Poem jaan chidakne lage hain
Poem jaan chidakne lage hain

जान छिड़कने लगे हैं

( Jaan chidakne lage hain )

 

तारे भी देखो ठिठुरने लगे हैं,
लोग दुशाले अब ओढ़ने लगे हैं।
उतर चुका है वो बाढ़ का पानी,
अब से ही जान छिड़कने लगे हैं।

 

कुछ दिन में लोग माँगेंगे रजाई,
ठण्डी के पर देखो उगने लगे हैं।
अलाव की तलब बढ़ेगी चाँद में,
पहले से ही जुगुनू छिपने लगे हैं।

 

जाड़ा आने पर होगी बर्फबारी,
हवा के तन-बदन कंपने लगे हैं।
आएगी विवश होके कंबल माँगने,
कुछ इस जुगत में तकने लगे हैं।

 

सर्द के सैलाब से बचा है कौन,
वो रूप के धूप को पीने लगे हैं।
मजेदार होता है जाड़े का मौसम,
परदेशी गाँव कुछ लौटने लगे हैं।

 

दिवाली के पेट से निकली जाड़ा,
इश्क के शोले भड़कने लगे हैं।
दिल के अंगारे पे न रोटी पका,
आँसुओं की ज़बाँ समझने लगे हैं।

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रामकेश एम यादव (कवि, साहित्यकार)
( मुंबई )

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