प्रतिध्वनि (काव्य संग्रह)

 पुस्तक समीक्षा

कवयित्री – नीरजा रजनीश
समीक्षक– मनजीत सिंह (खान मनजीत भावड़िया मजीद)
साहित्य कलश प्रकाशन, पटियाला

 

मनुष्यों में पाँचों इन्द्रियाँ कमोबेश सक्रिय होती हैं जो अपने अनुभवों के समन्वित मिश्रण को मन के धरातल पर रोपती हैं जहाँ से समवेत ध्वनि का आभास होता है, यही आभास प्रतिध्वनि है। जब प्रतिध्वनि के शब्दो को किताब रूपी शरीर मिल जाता है तो काव्य बन जाता है। सार्थक एवं प्रभावी काव्य वही होता है जो कवयित्री के हृदय से निकलकर पाठक के हृदय में बिना क्षय के जगह पा सके और कवयित्री – हृदय का हूबहू आभास करा सके।

नीरजा रजनीश जी ने शिक्षण के दौरान अन्त: चक्षु से स्त्री को नज़दीक से देखा है तो अलग – थलग, अकेली व असमर्थित और भी दयनीय होकर लौट आती है। प्रकृति का मानवीकरण करके कवयित्री स्त्री के साथ साम्य दिखलाने की कोशिश की है और इस प्रयास में वह छायावाद के काफी निकट होती है। नैतिक अवमूल्यन से कवयित्री आहत है फिर भी राष्ट्रीयता की भावना बलवती है तथा सामाजिक उथल- पुथल के प्रति संवेदनशील भी।

यद्यपि स्त्री विमर्श, सौन्दर्य बोध, प्रकृति चित्रण, सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक समन्वय, पारिवारिक परिमिति सुश्री मालती मिश्रा की लेखनी की विषय वस्तु है तथापि केन्द्र में नारी ही है। बहत्तर कविताओं से लैस अन्तर्ध्वनि कवयित्री की पहली पुस्तक है । भाव के धरातल पर कवयित्री की प्रतिध्वनि पाठक तक निर्बाध और अक्षय पहुँचती है ।

कविताओं की क्रमोत्तर संख्या के साथ रचनाकार व्यष्टि से समष्टि की ओर अग्रसर देखी जा सकती है। प्रतिध्वनि शुरुआती कविताओं में आत्म केन्द्रित है जो धीरे – धीरे समग्रता में लीन होती जाती है। स्वयं की पीड़ा जन साधारण की पीड़ा हो जाती है तो अपने दर्द का आभास कम हो जाता है।

कुछ कविताओं का आकार काफी बड़ा है जिसमें छंद की अपरिपक्वता स्पष्ट एवं अनावृत है एक ओर जहाँ शिल्प में दोष से इन्कार नहीं किया सकता वहीं रस के आधिक्य में पाठक – हृदय का निमग्न होना अवश्यम्भावी है। सास को समर्पित की प्रतिध्वनि नीरजा रजनीश जी आइए हम अपनी प्रतिध्वनि कविता संग्रह को बनाकर स्नेह से अभिसिंचित करें।

मैं अंबाला में पहली बार किसी साहित्यिक उत्सव में गया और उसे साहित्यिक उत्सव में अलग-अलग कई कवि-कवित्रियों ने अपना रचना पाठ भी किया और और सबसे बड़ी बात इस कार्यक्रम की खासियत जो मेरे हृदय में एक उद्बलता उत्पन्न कर रही है मेरी मां तुल्य नीरजा रजनीश की किताब उसे साहित्यिक उत्सव में भेंट हुई उसे पढ़ कर ऐसा लगा जैसे ब्रह्मांड में अनेकों तारे टिमटिम रहे हो जब रात को टिमटिमाते तारों का दृश्य देखते हैं तो हम चारपाई पर लेटे-लेटे उन टिमटिमाते तारों की तरफ देखते हैं उनकी गिनती करते हैं उनमें चांद भी होता है जो रात को रोशनी देता है।

नीरज रजनीश की किताब जो एक काव्य संग्रह के रूप में मेरे सामने आया है जिसका नाम प्रतिध्वनि है यह किताब एक चांद का काम करती है और इसमें विभिन्न प्रकार की कविताएं टिमटिमाते हुए तारे का काम करती है क्योंकि इस किताब के जरिए हम अंधकार से प्रकाश की ओर प्रवेश कर रहे हैं जो अंधकार में हमें प्रकाश देता है वह चांद है नीरजा रजनीश जी की किताब किसी चांद से काम नहीं।

