संवैधानिक व वैज्ञानिक चेतना से युक्त सभ्य-समाज की संकल्पना के साकार स्वरूप की वकालत करती हुईं ग़ज़लों का मुकम्मल संकलन है:- ” ज़िंदगी अनुबंध है “

 

आमतौर पर ऐसा ही होता आया रहा है कि ग़ज़ल-ओ-शे’रो-शायरी की दुनिया में प्रेम, मोहब्बत, विरह, वेदना वगैरह-वगैरह को ही हम विषय का केन्द्र मानते,लिखते और पढ़ते आते रहें हैं।

हाॅं ये बात अलग है कि कुछ नामचीन शायरों में- अदब गोंडवी, ग़ालिब, मीर, फैज़, आज़मी, जिगर, शकील, फिराक और दुष्यन्त कुमार आदि आदि ने इससे हटकर एक अलग लकीर खींची। और ग़ज़ल-ओ-शे’रो-शायरी को एक नये ढांचे में प्रस्तुत कर ; सामाजिक न्याय के लिए कारगर हथियार के रूप में हथियाया और स्थापित किया।

और अपने तल्ख़ तेवरो-अन्दाज़ में ज्वलन्त समसामयिकी को उठाते हुए इंकलाब की बात की। साहित्य हमेशा से ही समाज का दर्पण रहा है। और आज भी जब अंधविश्वास,पाखंड, धर्म और अमानवीयता का बोलबाला अपने चरमोत्कर्ष पर होता है,तो साहित्य ही समाज को सम्यक दिशा-दृष्टि प्रशस्त करती है।

ठीक इसी तरह 148 पृष्ठीय-विस्तार में सिमटी “जिंदगी अनुबंध है” एक ऐसी ही साहित्यिक दस्तावेज है,जिसमें समस्त 117 ग़ज़लें,कुछ नज़्में व क़तआत संकलित हैं।

यह संग्रह पढ़ते हुए आपके दिलो-दिमाग में वैचारिक उथल-पुथल ना हो,ऐसा हो ही नहीं सकता। मेरा यह दावा है कि आदरणीय आर.पी. सोनकर तल्ख़ मेहनाजपुरी साहब की ग़ज़लों से गुजरते हुए आप अपनी जिंदगी के अनुभवों से गुरेज नहीं कर सकते। और संयोग से कहीं आप ग़र फुले-अंबेडकर की विचारधारा के हैं,तो फिर क्या मिसरे-मिसरे पर झूमने वाले हैं।

आदरणीय आर.पी.साहब की ग़ज़ल-ओ-शे’रो-शायरी में वो शऊर मौजूद है,जो पारंपरिक अरुज़ की कसौटी पर ग़ज़लियत का विशुद्ध तानाबाना बुनने का कमाल करता है। आर.पी.साहब का अंदाजे-बयां भी कमाल का है।

संग्रह को पढ़ते हुए आप अनायास ही दुःख-दर्द, सामाजिक यथार्थ व यकीकत बयानी की अभिव्यक्ततात्मक तरंगों में झूम उठेंगे। जितने चुटीले व सुरीले पूर्ण अंदाज में बड़े ही साफ़गोई के साथ इन्होंने वाह्य-आडंबर,अंधविश्वास, पाखंड व धर्म की ख़बर ली है, काबिले-तारीफ है।

आइए आर.पी. साहब की ग़ज़लियत पर प्रकाश डालते हुए कुछ शे’रों/शायरी का आनंद उठाएं,,

01.
शिक्षा की महत्ता को रेखांकित करते हुए आर.पी.साहब कहते हैं–
“पढ़ाई से बदल जाती है दुनिया,
समझ में “तल्ख़” आता जा रहा है।
जिन्हें छूने से था परहेज़ अब तक,
गले उनको लगाया जा रहा है।”

02.
अंधविश्वास पर चुटकी लेते हुए आर.पी. साहब कहते हैं–
“मरने लगी हैं जल के प्रदूषण से मछलियाॅं,
गंगा में रोज-रोज नहाने से बाज आ।”

03.
हिन्दू वर्ण-व्यवस्था की मानसिकता को खरी-खोटी सुनाते हुए आर.पी.साहब कहते हैं–
“रहूॅं कमतर मगर हिन्दू रहूॅं मैं,
इनायत आपकी कुछ काम नहीं है।”

04
द्रोणाचार्यों से सावधान करते हुए आर.पी साहब कहते हैं कि–
“अभी भी ज्ञान के बदले जहां में,
अंगूठा काटने वाले बहुत हैं ।”

05.
तथागत बुद्ध व अंबेडकर साहब से शिक्षा लेते हुए आर.पी.साहब कहते हैं कि–
“तथागत बुद्ध से अंबेडकर से ‘तल्ख़’ ने सीखा,
हमें इंसानियत की राह को पूरनूर करना है।”

06.
नारियों के प्रति दोहरी मानसिकता रखने वाले समाज की काली सच्चाई को उजागर करते हुए आर.पी. साहब कहते हैं कि–
“यहाॅं नारी की गरिमा बस किताबों में ही लिक्खी है,
जलाते हैं बहू घर की, जो कन्यादान लेते हैं।”

07.
सियासत के काले चरित्र को उजागर करते हुए आर.पी सब कहते हैं कि–
“रोजी – रोटी इल्मो – हुनर पर पाबंदी,
बस मज़हब-मजहब चिल्लाया जाता है।”

