मध्यकालीन इतिहास को देखने से यही प्रतीत होता है कि उस समय पूजी मात्र कुछ व्यक्तियों के कब्जे में थी । जिससे सामान्य जनता का शोषण होता रहा । जनता मिल मालिकों एवं सेठ साहूकारों की कृपा पर जीवित रहते थे। उनका उत्पादन में कोई हिस्सा नहीं होता था ।

कोल्हू के बैल की तरह उनका मनमाना उपयोग होता था । मानव जीवित प्राणी ना होकर एक वस्तु बंद कर रह गया था । जब जनता किसी प्रकार से प्रतिरोध करती थी तो उसे बर्बरता के साथ कुचल दिया जाता। जनता ने अंत में निराश हताश होकर गुलामी को ही अपनी नियत मान लिया था।

ऐसे ही विकट कालीन परस्थित में कार्ल मार्क्स नामक एक ऐसे संत पुरुष ने आर्थिक साम्यवाद का नारा दिया। उनका कहना था कि उत्पादन में सभी का बराबर हक होना चाहिए । पूंजी पर किसी एक व्यक्ति का नहीं बल्कि सभी व्यक्ति का समान अधिकार हो ।

उन्होंने ऐसी क्रांति की आग फैलाई की पूंजी वाद की जड़े हिलने लगी ।देखते देखते संपूर्ण विश्व में फैल गए । आर्थिक साम्यवाद ने पूरे विश्व को प्रभावित किया ।सेठ, साहूकारों , राजवाड़े, बिचौलियों का सफाया होकर प्रजातांत्रिक सरकारों का गठन हुआ।

इसी प्रकार 21वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के आवल खेड़ा नामक गांव में 20 सितंबर 1911 ई को जन्मे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने आध्यात्मिक साम्यवाद का नारा दिया। उनका कहना था कि इक्कीसवीं सदी की स्थिति बिल्कुल विपरीत है।

आज लोगों के पास पूंजी की कमी नहीं है बल्कि पूंजी का सदुपयोग किस प्रकार से किया जाए इस सोच का अभाव है । लोगों के पास यदि धन की वृद्धि होती है तो सर्वप्रथम उसे विलासितापूर्ण कार्य में खर्च करने की बात सोचता है।

उनका कहना है की पूजा को बांटने की अपेक्षा छोड़ने की आवश्यकता है। पूंजी के हम मालिक नहीं बल्कि ट्रस्टी बने । ट्रस्ट में सब की समान भागीदारी होती है। आज इस सिद्धांत का प्रत्यक्ष रूप से हमें देखने को मिलने लगा है। विलासिता पूर्ण जीवन से लोग ऊब कर सहज में ही लोग पूजी को सामाजिक कार्य में खर्च कर रहे हैं ।

आचार्य श्री ने सर्वप्रथम इसे अपने जीवन में लागू किया। स्वयं जमींदार घराने के होते हुए भी सामान्य व्यक्ति जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लेकर सारी संपत्ति सहज में छोड़ दिया । उनका कहना था कि क्या पिता स्वयं कमायें स्वयं खाए तो परिवार चल सकता था ।

पिता का कर्तव्य की अपनी कमाई का स्वल्प जो उसके लिए आवश्यक है ले ले और सब परिवार व समाज के लिए छोड़ दें । स्वयं कमाना एवं स्वयं खाना यह राक्षसी प्रवृत्ति है ।मान लीजिए यदि घर में दूध थोड़ा सा हो तो उसे हम स्वयं ना पीकर घर के छोटे शिशु के लिए छोड़ देते हैं।

यही सच्चे मायने में आध्यात्मिक परिवारवाद है। लेकिन पूंजीवाद की कारपोरेट जगत में यदि चाय के लिए थोड़ा दूध होगा तो क्या वह कभी छोटे कर्मचारियों के लिए दिया जा सकता है। नहीं कभी नहीं । उसे तो मैनेजर या डॉक्टर के लिए सुरक्षित रख दिया जाता है ।वहां सबसे छोटे कर्मचारियों का कोई मूल्य नहीं है।