किताब की पहली कविता प्रेरणा स्रोत उनके ससुर और उनके गुरु जी प्रेमनाथ जयसवाल जी को स्मृति में लिखी है कहते हैं दिखाई अपने ही यह राह/असंभव नहीं कुछ भी/ दिल में यदि हो चाह/अपने शब्दकोश में /असंभव शब्द कहीं नहीं पाया/ क्या था वो जो जो आपने चाहा पर नहीं पाया /बढ़ते रहे निरंतर /नहीं हुए डगमग / हर कदम पर सफलता ने चूमे आपके पग/ दिखाई आपने ही यह राह।

इस इस पुस्तक में गर्भ में पल रही बेटी के बारे में भी एक सुंदर छंद मुक्त कविता का जिक्र किया है क्योंकि एक मां ही महसूस कर सकती है कि गर्भ में पल रही बेटी का क्या हाल हो सकता है। उसने बालिका एक भ्रूण हत्या जो आज के समय में एक घोर अपराध है‌।

एक अभिशाप भी है कहीं ना कहीं हमें यह चिंता में डाल देती है कि एक मां अपनी बेटी के साथ ऐसे कैसे कर सकती है जबकि वह भी किसी की बेटी थी उसकी मां भी किसी की बेटी थी तो वह अपनी खुद की बेटी की चहचहाहट कैसे कम कर सकती है।

हमारे सामने बहुत सारे प्रश्न उभर कर आते हैं लेकिन जब हम सवाल करते हैं तो हमें कहते हैं कि एक बेटा घर में होना ही चाहिए जो घर को चलाएगा ,घर को संभालेगा बेटियों को तो आज के समय में और पहले भी पराया धन माना जाता है जबकि घर को बेटी ही संभालती है पिता के घर भी और ससुर के घर भी अपने दोनों घर आसानी से संभाल लेती है फिर भी बेटी को गर्भ में क्यों मरवाते हैं?

यह एक प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के जहन में रहता है लेकिन इसका हल आज तक नहीं मिला। कुछ पंक्तियां गर्भस्थ शिशु ने/फुसफुसा कर कहा/मां क्या सुन रही हो/ मेरा क्रंदन /क्या मैं हूं निष्प्राण क्या दोष मेरा यदि मैं बाला हूं /क्यों देती हो को कुव्यवस्थाओं की अग्नि में /मेरी आहुति ।

इन पंक्तियों के माध्यम से मां-बेटी की गर्भ के दौरान हुई बातों का जिक्र करती है और कहती है की तुम इस दुनिया में आओ और दुनिया का लड़कर मुकाबला कर साहसी बन निडरता अपने अंदर लाने की कोशिश कर जो आपको बुरी नजर से देख रहे हैं व आप से लड़ रहे हैं उनके सामने अपनी करुणा और ममता को त्याग कर आगे बढ़ और हमेशा बढ़ती जा।

नीरजा रजनीश जी की कविताओं में ममता और करुणा का रस अनेकों कविताओं में देखने को मिलता है प्यार का संबंध भी अनेक कविताओं में देखने को मिलता है चाहे वह भाई के प्रति प्यार हो ,सास के प्रति प्यार हो, ससुर के प्रति प्यार हो कविताओं में प्यार की अलग-अलग परिभाषाएं और अलग-अलग कविताएं बताती है जो की एक विस्मरणीय कार्य है।

इस कार्य को बुलाया नहीं जाता अलग-अलग कवि -कवयित्री प्यार की अलग-अलग परिभाषा देते हैं लेकिन उनकी कविताओं में जो दिल से प्यार की बात होती है‌। वह दिखाई देती है दो-चार बातें ना करके बल्कि रिश्ते को गहराई से समझाने की पूरी-पूरी कोशिश करती है। भाई की याद एक शानदार कविता है।

एक कविता के माध्यम से बताती है कि यह संसार केवल चार दिन के लिए है और लोगों के अंदर इतना वहम पैदा हो जाता है कि वह अपने आप में सर्वश्रेष्ठ समझने लगता है। दुनिया का राजा मानने लगता है । हमने मौत से डरना चाहिए क्या पता किस घड़ी में कब मौत आ जाए इस चीज का किसी कोई अंदाजा नहीं है ‌।

हमें वहम में नहीं जीना चाहिए‌। सब कुछ करा धरा धन कमाया हुआ यहीं पर रह जाता है हमें सीख लेनी चाहिए की आपस में मिलजुल कर रहे और भाईचारा बनाए रखें इस संसार में कोई छोटा बड़ा नहीं है इस कविता के माध्यम से यही समझाने की हमें पूरी कोशिश की गई है।

नव वर्ष की मंगलकामना,सास बहू, मां बेटी, पुरुष मानसिकता पर लिखी कविताओं को अन्दर से झकझोर कर रख दिया। भारत भारत एक पुरुष प्रधान देश है। इसमें आज से पहले स्त्रियों को सबसे ऊपर का दर्जा हासिल है भारतीय संस्कृति और वेद ,कुरान ,बाइबल में भी स्त्रियों को सर्वोपरि माना जाता है लेकिन आज के युग में कागजी करवाई के हिसाब से ,प्रशासनिक रूप से स्त्री पुरुषों को एक समान माना जाता है जबकि धरातल पर स्त्री और पुरुष के अंदर जमीन आसमान का अंतर है आज भी स्त्रियों को पैर की जूती समझा जाता है जो की एक घोर अपराध है।

महिलाएं कितने भी बड़े पद पर आसीन हो जाए लेकिन घर आने पर उन्हें पुरुषों का कहना मानना पड़ता है और पितृसत्तात्मक घेरे में घिर जाती है। दो बूंद पानी, जीवन अवलंबन, कर्मयोगी,डैडी जी एक स्वप्निल तारा, अनुकरण पद चिन्हों का, ममता की मूरत,मेरी मां, मेरी मां -एक एहसास,मेरी मां ढूंढू कहां आदि रचनाएं बड़ी मार्मिक चित्रण को दर्शाती है  ।

शुरू से लेकर आज तक हमेशा मन ही सर्वोपरि रही है क्योंकि मां का दर्जा सबसे पहले और सबसे ऊपर है हालांकि पिता की अहमियत मां से काम नहीं है मां बच्चों को खाना देती है उनके साथ खेलती है उनके साथ बातें करती है लेकिन बेचारे पिता को इतनी फुर्सत कहां है कि वह है उनके साथ समय बिताए सुबह काम के लिए घर से निकल जाना और शाम को देर तक घर को लौटाना एक पिता करता है।

मां बच्चों को स्कूल भेजती है उनको वर्दी पहनाती है लेकिन पिता उनको शाम सवेरे दोनों वक्त की रोटी का इंतजाम करता है उनके रहने का इंतजाम करता है कपड़ों का इंतजाम करता है घर में जो सामान खत्म हो जाता है । उसको लाने का पूरा-पूरा इंतजाम करता है तो हम यह कह नहीं सकते की मां का दर्जा ऊपर ही रहेगा लेकिन पिता का दर्जा हम मां से कम नहीं मान सकते ।

इसलिए माता और पिता दोनों एक सिक्के के दो पहलू है। फूल मोगरे के,प्यारी दीदी, दाम्पत्य जीवन आदि रचनाएं भी बहुत प्रेरणा स्रोत है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है यह दुनिया में अनेक प्रकार के संबंध स्थापित करता है उनमें माता-पिता का संबंध,भाई-बहन का संबंध, चाचा ताऊ का संबंध और एक संबंध ऐसा भी होता है जो वैवाहिक संबंध होता है पति-पत्नी का संबंध, पत्नी अपने मां-बाप को छोड़कर दूसरे घर में आती है जो की ससुर का घर होता है सास का घर होता है यहां आने पर कुछ दिन परेशान तो जरूर रहती है लेकिन जब खुद के माता-पिता से ज्यादा उसको प्रेम होने लगता है तो वह अपने सास ससुर के अंदर भी माता-पिता का दर्जा हासिल करने लगती है और सोचती है की जीवन भर यही मेरे माता-पिता है।

पचासवां जन्मदिवस, विवाह रजत जयंती वर्ष, विवाह पैंतीसवीं वर्षगांठ,जो तुम होते आज, रूपहले ख़्वाब,गिले शिकवे, बचपन, भोला बचपन,उदास बचपन आदि कविताओं में बचपन की यादों को संजोए हुए है।

कब उनका मन उदास होता है , बचपन की शरारत सारी ध्यान में आ जाती है जब हम उम्र के आखिरी पड़ाव पर होते हैं जवानी भी हमें पूरी ध्यान रहती है बचपन में बहुत सारे हमारे दोस्त होते हैं जब वह हमसे रूठ जाते हैं तो हमारा मन बहुत उदास होता है बचपन में गुड्डा गुड़िया का खेल खेलना आदि बहुत पसंद है उन खेलों को याद करते हुए आज भी हमारा मन एक बच्चे की तरह बन जाता है।

रिश्ते, आत्मीयता,सुखद स्मृतियां, नफ़रत दीमक,होली,ग़र लौट आए बचपन, दामाद को पत्र, बिटिया का विवाह, संकल्प,पापी कौन, भक्त कौन, स्त्री, राष्ट्र भाषा हिंदी,नया पड़ाव, सृजन कविता का आदि कविताओं में हर पहलू पर विचार किया है।

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