संभल जा ज़रा | Kavita sambhal ja zara
संभल जा ज़रा
( Sambhal ja zara )
संभल जा ज़रा
पछताएगा,रोएगा
अपने किए दुष्कृत्यों पर
फिर सोच सोच कर….
अभी समय है
बच सकता है तो बच
बचा सकता है तो बचा
अपनों के अहसासों को
अपनों के अरमानों को…..
तुमसे ही तो सारी उम्मीदें हैं
तुम ही तो पालनकर्ता हो
अब तुम ही नहीं सम्भलोगे तो
बाकी सबका कौन है …?
रोक सकता है तो रोक
थाम सकता है तो थाम
उनके हाथों को
जो छुट गए हैं तुमसे
जो बिछड़ रहे हैं तुमसे…
समझ सकता है तो समझ
जान सकता है तो जान
घर से ही तो अपने हैं
तेरे बगैर घर कैसा
अपना सकता है तो अपना
मना सकता है तो मना
रूठे हुए अपनों को….
वे तुम्हें माफ़ कर देंगे
तू अपनी गलती स्वीकार करके तो देख
कुछ नहीं बिगड़ा है अभी
वापिस आ सकता है तो आ
तेरे लिए दरवाजे खुले हैं
देख तेरा इंतजार आज भी है….!!
कवि : सन्दीप चौबारा
( फतेहाबाद)
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