आचार्य जी ने संपूर्ण विश्व को एक कुटुंब माना और कहा कि जब हम यह मानेंगे कि सभी लोग हमारे परिवार के ही अंग अवयव हैं तो मेरी कमाई में भी सभी का क्यों समान हक नहीं हो सकता। जहां व्यक्ति व्यक्ति के अंदर ऐसे दिव्य दृष्टि का विकास होगा । वही अध्यात्म का बीज पनपने लगेगा । यही है हमारी वसुधैव कुटुंबकम की ऋषि परंपरा है ।

जिसमें हम समस्त विश्व को एक कुटुंब मानते हैं और कुटुंब में कोई व्यक्ति पराया तो नहीं होता । यही कारण था एक उन्होंने अपनी संस्था को कोई आश्रम ना कहकर गायत्री परिवार की संज्ञा दी जहां लोगों को परिवार की भांति प्यार और दुलार से उनकी साज संभल होती थी । जात-पात, उच्च -नीच के भेदभाव से मुक्त विश्व का यह अनोखा केंद्र हरिद्वार के शांतिकुंज में स्थित है।

सारा विश्व एक परिवार की तरह एक छत के नीचे कैसे रह सकता है उन्होंने मात्र कहा ही नहीं बल्कि करके भी दिखाया । समाज में फैली असुरता की आंधी को जड़ मूल से नष्ट करने के लिए उन्होंने विशाल मात्रा में युग साहित्य का सृजन किया।

समाज में जन जागृति फैलाने के उद्देश्य से गायन वादन को माध्यम बनाएं। जड़ी बूटी , कुटीर उद्योगों की पुनर्स्थापित किया। उन्होंने समाज सुधार की अपेक्षा व्यक्ति सुधार की बात की । व्यक्तियों के समूह से समाज का निर्माण होता है ।

जब व्यक्ति का जीवन श्रेष्ठ होता तो समाज सहजता में श्रेष्ठ बनता चला जाएगा । उनका कहना था कि कोई सुधरे या न सुधरे लेकिन तुम सुधर जाओ। उन्होंने ‘हम बदलेंगे -युग बदलेगा’ ‘हम सुधरेंगे – युग सुधरेगा ‘ का नारा दिया।समाज सुधार की सारी योजना इसलिए नहीं सफल हो पाती की सामाजिक कार्यकर्ताओं का व्यक्तित्व बहुत निम्न स्तर का होता है । जब बीज ही घटिया होगा तो फसल कैसे श्रेष्ठ हो सकती है ।

’21वीं सदी उज्जवल भविष्य’ का उद्घोषणा करने वाले आचार्य श्री का महाप्राण गायत्री जयंती की शुभ घड़ी में 2 जून 1990 को हो गया। उनका स्वप्न आज साकार होते दिखने लगा है। आध्यात्मिक साम्यवाद के किरणें हरिद्वार से निकलकर पूरे विश्व को प्रकाशित करने को लालाइत है। ऊंच नीच,जात-पात के दीवारें धीरे-धीरे टूट रही है ।

संसार से हताश होकर शांति के तलाश में लोग आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहे हैं । आपकी जन्म शताब्दी को पूरे विश्व में करोड़ों की संख्या में बड़ी धूमधाम से मना रहे हैं। आपके श्रद्धांजलि के रूप में करोड़ों की संख्या में वृक्षारोपण , श्री राम उपवन बनाएं जा रहे हैं। आइए आध्यात्मिक साम्यवादी समाज के जनक को श्रद्धांजलि देते हुए हम भी पहले स्वयं श्रेष्ठ बने फिर परिवार को बनाया और उसके बाद समाज निर्माण के लिए कृतसंकल्पित हो।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

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