परिवार सब टूट रहे हैं
परिवार सब टूट रहे हैं
संस्कार छूट रहे हैं कुटुंब परिवार सब टूट रहे हैं।
संदेह के घेरे फूट रहे हैं अपने हमसे रूठ रहे हैं।
घर-घर दांव पेंच चालों का दंगल दिखाई देता है।
कलही कारखाना घर में अमंगल दिखाई देता है।
संस्कारों की पतवार जब भी हाथों से छूट जाती है।
परिवार की डोर एकता नैया मंझधार डूब जाती है।
बाजारवादी बवंडर में पारिवारिक तंबू उखड़ गया है।
रिश्तो की डोर टूट गई है घर तार-तार बिखर गया है।
स्वार्थ ने डेरा डाल लिया है घर घर में परिवारों में।
अनैतिकता समा रही अब नव पीढ़ी संस्कारों में ।
अहम आज टकरा रहा है भाई भाई के मनोभावों में।
सत्य सादगी खो रहे हैं विश्वास जमा है अलगावो में।
दिखावे का ग्रहण लग चुका चकाचौंध अब हावी है।
अपनापन हो रहा ध्वस्त बस मतलब ही प्रभावी है।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )
यह भी पढ़ें :