शिक्षा का व्यापार | Shiksha ka Vyapar

रजनी एक विद्यालय में शिक्षिका है। एक दिन विद्यालय के प्रबंधक ने उसे बुलाकर कहा,-” यह तूने क्या किया? इस बच्चे को इतने कम नंबर कैसे दिया? तुम्हारे कुछ अकल है कि नहीं? यदि ऐसे ही करती रही तो एक दिन विद्यालय बंद हो जाएगा।”

रजनी बहुत डर गई थी उसने डरते हुए पूछा,-” क्या हुआ सर ।”
क्या हुआ सर की बच्ची ऐसे ही विद्यालय चलेगा। बच्चों को कुछ आए या ना आए तुम इतना नंबर दे दो कि उसके गार्जियन खुश हो जाए।”

गार्जियन की जेब ढीली करो। बच्चों के डायरी में रोज नई-नई फरमाईसे लिखो। गार्जियन को 1000 कमी बच्चे की बताओं। तुम्हारा बच्चा बहुत फिसड्डी है, इसे ट्यूशन लगाओ। होमवर्क पूरा करके नहीं आता है ।यदि ऐसा ही चलता रहा तो यह पास भी नहीं हो पाएगा।”

आगे प्रबंधक ने कहा,-” देखो रजनी! एक बात कान खोल कर सुन लो! मैं यहां विद्यालय मुफ्त में शिक्षा बांटने के लिए नहीं खोला हूं। मैं तो शिक्षा को बांटकर करोड़पति होना चाहता हूं। समझीं।”
रजनी गर्दन झुकाए जी सर जी सर करती रही।

आखिर रजनी कर ही क्या सकती थी। ज्यादा विद्रोह करतीं तो स्कूल से निकाल दिया जाता। फिर भी शिक्षा का व्यापार चलता ही रहता।

देश का दुर्भाग्य है कि शिक्षा विभाग में पूंजीपतियों ने कब्जा जमा लिया है। जिसमें कोई अध्यापक अध्यापिका चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते हैं।

वर्तमान समय में देखा जाए तो शिक्षा एक व्यवसाय बन चुका है। हर वर्ष शिक्षा के व्यवसायी अपनी नई किताबें लगाते हैं। किताब के साथ ही कापी टाई बेल्ट ड्रेस आदि सभी कुछ विद्यालय में ही बेचते हैं। सब कुछ मिला करके लगभग 8-10 हजार रुपए का बिल बना देते हैं। जो जितना बड़ा विद्यालय है उतना ही बड़ी रकम वसूलते हैं।

शिक्षा के इस प्रकार व्यवसायीकरण के कारण सामान्य आदमी की एक बहुत बड़ी कमाई बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो जाती है। यदि किसी के तीन-चार बच्चे हो तो माता-पिता कभी बच्चों के पढ़ाई के पैसे से नहीं उबर पाते हैं कि और कुछ कर सके।

यदि ऐसा ही चलता रहा तो सामान्य व्यक्ति शिक्षा के नाम से ही डरने लगेगा। सरकार भी शिक्षा के व्यवसायियों का कुछ नहीं कर पाती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि अधिकांश मेडिकल , इंजीनियरिंग आदि कॉलेज उन नेताओं के हैं जिन्होंने अपनी काली कमाई विद्यालय में लगा दी है। यही कारण है कि प्राइवेट विद्यालयों के ऊपर कभी कार्रवाई नहीं होती है।

भारत में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की हालत बहुत ही जर्जर है। अधिकांश विद्यालयों में बच्चे पढ़ने कम खाना खाने ज्यादा जाते हैं और खाने के ही लालच में विद्यालय भी आते हैं। 77 वर्ष के स्वतंत्रता में भी हम अपने देश के लोगो को दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ नहीं करा सके। आज भी हमें जनता को मुफ्त राशन बांटना पड़ रहा है और स्कूलों में मिड डे मील के नाम पर बच्चों को भोजन देना पड़ रहा।

