दहकता कश्मीर | Kashmir par kavita
दहकता कश्मीर
( Dahakata kashmir )
कभी फूलों का गुलशन था,दहकता आग बन गया।
कभी धरती का जन्नत था, जो अब विरान बन गया।
कभी वो साज फूलों का, लो अब श्मशान बन गया।
जो बसता है मेरे दिल में, वो नश्ल ए खास बन गया।
वो घाटी देवदारों की, जहां केसर की खूशबू थी।
कभी वो ताज भारत का, वो अब बेजार बन गया
निकाला है जिन्हे घर से, चिनारों के सिकारों से।
वो पंडित अब नही आते, घाटी के किनारो पे।
मची है कत्ल हिंसा रूह भी इल्जाम देती है।
घाटी का हर इक जर्रा,चीख कर हालात कहती है।
जो चाहे कह लो तुम मुझको, मैं काफिर था मैं काफिर हूँ।
नही बनना मुझे भाई, वो कातिल है चिनारों के।
हमें अपनों ने लूटा हैं जो, मिलकर साथ रहते थे।
पर हिन्दू बन गये जैसे, हलाल ए ईद के बकरे।
चिता श्मशान के राखों से, ये आवाज निकली हैं।
कोई तर्पण करे मेरा, यही बस आह निकली है।
बता दो कौन हूँ मैं मुल्क मेरा कौन है आखिर।
मैं जिन्दा हो के भी लगता हैं मुर्दो में हूँ शामिल।
मैं घाटी का वही हिन्दू, जहाँ शिव और भवानी है।
मेरा इतिहास उज्जवल है, किताबों मे कहानी में।
कोई कुछ तो कहो कि कब तलक ऐसे रहूँगा मैं।
नही कहना है कुछ तो थूक दो हालात पर मेरे।
वहाँ पर नफरतों का दौर है, जो हमने झेला है।
ये आंसू रक्त है अपने, दिलों पे भी फफोला है।
यही पे बन्द करता हूँ दिखाना दिल के जख्मों को।
कभी फुर्सत मिले तो तुम भी पढना मेरे जख्मों को।
नही हुंकार है कोई यहां बस हूंक है दिल में।
नही फूलों की घाटी अब तो है बस दर्द इस दिल में।
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कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )