समझौता : लघुकथा
शकुन आज बड़े वर्षों में बाद दोस्तों से मिल रही थी। दोस्तों की बहुत ज़िद करने पर ही घर से निकली थी। बच्चों ने भी जबरदस्ती दोस्तों से मिलने भेजा था।
आज वर्षों बाद मुस्कुरा रही थी, गुनगुना रही थी, खुश होकर तस्वीरें खिंचवा रही थी। दिन भर मस्ती में गुज़र गया। शकुन ने तो मानो सूरज की रोशनी में खुद को आज ही देखा था।
देर रात तक सब दोस्त गप्पे लड़ाते रहे। इतनी खुशी मिली कि शकुन की आंखें भर आईं। पूरा जीवन उसने समझौतों में ही गुज़ार दिया था। शकुन एक आदिवासी गांव की रहने वाली लड़की थी।
नवीन से उसकी मुलाकात बैंक में हुई जब उसे अपने पिता के लघु उद्योग के लिए कर्ज की आवश्यकता पड़ी। नवीन उसी बैंक में कार्यरत था और उसने शकुन की हर संभव मदद की लोन दिलवाने में।
शकुन भी नवीन के सहज स्वभाव से बहुत प्रभावित थी और शकुन की सादगी और सरलता पर नवीन भी अपना दिल हार गया था। मुलाकातें बढ़ीं और प्रेम में ढलने लगीं।
शकुन भी पूरी तरह नवीन के प्रेम में समर्पित थी पर जानती थी उसके परिवार की संकुचित सोच इस संबंध को कभी नहीं अपनाएगी। दोनों ने निर्णय लिया और शकुन नवीन के साथ उसकी ट्रांसफर पर दिल्ली आ गई।
यहां आकर छोटी मोटी नौकरी करके अपनी पढ़ाई पूरी की और प्रतियोगी परीक्षा पास करके सरकारी नौकरी प्राप्त की। दोनों ने जीवन साथी बनने का निर्णय लिया और दोस्तों के साथ जाकर मंदिर में शादी कर ली।
शुरू के कुछ साल अच्छे बीते और फिर दो बच्चों के माता-पिता बनने तक ये रिश्ता उलझन बनता गया। नवीन के रोज़ नये रंग दिखने लगे। चीखना चिल्लाना, गाली गलौज, रोज़ शराब पीकर देर से घर लौटना, इन सबके चलते कलह बढ़ती गई।
जो ससुराल वाले शकुन के गुणगान गाते थे, वो भी अब उसकी शिकायत करने पर नवीन का ही साथ देते। नौकरी, बच्चों और घर-बार की देखभाल के बाद रोज़ रोज़ नवीन की पिटाई से उकता कर जीवन समाप्त करने की भी कोशिश की।
फिर बच्चों का मोह उसे ये भी नहीं करने देता था। सारा जीवन यूं ही समझौतों में बीत रहा था। एक सुबह नवीन की तबीयत बिगड़ी तो पड़ोसियों की मदद से उसे अस्पताल ले जाते हुए उसने रास्ते में ही दम तोड दिया।
शकुन एकटक बस उसके निर्जिव शरीर को देखती रही। आंखों में नमी नहीं थी, आज़ादी की खुशी थी। अब उसे और समझौतों संग नहीं जीना था।
शिखा खुराना