प्राइवेट विद्यालय में जहां इतनी फीस है वहीं सरकारी विद्यालयों की हालत इससे उलट है। एक तरफ खाई है तो दूसरी तरफ कुआं है ।आदमी आखिर जाए तो कहां जाए। सरकारी विद्यालयों के शिक्षक योग्य होते हुए भी बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। जो थोड़ा बहुत पढ़ाते भी हैं उसमें भी सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को दुनियाभर के रजिस्टर बनाने में लगा दिया जाता है।

प्राइवेट विद्यालयों में शिक्षकों की हालत तो और भी नाजुक है। इतनी महंगाई में भी चार-पांच हजार में वे पढ़ाने को मजबूर हैं। एक मजदूर की मजदूरी ₹500 है तो एक शिक्षक की मजदूरी दिन भर की ₹100 है। ऐसी परिस्थिति में एक शिक्षक अच्छी शिक्षा कैसे दे सकता है। यह हमारे चिंतन करने का विषय है।

प्राइवेट विद्यालय वाले जो नंबर बांटने की दुकान खोले बैठे हुए हैं इसी का परिणाम है कि शिक्षित बेरोजगारों की एक बहुत बड़ी भीड़ देश में तैयार हो गई है। यह नंबर इसलिए बांटते हैं कि उन्हें यह दिखाना होता है कि हमारे स्कूल के बच्चे सभी शत प्रतिशत श्रेष्ठ नंबरों से पास हुए। कई विद्यालयों में तो विद्यालय प्रबंधन खुद ठीका लेकर बच्चों को पास कराता है।

ऐसी स्थिति में शिक्षा में सुधार कैसे किया जा सकता है? इस स्थिति में केवल शिक्षित बेरोजगारों की ही जनसंख्या बढ़ रही है।चार अक्षर पढ़ने के बाद कोई वह छोटा-मोटा काम भी तो नहीं कर सकते हैं। यही कारण है कि यदि कोई एक सरकारी पद निकलता है तो उसके दावेदार 1000 बच्चे होते हैं। अब होना तो एक का ही है फिर 999 बच्चे क्या करेंगे?

इसलिए आवश्यकता है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण को रोका जाए। इसके लिए अभिभावकों को चाहिए कि वह अपने मन से अंग्रेजी भाषा का भूत उतर फेक। इंग्लिश मीडियम के नाम पर जो इस देश में इतनी लूट मची हुई है उसको समझने का प्रयास करें। कोई भी बच्चा अपनी भाषा में ही सही प्रकार से शिक्षा प्राप्त कर सकता है।

अंग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजीयत का नशा भारतीयों में अभी 77 साल बाद भी नहीं उतरा है बल्कि और चढ़कर के बोल रहा है। हिंदी मीडियम के मात्र सरकारी प्राइमरी स्कूल ही बचे हुए हैं। नहीं तो सभी प्राइवेट स्कूल इंग्लिश मीडियम के नाम पर कब्जा कर चुके हैं।

कुछ दशक पूर्व तक सरस्वती शिशु मंदिर, सरस्वती ज्ञान मंदिर एवं अन्य प्रकार के बहुत से विद्यालय हिंदी मीडियम के थे। लेकिन देखते ही देखते लोगों के सिर पर अंग्रेजी भाषा का ऐसा नशा सवार हुआ कि सारे के सारे हिंदी मीडियम के विद्यालय धराशाई हो गए।

अब केवल मात्र उंगलियों पर गिने हुए प्राइवेट हिंदी मीडियम के विद्यालय मिलते हैं। इस देश का दुर्भाग्य है कि देश भले ही आज शारीरिक रूप से आजाद हो लेकिन मानसिक रूप से आज भी अंग्रेजों का गुलाम है।
आखिर हम किस दृष्टि से स्वतंत्र हुए हैं इस पर चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है।

 

योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )

यह भी पढ़ें:-

तेरे इश्क में | Tere Ishq Mein

 

Similar Posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *