प्रामाणिकता | Laghu Katha Pramanikta
रेल छोटे से रेलवे स्टेशन पर ठहरी. रामू ने चायवाले से चाय ली. चायवाले को २०० ₹ की नोट दी। चायवाला बाकी रकम गिनकर वापस करे। उस से पहले ट्रेन रवाना हो गयी।
ट्रेन के रवाना होते ही पास बैठी मेरी पत्नी मेरे पर झल्लाने लगी की आप से एक काम ढंग से नहीं होता। गये ना २०० ₹. मैं क्या करता। मेरे पास पत्नी की डांट को खाने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं था।
मेरे लिये चाय भी बेस्वाद हो गयी थी। पांच सात मिनिट के बाद एक आवाज सुनाई दी कि *साहब, पिछले स्टेशन पर २०० की नोट देकर चाय आपने ही ली थी ना? एक लडके ने मुझ से पूछा।
मैंने उसे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए कहा हां
क्यों कि पूछने वाला वो नहीं था। जिस के पास मैंने चाय ली थी। वो चाय वाला तो बडी उमर का था। जब की ये तो युवा था।
युवा मेरी नजर को समझ गया। वो बोला *साहब, आपने जिन से चाय ली थी। वो मेरे पिता जी हैं। मैं आप के बाकी रुपये लौटाने आया हूं।
मेरे चेहरे पर फैला प्रश्नार्थ का चिन्ह और बडा हो गया।
मेरे चेहरे को देखते हुए वो बोला * साहब, हमारा वाला स्टेशन छोटा है। इसलिये रेल गाड़ियां ज्यादा रुकती नही है। इसलिये हम बाप बेटे ने ये व्यवस्था कर रखी है। दिन में एक दो बार एसा होता ही है।
पिता जी ग्राहक को बाकी पैसे ना लौटा सकें तो मुझे फोन कर के डिब्बा नंबर और सीट नंबर बता देते हैं। मैं ट्रेन में होने के कारण ग्राहकों को उन के बाकी पैसे लौटा देता हूं।
उस की बातें सुनकर मेरा मन गदगदित हो गया। बाप बेटे की सत्यनिष्ठा और प्रामाणिकता को जानकर छाती ये सोचकर चौडी हो गयी कि देश की मिट्टी में सत्यनिष्ठा प्रामाणिकता खुद्दारी आदि कूट कूटकर भरे हैं।
संक्षेपानुवाद : महेश सोनी
नोट : ये लेखन मूलत: अंग्रेजी में था। अंग्रेजी से गुजराती में भरत राजगोर ने अनुवाद किया था। गुजराती से हिन्दी में संक्षेपानुवाद महेश सोनी ने किया है।