भाग्यहीन | Poem bhagyaheen
भाग्यहीन
( Bhagyaheen )
कहाँ गए रणछोड द्रौपदी, पर विपदा अब भारी है।
रजस्वला तन खुले केश संग,विपद में द्रुपद कुमारी है।
पूर्व जन्म की इन्द्राणी अब,श्रापित सी महारानी है।
पांच महारथियों की भार्या, धृत की जीती बाजी है।
हे केशव हे माधव सुन लो,भय भव लीन बेचारी है।
नामर्दो की खुली सभा मे, बेबस भारत की नारी है।
उत्तम कुल में जन्म लिया, उत्तम कुल में ही ब्याही है।
उत्तम है सब बन्धु बान्धव,उत्तम कुल की यह नारी है।
इन्द्रप्रस्त की पटरानी की, देखो क्या लाचारी है
केशु पकड के खींच रहा,उत्तम कुल की यह साडी है।
कहाँ गए हे श्याम तुम्हारी, श्यामा बिलख रही है।
यज्ञअग्नि से जन्मी लिया, मन ज्वाला धधँक रही है।
दीन बन्धु हे दीन दयाला,दया दान से भर झोली।
शरण तुम्हारे द्रौपदी है अब,लाज बचाओ तुम मेरी।
कुरूओ की इस भरी सभा में, एक अकेली नारी हूँ।
अपशब्द बाण से व्यधी हुई,यह भाग्यहीन लाचारी हूँ।
द्रौपदी तो शुरुआत रही,पर अब भी वही कहानी है।
यहाँ वहाँ सारे ही जग में, सिसक रही बेचारी है।
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कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )