मातृत्व की साक्षात मूर्ति : कस्तूरबा गांधी

दुनिया में जो इतने दुख बढ़ गए हैं उसे मां के मातृत्व भरे आंचल में ही शांति प्राप्त हो सकती है । कोई भी व्यक्ति कितना भी महान क्यों ना हो वह मां के उपकारों का बदला नहीं चुका सकता। महात्मा गांधी की महानता के पीछे मां पुतलीबाई का जितना बड़ा योगदान है उससे कम उनकी पत्नी कस्तूरबा का भी है। गांधी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में कस्तूरबा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उनका जन्म पोरबंदर सौराष्ट्र के इस मोहल्ले में हुआ था जिसमें गांधी जी का घर था ।‌ उनकी सगाई मात्र 7 वर्ष की बाल्यावस्था में ही हो गई थी। वे मायके में ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी । परंतु गांधी जी ने उन्हें ऐसा बना दिया था कि वह साधारण रूप से न्यूज़पेपर आदि पढ़ सकती थी। उनका दांपत्य जीवन लोगों के लिए उदाहरण है कि यदि पत्नी में कोई कमी है तो पति का कर्तव्य है कि उसे पूर्ण करने का प्रयास करें। सामान्यतः देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति शिकायत तो करते हैं परंतु पत्नी के दोषों और कमियों को दूर करने का प्रयास नहीं करते।

गांधी जी ने कहा था कि -“मुझे अपनी स्त्री को आदर्श स्त्री बनाना था ।वह साफ बने, साफ रहे, मैं जो सीखूं वह भी उसे सीखे, हम एक दूसरे से ओत-प्रोत रहे । मैं बचपन में उनको कभी यह इच्छा करते नहीं पाया कि जिस तरह से मैं पढ़ता हूं उस तरह खुद भी पढ़ें तो अच्छा हो ।”

बा को खूनी बवासीर की शिकायत हो जाने से ऑपरेशन कराना पड़ा । रक्त स्राव अधिक होने के कारण उनकी कमजोरी बढ़ने लगी। जिस कारण से डॉक्टरों ने उन्हें मांस का शोरबा देना चाहा परंतु इसके लिए वह तैयार नहीं हुई। डॉक्टर के अत्यधिक दबाव के बाद भी वह नहीं झुकीं और बाद में गांधी जी के प्राकृतिक उपचार एवं सेवा से ठीक हों गयी।

गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने लगे तो उन्हें लोग श्रद्धा वर्ष सोने चांदी एवं हीरे जवाहरात देना चाहा। कस्तूरबा के लिए 50 गिन्नियों से बना एक हार देना चाहा ।गांधी जी ने कुछ भी लेने से मना कर दिया परंतु बा का हार के प्रति मोह खत्म नहीं हो पा रहा था। बाद में गांधी जी के समझाने से वे मान गई । उन्हें लगा की सेवा के बदले में उपहार स्वीकार करने से सेवा का महत्व खत्म हो जाता है ।

आधुनिक समय में सेवा के नाम पर ढोंग करने वालों को गांधी जी से शिक्षा लेनी चाहिए कि अगर हम स्वार्थ की भावना रखते हुए कोई सेवा कार्य करते हैं तो वह कभी श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकेगा।

बा अत्यधिक परिश्रमशील महिला थी । प्रातः काल 3:00 बजे प्रार्थना के साथ जागरण होता तो रात्रि में जब तक गांधी जी के सिर में तेल मालिश करके सुला नहीं देती थी वह नहीं सोती थी।

बापू के व्यक्तिगत भोजन तैयार करने से लेकर सार्वजनिक भोजनालय की देखभाल करने , रात्रि में अत्यधिक परिश्रम से वह थक जाती थी फिर भी कभी शिकायत नहीं करती। आश्रम में रहने वाले सभी लोग उनके बच्चे के समान थे । जिस प्रकार से गांधी जी पूरे राष्ट्र के पिता थे उसी प्रकार बा पूरे राष्ट्र की मां थी।

बा को यदि गृहस्थ योगिनी कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। घर परिवार में रहते हुए सारे सांसारिक सुख-दुख के बीच जीवन गुजारते हुए जो उन्होंने त्याग वृत्ति का परिचय दिया वह बा जैसी महान स्त्री ही कर सकती है।
बाकी महानता को एक बार हंसते हुए गांधी जी ने कहा था कि-” होना तो यही चाहिए ना, अगर मियां एक कहे तो बीबी दूसरा तो जीवन खारा हो जाए लेकिन यहां मियां की बात को बीवी ने सदा माना ही है।”

आश्रम में आने वालों से वे इतनी आत्मीयता से मिलती ,उनके सुख-दुख पूछती कि लोग जीवन के सारे दुख- दर्द भूल जाते थे। आने वालों से वह पूछती -“कहां से आए ?सीधे यही आ रहे हो? खाना खाया या नहीं? गाड़ी में कोई तकलीफ तो नहीं हुई ?आश्रम वासियों से भी पूछती रहती – खाना तो तुम्हें पसंद पड़ता है ,देखना कोई तकलीफ ना उठाना! किसी चीज की जरूरत हो तो मुझसे कहना।”

मेहमानों की आवभगत करने में वह कभी-कभी गांधी जी के नियमों को भी तोड़ देती । क्योंकि मां की ममता के आगे नियम कानून फीके पड़ने लगते हैं। दीनबंधु को चाय पीने की आदत थी । गांधी जी चाय के सख्त खिलाफ थे, परंतु बा चुपके से उन्हें चाय पिला देती ।इसके लिए गांधी जी कभी-कभी बा की शिकायत भी करते ।

बा की आश्रम में रहने के कारण राजगोपालाचारी को भी चाय कॉफी मिल जाती थी तो जवाहरलाल जी भी खास स्वाद वाली चाय बा के कारण ही पा सकते थे। राजेंद्र बाबू , सरदार पटेल , मोतीलाल, मौलाना आजाद आदि राजनेताओं का ख्याल भी बा ही रखती थी ।यह नेतागढ़ बापू से राजनीतिक विचार विमर्श में चाहें जितना थक जाते हो परंतु बा से मिले बिना नहीं जाते थे।

बा की जीवन में साम्य योग सहज में झलकता था। जैसे उन्हें अपने पुत्र प्यारे थे उसी प्रकार आश्रम वासियों के लोग उनके पुत्र समान ही थे। बा त्याग की प्रतिमूर्ति थी। जिसका आदर्श उदाहरण उन्होंने अपनी मृत्यु के पूर्व दिखा दिया था।

गांधी जी ने जब अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का श्री गणेश किया तो वह उपवास पर चले गए । उपवास जैसे-जैसे बढ़ता गया बापू की स्थिति नाजुक होती गई । वह आदर भाव से भगवान को पुकारने लगी ।

गांधी जी को जैसे ही दो औंस रस और दो औंस पानी दिया गया । उनके निस्तेज और फ़ीके चेहरे पर जीवन की किरणें झलकने लगी।

इतने में जब बा भीतर आई तो देखा कि भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली है । वह भी महाशिवरात्रि के ही दिन 22 फरवरी 1944 को परम तत्व में विलीन हो गई ।बापू को छोड़कर वह परमधाम की पथिक बन गई।

 

लेखक : योगगुरु धर्मचंद्र

प्रज्ञा योग साधना शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान
सहसो बाई पास ( डाक घर के सामने) प्रयागराज

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