में वह ऐसे तर्कपूर्ण बात करती की लगता संसार की सबसे खुशनसीब वही हो। कभी-कभी वह सारे शरीर को तोड़ मरोड़ देती । मैं कई दिनों से देख रहा था कि क्यों वह ऐसे उल्टी सीधी हरकतें करती रहती है। कौन सा ऐसा गम था जो इसे ऐसे हालात बनाने को मजबूर किया ।

बाद में पता चला कि बचपन में ही निर्मला की पितृसुख से वंचित होना पड़ा। पिता ने जब वह 12- 13 वर्ष की रहीं सन्यास ले लिया। घर में वह इकलौती संतान थी । ऐसे में पिता का संन्यास लेना हुआ सहन नहीं कर सकी। पिता के जीवित रहते हुए पितृ सुख से वंचित रही।

धीरे-धीरे समय बदलने के साथ ही निर्मला यौवन की दहलीज पर कदम रखने लगी थी।बचपन का अल्हड़पन अब उसके लिए गले की बेड़ियां बनने लगे ।समाज के रोक टोक ने उसे घर की चारदिवारी में कैद होने को मजबूर कर दिया । ऐसी घुटन भरे जिंदगी से तो जीवन समाप्त कर लेना उसे अच्छा लगता ।एक बार उसने प्रयास भी किया परंतु बगल वाली काकी ने बचा लिया।

वह काकी से उलाहना देते हुए कहने लगी -“आखिर काकी , क्यों मुझे आपने बचाया। मैं मरना चाहती हूं । मुझे मर जाने दो काकी। इस प्रकार से घुट घुट कर जीने से तो अच्छा है एक बार में ही जीवन समाप्त कर लिया जाए। काकी यह जवानी अब सहन नहीं होती ।

पापा ने तो भगवान की खोज में संन्यास ले लिया । अम्मा तो बचपन में ही चलीं गईं। परंतु पापा को एक बार भी अपनी बेटी के बारे में नहीं विचार आया कि क्या होगा मेरी बेटी को? कैसे अकेले जीवित रह पाएगी मेरी लाडली ।

लोगों के ताने अब सहन नहीं होते। आखिर करूं तो क्या मैं क्या करूं । मैं कहां जाऊं इस अभागन को कौन स्वीकारेगा । यह दुनिया बहुत लुच्ची है । केवल धन की प्यासी है । उसे किसी की भावनाओं की कोई कद्र नहीं ।”

कहते हुए वह फूट-फूट कर रोने लगी । उसके आंसू देख कर ऐसा लगता था जैसे दुखों का सैलाब नदी की धार बन गई है। सच कहती है निर्मला जो भी कहती है । मातृ- पितृ विहीन वह भी धनहीन से कौन शादी विवाह करेगा ।क्या जिंदगी निर्मला को यूं ही गुजरना पड़ेगा?

संसार को ब्रह्म ज्ञान करने वाले की बेटी आज अर्ध विक्षिप्त होकर दर-दर भटकने को मजबूर है । क्या पिता का कर्तव्य मात्रा बच्चों को जन्म देना भर है? आवेश में आकर पिता ने सन्यास तो ले लिया पर निर्मला बिटिया को फुट-फुट कर जीने को विवश छोड़ दिया ।

धीरे-धीरे उम्र बढ़ती ही जा रही है । सर के बाल सफेद होने लगे हैं । चेहरे पर झुर्रियां दीखने लगी है। 35 वर्ष की उम्र में भी वह 55 की लगने लगी । संसार के सारे नाते रिश्तेदार अब जैसे खाने को दौड़ते हो । जीने की कोई आप नहीं बची तो वह साधु साध्वियों की सेवा में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। साधु समाज ही करतूतों से यहां भी उसे घुटन सी होने लगी है ।

परंतु अच्छे बुरे लोग तो हर जगह होते हैं हमें अच्छाई ही देखनी है । ऐसा सोचकर वह संयम पूर्ण जीवन जीते हुए प्रभु भक्ति में ही जीवन समर्पित कर देना, जीवन का लक्ष्य बना लिया है । करें भी तो क्या करें ? इसके अलावा दूसरा मार्ग भी तो नहीं दिखता ? वह जीवन के सच को समझ चुकी थी।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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