शरीफभाई साडी वाले
आज अचानक एक अजनबी चेहरे को देख मन में हलचल सी मची.. लगा की इस शख्स को कही देखा है.. वो साइकल पर जा रहे थे और मै अपने बेटे मनीष के साथ हिरोहोंडा पर.. काफी आगे बढ़ जाने बाद भी मन न माना और मै गाड़ी पलट उस शख्स की और बढ़ गया।
मैने गाड़ी उनकी साइकल के आगे खड़ी कर दी.. वे भी चौक कर रुक गए और मुझे शंकित नजरो से देखने लगे.. मै उन्हें पहचान गया था.. वे शरीफ भाई थे.. शरीफ भाई साडी वाले.. आज कई सालो बाद मैने उन्हें देखा था.. कई सालो बाद.. जब मै छोटा था.. खाकी नीकर पहन यहाँ वहा दौड़ा करता था।
उन दिनों शरीफ भाई अपनी साइकल पर साड़ियों का गठ्ठा लादे घर घर जा कर साड़िया बेचते थे.. वे मोहल्ले मे किसी भी एक घर मे बैठ जाते थे और फिर सारी महिलाये वहा जमा हो जाती और साड़िया पसन्द करती और खरीदती।
पच्चीसों महिलाओ मे कोई एक दो ही साडी खरीदती और बाकी सब साड़िया खोल खोल के देख कर ही संतुष्ट हो जाती.. मगर शरीफ भाई कभी गुस्सा नही होते थे.. मुस्कराते हुए साड़िया समेट फिर किसी दूसरे मोहल्ले की और बढ़ जाते.. कभी कोई पैसे बाकि रखती तो वे मना नही करते थे।
महिलाये उनके आने का इंतजार करती थी.. कुछ परिवार तो शादी ब्याह की पूरी खरीदी उन्ही से कर लेते थे.. उन के आने से मुझे बहुत ख़ुशी होती थी.. या यू भी कह सकते मै उन के आने का इंतजार करता था.. जैसे ही वे साइकल से साडी का गठ्ठा उतार निचे रखते मै उनकी साइकल ले कर फुर्र हो जाता था।
वे संकोचवश कुछ कह नही पाते थे और मै खूब उनकी साइकल यहाँ वहा दौडाता था.. माँ डाँटती दपट्टी थी मगर मुझे कुछ फर्क नही पड़ता था.. शरीफ भाई व्यापार के गुर समजते थे सो अपनी नाराजी प्रकट नही करते थे.. जानते थे की मुझे कुछ कहेंगे तो माँ नाराज हो जाएँगी और एक ग्रहाक टूट जायेंगा।
शरीफ भाई ने मुझे पहचाना नही और हैरत भरी नजरो से देखने लगे.. उनके पास आज भी साइकल थी और वही सालो पुराना उनका व्यापर करने का तरीका.. कुछ बदला था तो शरीफ भाई बदले थे.. जवान शरीफ भाई एक बूढ़े आदमी के रूप मे तब्दील हो गए थे।
अब वे दाढ़ी रखने लगे थे और टोपी भी लगाने लगे थे.. मैने अपना परिचय दिया तो बहुत खुश हुए.. परिवार की कुशलता पूछने लगे.. माँ और बाबूजी दोनों के देहांत की खबर सुन शरीफ भाई ने सांत्वना प्रकट करने लगे.. मैने भी उनकी कुशलता पूछी.. मुझे उनका यू अचानक सड़क पर मिलना बहुत भाया था।
बीते हुए दिनों मे रमना मुझे बहुत भाता है और शरीफ भाई बीते हुए कल के रूप में मेरे सामने खड़े थे.. मै सालो पीछे लौट गया था.. पीछे.. बहुत पीछे.. इतने पीछे की जहा आनंद ही आंनद था.. मस्ती ही मस्ती थी.. खुशियाँ ही खुशियाँ थी.. जिम्मेदारिया नही थी.. कंधे आझाद थे.. रीढ़ सीधी थी.. तभी मनीष ने मेरी तन्द्रा भंग की.. ” पापा चले “
” हा.. चलते है.. मगर पहले मेरी एक तस्वीर तो उतार ले शरीफ चाचा के साथ।
” मैने मोबाईल मनीष के हाथो मे दे दिया.. मनीष शायद मेरे मन की गहराइयो को नाप नही पाया था.. राह चलते किसी बुजर्ग से मुझे यू बतियाता देख वह पेशोपश में था.. मै उसके बालसुलभ मन मे उठती जिज्ञासा को महसूस कर रहा था.. घर जा कर मुझे उसके न जाने कितने सवालो के जवाब देने थे.. न जाने कितनी शंकाओ का समाधान करना था.. उसके बचपन से अपने बचपन को मिलाना था.. अनेक अनेक धन्यवाद..

रमेश तोरावत जैन
अकोला
Mob : 9028371436
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