08.
दमित-शोषित वर्ग की दास्य-प्रवृत्ति से ऊबते हुए आर.पी.साहब प्रश्न करते हैं कि–
“क्या ग़फ़लत में ही जीना, अब तुमने ठान लिया है,
जागो भी, कब तक सोओगे, कब तक, आख़िर कब तक।”

09.
आदमीयत की बात करते हुए है आर.पी. साहब कहते हैं कि–
जौहरी है , वफ़ा की समझ है हमें,
आदमीयत को गहना समझते हैं जी।”

और यूॅं भी
“आदमी में आदमीयत है तो वो इन्सान है,
है जो मानवता तो छोटा-बड़ा कोई नहीं।”

और यूॅं भी
“खिलौना एक मिट्टी के हैं सब तो फर्क है कैसा,
सभी को एक साथ सम्मान,मिल जाए तो मैं जानूॅं।”

10.
सामाजिक न्याय की दुनिया से दरकिनार कर दिए गए लोगों की बात करते हुए आर.पी. साहब कहते हैं कि–
“तल्ख़ नहीं लिखती है, जिनके बारे में दुनिया,
क्यों न उन्हीं की बात लिखूं, मैं आजमगढ़ का हूॅं।”

11.
सरकारी वादें और दावों की असलियत को उजागर करते हुए आर.पी.साहब कहते हैं कि–
“गरीब भूखे,किसान भूखे, है आदिवासी की प्यास सूखी,
वतन का रहबर ये कह रहा है, अनाज से घर भरे-भरे हैं।”

अंत में बेगैर भूमिका के ही निम्न कुछ अश’आर दृष्टव्य हैं —
“परखना है अगर हमको, तो अवसर भी तो हमको दो,
शिखंडी की ही संताने, तो बस होती नहीं काबिल।”

और
“ख़ून अब बिकने लगे हैं रोटियों के दाम पे,
ऐसे में क्या लेखनी खामोश रहनी चाहिए।”

और
“दास्ता की दास्ताॅं पढ़ते तो तुम भी जानते,
दर्द में डूबी हुई, ऐसी कथा कोई नही।”

और
“धर्म, सियासत के पेशे से,
पेशा कौन यहां बेहतर है।”

और
“हमेशा जो ठगे जाते हैं पंडों और पुजारी से,
उन्हीं से क्यों ये भोले लोग, फिर वरदान लेते हैं।”

और
“किसी के मुॅंह में है चाॅंदी का चम्मच,
निवाले के कहीं लाले बहुत हैं ।”

और
“हमारी शायरी क्या है, जगा देती है ज़ह्नों को,
बगावत का छुपा तूफां, हमारी शायरी में है।”

और
“पत्थर की माता की पूजा करते हैं,
अपनी माॅं के पाॅंव में दुःख का छाला क्यों।”

और
“पाखण्डों के साॅंपों से जब खतरा है,
तल्ख़ बताओ तुमने घर में पाला क्यों।”

और
“मुझे तुम लाख सूली पर चढ़ाओ,
मैं अपनी सच बयानी पर अड़ा हूॅं।”

और
“इतना जहर भरा है तेरी रग-रग में,
विषधर तुझकों काटेगा पछताएगा।”

और
“गरीब शख़्स करे पेट के लिए चोरी,
अमीर लूटता है और ऐश करता है।”

और
“अगर मुहब्बत से पेश आऍं, तो तुम मोहब्बत से पेश आना,
उन्हें न हरगिज मुआफ़ करना,जो तुमको नाहक सता रहे हैं।
पहन के पाखंड का लेबादा, बुतों से हमको डरा-डरा कर,
चढ़ावा बुत को छुआ-छुआ कर,अकूत दौलत कमा रहे हैं।”

और
“वोटों के बदले में तू उनसे, गेहूॅं-चावल पा लेगा,
लेकिन वाजिब हक पा लेगा,नामुमकिन-नामुमकिन है।”

और
“कोई औरत नहीं है देह फ़क़त,
रूप में झांकिए शराफ़त से।”

और
“बुरे कर्मों के फल से तुम बचा सकते नहीं ख़ुद को,
चढ़ावा दो या ख़ुद को गंगा-जल से खूब नहलाओ।”

और
“हम मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के हैं सर झुका सकते नहीं,
आप चाहे तो हमारा सर क़लम कर दीजिए।”

और
“देश के रहबर हमें परमाणु युग में ले चलें,
भूख,रोटी,मुफलिसी अब हाशिए पर आ गयी।”

उपर्युक्त शे’रों/अश’आरों में आदरणीय आर.पी.साहब की वैचारिक गहराई,बानगी व व्यंगात्मक पुट के साथ तल्ख़ी सच्चाई को उद्घाटित करने की कला स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

आदरणीय आर.पी. साहब को इस महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई सह मंगलकामनाएं। अंत में मैं आदरणीय आर.पी.साहब को ग़ज़ल संग्रह में अपने नामोल्लेख के लिए कृतज्ञतापूर्वक सादर शुक्रिया,आभार एवं साधुवाद सहित प्रणाम निवेदित करता हूॅं।

।। भवतु सब्ब मंगलम् ।।

नरेन्द्र सोनकर ‘कुमार सोनकरन’
नरैना,रोकड़ी,खाईं,खाईं
यमुनापार,करछना, प्रयागराज ( उत्तर प्रदेश )

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